श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! सूर्पनखा ही कुब्जा बनकर आई….!!
भाग 2
विदुर जी से उद्धव कहते हैं………..आग लगाकर कुछ दिन तक लंका में ही रही सूर्पनखा फिर चली गयी ।
किसी को पता नही कि वो गयी कहाँ ! राम रावण जैसा युद्ध न भूतो न भविष्यति, ऐसा युद्ध करवा कर वो चली गयी थी ।
उसके हृदय में श्रीराघवेंद्र छा गए थे……..उसे सर्वत्र वही दिखाई देते…………मार्ग में देवर्षि नारद जी मिले …….सूर्पनखा को देखा तो हँसनें लगे……..तू कहाँ भटक रही है ……….लंका युद्ध की बिभिषिका में जल उठा है…….असुर समाज त्राहि त्राहि कर रहा है ….भगवान श्रीराम संहार कर रहे हैं और ये सब तेरे कारण ही हो रहा है ।
सूर्पनखा कुछ नही बोली …………उसका रोम रोम “राम राम” कह रहा था …….वो सच में राममय हो गयी थी ……..राम को ही उसनें अपना सर्वस्व मान लिया था …………।
देवर्षि सब समझ गए सूर्पनखा को देखकर ……….वो हंसे ……..अच्छा बता क्या चाहती है तू ?
“श्रीराम को अपना पति”………..ये कहनें में भी उसे अपार आनन्द की अनुभूति हो रही थी …………..वो फिर आह भरती हुयी बोली ………हे देवर्षि ! मुझे श्रीराम भर्ता मिलें …………….आप कृपा करो ।
पर ये सम्भव नही है …….देवर्षि नें स्पष्ट कह दिया ।
क्यों सम्भव नही है ……..मैं तप करूंगी …….वर्षों तक तप करूंगी ……युगों तक तप करूंगी ………..तब तो मिलेगें ?
हाँ फिर तो मिलना ही पड़ेगा …………..हँसते हुये जानें लगे थे देवर्षि ।
“मैं तप करूंगी” सूर्पनखा के रोम रोम में राम छा गए थे ……… उसे तड़फ़ थी राम को पानें की ………..समय बीतता गया वो तप करती रही …….पर एक दिन युग बदला ……त्रेता युग से द्वापर युग आगया…….सूर्पनखा नें अपना देह त्याग दिया ….द्वापर का अंत आनें को हुआ ……..तो कुब्जा के रूप में सूर्पनखा नें ही जन्म लिया था ।
इसनें चाहा था श्रीराम को और श्रीराम ही तो श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं द्वापर में ………….तात ! मिलन हुआ दोनों का ………तब श्रीकृष्ण नें कहा भी कुब्जा से………तप किया है तेनें बहुत …….मुझे चाहा है तूनें ……हे कुब्जा ! मैं ही तुझे मिलूँगा ……….मैं आरहा हूँ तेरे घर …….तू जा ! मेरी प्रतीक्षा कर ………मेरी महारानी बनोगी तुम !
तात ! कुब्जा चली गयी थी अपनें घर ………….और वहीं बैठकर श्रीकृष्ण चन्द्र जू की प्रतीक्षा करनें लगी थी ………उद्धव बोले …….मैं कुब्जा को देखता था तो मुझे वो अच्छी नही लगती थी ……मैं उसे धिक्कारता था ……..मैं गोपियों का प्रेम उसको बताना चाहता था ….पर ……हंसे उद्धव ! गोपी प्रेम कुब्जा में कैसे आजायेगा ? गोपी कहाँ सिद्धा, श्रुति रूपा, जीवन्मुक्त और तो और नित्य लीला में श्रीकृष्ण की सहचरी ! ………और ये सूर्पनखा ! हंसे उद्धव ।
कुब्जा नें भोग विलास को ही महत्व दिया स्वयं के सुख को ही महत्व दिया ……….पर गोपियों नें ? आहा !
फिर कुछ देर में बोले उद्धव ……..”.पर, हम सब से तो भाग्यशालिनी है कुब्जा ……..श्रीकृष्ण के अंगसंग का सौभाग्य इसे मिलता रहा ” ।
तात ! अब श्रीकृष्ण राजमार्ग को छोड़कर रंगशाला की ओर बढ़ चले थे , जहाँ विशाल शिव धनुष रखा था ।
शेष चरित्र कल –


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877