श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! सूर्पनखा ही कुब्जा बनकर आई….!!
भाग 1
तात ! आस्तित्व की दृष्टि में सब बराबर हैं …….मैने तो द्वारिका में देखा श्रीकृष्ण चन्द्र जू को ……..महारानी रुक्मणी का महल जहाँ था उसके बगल का ही महल कुब्जा का था …….ये महारानी बनीं …….ये पट्महिषी थी श्रीकृष्णचन्द्र जू की ।
उद्धव विदुर जी को कुब्जा के विषय में बता रहे थे ।
पर ये कुब्जा…..और कहाँ देवी रुक्मणी ! दोनों में कोई भेद नही रखा श्रीकृष्ण नें ? विदुर जी नें प्रश्न किया ।
हंसे उद्धव ……….तात ! हमारी दृष्टि में भेद है ……ये बड़ा ये छोटा ….पर आस्तित्व की दृष्टि तो समान होती है…..आप समझते हैं तात !
कुछ देर विचार करते हुए मौन हैं विदुर जी………
हाँ, तुम ठीक कहते हो उद्धव ! उनकी दृष्टि में क्या भेद ! वो तो सबके हैं …..सब उनके हैं ।
पर उद्धव ! क्या यही कुब्जा सूर्पनखा थी ? रामावतार की सूर्पनखा ………फिर कैसे ये कुब्जा बनीं ? कुछ बताओ उद्धव !
विदुर जी के पूछनें पर उद्धव बोले –
सूर्पनखा मोहित हो चुकी थी श्रीराघवेंद्र प्रभु के सौन्दर्य पर ……..पंचवटी में ही उसनें हृदय से श्रीराघवेंद्र को अपना मान लिया था ………..प्रयास किया उसनें अपनी राक्षसी वृत्ति अनुसार ……….भगवती सिया जू को हटानें का …….पर रामानुज लक्ष्मण नें उसको विरूप कर दिया ………….वो खर दूषण के पास गयी ………पर श्रीराघवेंद्र के बाणों से कौन बचा है ……खर दूषण का भी वध किया श्रीराम भद्र नें ।
तात ! आप जानते ही हैं ……….असुराधीश दशानन की ये भगिनी तो थी …….अब ये वहीं गयी ………….सभा लगी हुयी थी समस्त लोक पाल वहाँ बैठे थे …….सूर्पनखा जाकर चिल्लाई वहाँ ।
हे दशानन ! काहे का अहंकार है तुझे ……तू कुछ नही है उनके सामनें ।
सूर्पनखा को इस अवस्था में देखकर वो सिंहासन से उठ गया था …….
नासिका कटी बहन की देखकर वो क्रोधित होकर बोला ………..किसकी हिम्मत हुयी मेरी बहन को विरूप करनें की ।
हट्ट ! तू केवल बातें बनाना जानता है ………रावण ! अगर हिम्मत है तो उन तपश्वी वीरों का सामना कर ।
कौन तपस्वी वीर ? रावण नें परिचय पूछा था ।
उद्धव कहते हैं………….सूर्पनखा आह भरनें लगी …………वो भुवन सुन्दर हैं ………उनके जैसा सुन्दर मैने विश्व में नही देखा ……….राम ! हाँ यही नाम है उनका ………उनका वो दिव्य देह …….उनकी वो बलिष्ठ भुजाएँ……….ऐसा पुरुष मैने देखा नही है रावण !
सूर्पनखा ! चिल्लाया रावण…….अपनें शत्रु की प्रशंसा कर रही हो ।
वो प्रशंसा के योग्य हैं तो क्यों न करूँ ? भैया ! मैं तो गयी थी उनको अपना वर चुननें ……..पर मेरे इतने सौभाग्य कहाँ ?
मेरे मार्ग में रोड़ा बनी है उनकी पत्नी सीता …………भैया ! बहुत सुन्दर है वो ………..तुम ले आओ उसे ………….
विदुर जी से उद्धव कहते हैं………..आग लगाकर कुछ दिन तक लंका में ही रही सूर्पनखा फिर चली गयी ।
क्रमशः ….
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