श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! अब उद्धव की विदाई – “उद्धव प्रसंग 28” !!
भाग 2
ये कहते हुये हिलकियों से रो पड़ा था मनसुख ………..उद्धव ! कहना कन्हैया से …..उसका मनसुख फिर से दुबला हो गया है …….बहुत दुबला हो गया है …….आजा ! माखन खिला मनसुख को आकर !
उद्धव ! कहना कन्हैया से ।
मैं कुछ बोल न सका…….क्या बोलता इन निःस्वार्थ निर्मल प्रेमियों के सामनें…….मैं निकल गया गोपियों को भी ये सूचना देनी थी कि। मैं कल मथुरा जा रहा हूँ ….सखाओं से विदा ले मैं यमुना के किनारे आया ।
उद्धव ! तुम इतनी जल्दी जाओगे ! अभी तो आये ही थे !
ललिता नें मुझ से कहा था ।
मैने साष्टांग श्रीजी के चरणों में प्रणाम किया ……….वो अल्हादिनी मेरे प्रणाम स्वीकारनें में बड़ा संकोच करती हैं ……………
कल कब जाओगे ? मुझ से इतना ही पूछा था ।
सूर्योदय के पश्चात ………….मैने कहा ।
तुमनें आकर अच्छा किया उद्धव ! इन्दु भी बोली थीं ।
हमारे लिये तो सत्संग हो गया ………..हमारे प्रियतम के सखा तुम हो ………इसलिये तुम से ही कहती हैं ……हमारे प्रिय का ध्यान रखना .।
कुछ सन्देश देना हो तो दे दो मैं जाकर दे दूँगा !
मैनें नमन करते हुये गोपियों से कहा था ।
हम क्या दें सन्देश उद्धव ! गोपियों की फिर हिलकियाँ बंध गयीं ।
सन्देश ? हमें चिट्ठी लिखनी तो आती नही……..हम पढ़ी लिखी नही है ना ! इसलिये……..गोपियों नें इतना ही कहा ।
कोई वाचिक सन्देश ही दे दो …….मैं चिट्ठी के लिये नही कह रहा ।
उद्धव ! मेरी सदगुरु श्रीराधारानी बोलीं ……………कहना , वो खुश रहें मथुरा में …….कहना प्यारे से कि वो हमें लेकर कभी दुःखी न हों …….हम सब अच्छी हैं …..खुश हैं ………..और , और हो सके तो हमें वो भूल जाएँ ………ये कहते हुये श्रीराधा जु मूर्छित ही हो गयीं थीं ।
मैं वहीँ बैठ गया …………मुझे आज श्रीकृष्ण गलत लग रहे थे ……मुझे आज श्रीकृष्ण अपराधी लग रहे थे …….क्यों किया ऐसा उन्होंने इन निर्मल निश्छल बृजवासियों के साथ ।
मैं वहीँ बैठा रहा …………सोचता रहा …….श्रीराधा चरणारविन्द का चिन्तन और दर्शन करता रहा ………..रात्रि हो गयी थी इसलिये नन्दभवन में लौट आया ।
ओह ! यहाँ मेरी मैया यशोदा ! वो तो माखन रोटी लेकर मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थीं ………….तू कल चला जायेगा ?
फिर आएगा ? तू मेरे लाला जैसा ही है ……..हो सके तो उसे भी ले आ ना यहाँ ! कहना उसकी बूढी मैया उसे बहुत याद करती है ………अब कब तक रहूँगी मैं पता नही ……..इसलिए उसे ले आ !
वो और भी बहुत कुछ बोलतीं रहीं……..फिर शून्य में तांकनें लगीं ।
मैं हाथ धोनें को उठा तो बाबा नन्द जी आगये थे ………तुम कल ही जाओगे ? मैनें उनके चरण वन्दन किये ………और आँसु पोंछते हुए अपनें कक्ष में चला गया था ……बाबा के पास बैठनें की आज हिम्मत नही थी मुझ में ………क्यों की बाबा के हृदय का भाव सिन्धु तो बहुत गहरा था …….उसका थाह मैं कहाँ पाता ।
मेरी वो अंतिम रात थी वृन्दावन की ।
शेष चरित्र कल –


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