श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! महालक्ष्मी का प्रवेश निषेध – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
तब नभ से उतरीं महालक्ष्मी ……………….
उमा ! सावित्री ! मैं जा रही हूँ वृन्दावन …………..तुम लोग यहीं रहना ……..मैं इस रस का आस्वादन वहीं जाकर करूंगी ………
उमा और सावित्री दोनों देवियों नें कहा ……….हाँ , आप जाओ ! और दर्शन भी कर आओगी उस महारास का, तो भाग्यशालीनीं होगी !
दर्शन नही …..मैं तो लक्ष्मी देवी हूँ …….उन सब ब्रजदेवीयों को हटाकर मैं स्वयं नाचूंगी अपनें “नागर नारायण” के साथ ।
मटक रही थीं लक्ष्मी देवी ……….।
पर वहाँ तो श्रीराधा हैं ……………उमा नें कहना चाहा ।
राधा क्या है ? एक ग्वालिनी तो है ……….पर मैं तो अंगसंगा महालक्ष्मी हूँ …………पर ! लक्ष्मी सोचनें लगीं ।
क्या सोच रही हो ? उमा सावित्री नें पूछा ।
मेरे साथ तो भगवान नें कभी वैकुण्ठ में इस तरह रास नही किया ?
चलो कोई बात नही ……….मैं जाती हूँ वृन्दावन ………..इस विषय पर ज्यादा न सोचते हुये लक्ष्मी जी चली गयीं थीं वृन्दावन ।
आप कौन हैं ?
दो अत्यन्त सुन्दर गोपीयों नें लक्ष्मी को रोक दिया ….और रोका भी तो वृन्दावन की सीमा में ………..यमुना के इस पार आनें नही दिया ।
लक्ष्मी हँसीं ………….मैं कौन हूँ जानती हो ?
आप कोई भी हो …..पर आपका वृन्दावन में प्रवेश नही है ……..
वो गोपियाँ श्रीराधा जी की सखियाँ थीं ।
अच्छा सुनो ! मेरा परिचय सुनोगी तो मुझे रोकोगी नही ।
लक्ष्मी का अपना अहंकार था ।
कौन हो तुम ? महालक्ष्मी ?
आश्चर्य ! इन गोपियों को पता कैसे चला !
और लक्ष्मी जी नें पूछा भी ……..तो गोपियों नें मुस्कुराते हुये उत्तर दिया ………हमें आप क्या समझती हैं ……..हम सर्वेश्वरी श्रीकिशोरी जी की सहचरी हैं ……..कोई साधारण नही हैं ।
लक्ष्मी जी अपना प्रभाव दिखानें लगीं …….पर …….
गोपियाँ हँसी ………..ये अल्हादिनी की भूमि है ………ये प्रेम की भूमि वृन्दावन है ………..यहाँ आपका वैभव कुछ काम नही आएगा ।
पर तुम लोग मुझे जानें क्यों नही देतीं वृन्दावन में ………मुझे जानें दो ……मैं दर्शन करना चाहती हूँ …………..लक्ष्मी जी अब समझ गयीं कि ….मैं जो सोचके आयी थी ……रास करूंगी ……नृत्य करूंगी वो भी श्यामसुन्दर के साथ ………पर यहाँ तो वृन्दावन में ही प्रवेश निषेध कर दिया ………अब क्या करूँ ।
प्रेम नगरी है ये श्रीधाम वृन्दावन…….प्रेम नगरी में सबका प्रवेश कहाँ ?
यहाँ तो वही आ सकता है………जो झुके ……..नम्रता ओढ़े ……..और घुटनों के बल सरकते हुये चले …….कोमल है ये वृन्दावन …..यहाँ अहंकार की गर्मी सहन नही होती इस श्रीधाम को ………..वैसे भी प्रेम नगरी में चलो तो सम्भल कर चलो …….और …….हँसी गोपियां ……..आप तो महालक्ष्मी हैं ….महामाया हैं …..आप जिसके पास चली जाएँ वह अहंकार से ग्रस्त हो ही जाता है …………फिर आप स्वयं !
दोनों गोपियाँ हँसती रहीं…………महालक्ष्मी नें कहा …..मैं प्रवेश पाकर रहूँगी वृन्दावन में…….गोपियों नें कहा ……..क्या करोगी आप ? मैं , मैं तपस्या करूंगी ………बस पैर पटकती हुयी यमुना के उस पार विल्ब फल के घनें वन थे …..जिसे बृजवासी “बेल वन” के नाम से जानते थे……..उसी स्थान पर लक्ष्मी जी नें तप करना शुरू किया ……..और तप इसलिये कि ………श्रीधाम वृन्दावन में प्रवेश के लिये ………और तात ! देखिये ! आज भी तप में लीन हैं महालक्ष्मी …..पर इस दिव्य वृन्दावन में उन्हें प्रवेश नही मिला है ।
सामनें देखा विदुर जी नें………यमुना के उस पार ……..महालक्ष्मी तपस्या कर रही हैं……..वह वन भी लक्ष्मी जी के “श्री” से चमक रहा था …..पर प्रेम की चमक के आगे “श्री” की चमक फीकी ही तो थी ।
*शेष चरित्र कल –
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