श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! धेनुक राक्षस का वध !!
भाग 1
तालवन को देखते देखते शून्य में पहुँच गए थे कन्हैया ।
“ओह ! तो ये”……..गम्भीर ही बने रहे नन्दनन्दन ।
भक्तराज प्रह्लाद के पुत्र हुए विरोचन, विरोचन के बलि ….और बलि का पुत्र था “साहसिक” ।
महाप्रतापी ……महाबली ………देवता तक काँपते थे इससे ।
एक दिन……….चला गया ये बदरी खण्ड में …….जहाँ नरनारायण तपस्या में लीन थे ………..ये क्षेत्र इस राक्षस को प्रिय लगा ।
पर उसी समय उस “साहसिक असुर” की भेंट हुई……एक अद्भुत सुन्दरी स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा से …..दोनों ही एक दूसरे पर मुग्ध हो गए ।
साहसिक का बलिष्ठ देह तिलोत्तमा को आकर्षित कर रहा था ।
हाथ पकड़ लिया साहसिक नें ……….निकट आया तिलोत्तमा के …..शरमा गयी थी वो ………….साहसिक मुस्कुराते हुए अप्सरा को लेकर गया एक गुफा में …………….।
तात ! ये बदरी क्षेत्र है …….ये तपस्थली है ……कोई भोग विलासिता की भूमि नही ………….उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
उसी गुफा में तप कर रहे थे …..ऋषि दुर्वासा ।
भोगरत प्राणी के परमाणु निम्न कोटि के होते हैं ……….जो आपके मन में भी विकार उत्पन्न कर देते हैं ………….वैसे ऋषि दुर्वासा के मन में कौन विकार उतपन्न कर सका है …….पर उनकी तपस्या टूट गयी ।
ऋषि नें देखा…….कहाँ ये गुफा शुद्ध सात्विकता के परमाणुओं से भरी हुयी थी …..वहीं भोग विलास करके इन दोनों नें ………छि !
क्रोध उठा ऋषि के मन में …….और उन्होंने श्राप दे डाला ……….
हे असुर ! जा ! तू गधा हो जा !
तिलोत्तमा सिर झुकाकर अपनें स्वर्ग में चली गयी ।
..पर वो साहसिक असुर …….पश्चाताप में जलनें लगा …………सच कहा है इन्होनें ……….ये केदार खण्ड बदरी क्षेत्र कोई विलासिता की भूमि नही है……….चरण पकड़ लिये ऋषि दुर्वासा के साहसिक नें …….अश्रु गिरनें लगे उसके नेत्रों से ……पर ऋषि दुर्वासा तो वहाँ से जा चुके थे ।
नन्दनन्दन शून्य में देखते हुए सब समझ गए……अब मुस्कुराये थे ये ।
कन्हैया ! काहे कूँ मुस्कुरा रह्यो है ? दाऊ नें आकर पूछी ।
नहीं दादा ! बस जा तालवन कूँ देख रह्यो हो …………।
तभी –
आज तो जे कन्हैया हमें भूखो ही मारगो……देखो ! दोपहरी है रही है …पेट में मूसा कूदते भये मर हू गए……मनसुख आपस में बोल रहा है ।
कहा भैया ! भूल लगी है ?
नन्दनन्दन और दाऊ दोनों सखान के पास आगये हते ।
हाँ …….भूख तो लगी है …..पर तोहे तो राक्षसन कूँ मारनौ है ………श्रीदामा नें उलाहना के स्वर में जे बात कही ही ।
अरे ! बीर तो वाते कहें …..जो जा भूख नामक राक्षस कूँ मार देय …कन्हैया ! पहले तू लाला ! जा भूख असुर कूँ मार ….सबरौ झंझट ही खतम है जायगो ……….मनसुख नें भी अपनी बात कह दई ।
कन्हैया अब हँसे ………पर घर ते आज कछु नाँय आयो ।
अरे ! घर की छोड़ …..सामनें देख ! …..तालवन ……क्या सुन्दर पके भये ताल के फल हैं …..देख ! और क्या बढ़िया सुगन्ध आय रही है ।
भद्र सखा नें कन्हैया ते कही ।
पर ………मनसुख चुप है गयो ।
पर वर छोडो ………..जाओ ! फल है तो खावे के लिये ही तो हैं ।
जाओ फल खाओ ……..कन्हैया नें बड़ी सहजता में कह दियो ।
वहाँ असुर रहे है …………….श्रीदामा बोल्यो ।
अरे ! तो दाऊ दादा तुम्हारे साथ है …………..कन्हैया नें अपनें दाऊ कूँ उकसाये दियो ……..चौं दाऊ दादा ! जाओ ………रक्षा करो इन सबकी !
*क्रमशः …..
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