श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! जब कुब्जा को भी अपना बनाया !!
भाग 2
हे भुवन सुन्दर ! मेरे मन से हीनता को निकालनें का जो आपनें प्रयास किया है उसके लिये धन्यवाद !
मैं आज तक कभी इस तरह किसी से बोली नही ……मैं सिर झुकाकर ही चलती थी …..नीचे दृष्टि करके ही बोलती थी……पर आपनें ।
मुस्कुराये फिर श्रीकृष्ण……उसके हाथों को पकड़ा……..
आप ऐसे छूते हैं तो मुझे असीम आनन्द की अनुभूति होती है ।
फिर एकाएक बोली – आप कहें तो मैं आपका श्रृंगार कर दूँ ?
तोते सुन्दरी कही काहे के ताईं हैं ?
मनसुख बृजभाषा में बोला ….तो सब सखा हंसे ।
ये आपके सखा क्या कह रहे हैं ? कुब्जा पूछ रही है ।
कछु नांय कह रहे तू अब जल्दी सजाय दे हमारे या रसिया कु ।
ग्वालों की बातें कुब्जा कुछ कुछ समझ रही थी …………तब श्रीकृष्ण बोले …..हमारी बातों का बुरा मत मानना …..हम बृजवासी हैं …….ऐसे ही सहज बोलते हैं……..पर कुब्जा क्यों बुरा माननें लगी ।
उसनें अपनी डलिया से चन्दन का लेप निकाला ……..फिर केशर का ….. उसके हाथों में कला थी ….अद्भुत कला …….श्रीकृष्ण के मुखमण्डल में कैसे उसके हाथ चल रहे थे………रुई में गुलाब जल डालकर उसनें चन्द्र से आनन को पहले पोंछा…….फिर उसनें सजाया …..कस्तूरी का तिलक, केशर और चन्दन की पत्रावली कपोल में ………..कितनी शीघ्रता से वो ये सब कर रही थी………..रस पूर्ण हो गयी थी ये कुब्जा आज ………..वैसे ही सुदामा माली के भाव से चरणों तक झुक आयी माला थी ही श्रीकृष्ण के गले में …….उसपर श्रृंगार और कर दिया इस कुब्जा नें …………..”बहुत सुन्दर लग रहे हो अब”…………वो मुस्कुराई ……….फिर एकाएक उसके नेत्र छलक उठे …………वो भाव में डूबकर बोली ………मेरी कला आज धन्य हुयी है ………कहाँ मैं कंस का श्रृंगार करती थी ……..और कहाँ आप ! हे भुवन सुन्दर ! मैं कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ पर मेरा ये कूबड़ मुझे कुरूप बना देता है ……और आप तो सौन्दर्य के अपार सिन्धु हैं ……….ये कहते हुये सब सखाओं से पूर्व अग्रज दाऊ भैया को भी चन्दन लगा दिया था इसनें ………वो अब जानें लगी …………
रुको ! ए सुन्दरी ! रुको ! फिर पीछे से वही रस से भरी वाणी कानों में घुर गयी ………
वो मुड़ी नही इस बार ……..”मैं आपको देखूंगी नही …….बताइये मुझे क्यों रोक रहे हो ? “
तुम ऐसे ही खड़ी रहो…….ऐसा कहते हुये श्रीकृष्ण नें उसे पास में जाकर पकड़ा ……एक हाथ कुब्जा के कमर में दोनों चरण उसके पैरों में और एक झटका…….. ओह ! चीत्कार निकला कुब्जा के मुख से….और वो तो ।
मैं ठीक हो गयी…….राजमार्ग में लोगों की भीड़ खड़ी है ……सबनें देखा है ये चमत्कार……कुबड़ी कुब्जा को सुन्दरी बना दिया था श्रीकृष्ण नें …..उसका कूबड़ चला ही गया था ।
चलो अब ! हाथ पकड़ लिया श्रीकृष्ण का कुब्जा नें ……..बोली……….अब चलो मेरे घर ।
श्रीकृष्ण हंसे …….कहाँ घर ?
नेत्रों से अश्रु बहनें लगे कुब्जा के …..आनन्द के अश्रु थे ……..
हे भुवन सुन्दर ! अब मैं सिर्फ आपकी हूँ ………आपको मेरे साथ चलना ही होगा मेरे घर ……..मैं आपको छूना चाहती हूँ …..मैं आपको अपना सब कुछ अर्पण करना चाहती हूँ ……….भुवन सुन्दर ! मेरे घर चलिये ………कुब्जा हाथ पकड़ कर अपनें घर ले जानें लगी ।
कोमल कर कुब्जा के सिर में रखे श्रीकृष्ण नें ………..तुम्हारी तपस्या थी सुन्दरी ! तुमनें मुझे चाहा था …….इसलिये ही मैं तुम्हे मिला हूँ ………जाओ ! मैं तुम्हारे पास आऊँगा ……….राजा कंस का वध करके अवश्य आऊँगा ।
कुब्जा को सुन्दरी बना दिया था श्रीकृष्ण नें……….और उसे भेज दिया उसके घर में ……ये कुब्जा अब श्रीकृष्ण की महारानी बनेगी ।
उद्धव नें विदुर जी से कहा ।
पर उद्धव ! कुब्जा को श्रीकृष्ण नें ये क्यों कहा कि तुमनें मुझे पानें के लिये बहुत तपस्या की थी ? इसनें कौन सी तपस्या की ?
तात ! ये कुब्जा कोई और नही रामायण की पात्र सूर्पनखा ही तो है ।
उद्धव हंसे ये कहते हुए …………विदुर जी चौंके …….
शेष चरित्र कल –
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