श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! अब उद्धव की विदाई – “उद्धव प्रसंग 28” !!
भाग 1
तात ! चार माह रहा मैं बृज में …..हंसते हैं उद्धव …….मैं कहकर चला था मथुरा से कि …….बस घड़ी भर घड़ी में लौट आऊँगा ……..किन्तु मैने स्वप्न में भी नही सोचा था कि चार माह रुकूँगा ! हे विदुर जी ! मैं तो यहाँ बृज में जीवन पर्यन्त रहना चाहता हूँ अब मुक्ति न चाहकर बृज वास ही मेरी चाहना बन गयी है ।
मेरी कहाँ इच्छा है कि मैं जाऊँ मथुरा ……..नही , मैं तो इसलिये जा रहा हूँ कि मैने कहा था श्रीकृष्ण से कि सन्देश देकर मैं लौट आऊँगा ।
वो मेरी प्रतीक्षा करते होंगे …………….
तो उद्धव ! तुम जा रहे हो ? श्रीदामा मधुमंगल तोक मनसुख सब सजल नयन से मुझे पूछ रहे थे ।
हाँ , जाऊँगा ….जाना पड़ेगा ……..पर मैं शीघ्र ही आऊँगा ।
सखाओं नें मुझ से इतना इतना अवश्य पूछा ……..सूर्योदय के बाद ही जाओगे ना ! मैने सिर हाँ में हिलाया और चल दिया ।
ये श्रीकृष्ण सखा ………..कितनें निःश्वार्थ ! कितनें सहज सरल !
मुझे ये लोग नित्य गोवर्धन पर्वत ले जाते थे ……..वहाँ की शिलाओं में श्रीकृष्ण चरण चिन्हों को दिखाते थे…….और दिखाते दिखाते स्वयं खो जाते ……..इन सब सखाओं की समाधि ही लग जाती थी ।
हमारे पांव के निशान तो बनते नही ……..शिला में कैसे छप जाते थे कन्हैया के चरण चिन्ह ? वो बालक तोक सखा मासूमियत से पूछता था …….अब मैं क्या कहता उस सखा को ……….ये कहनें का कोई अर्थ नही था इनके आगे कि – तुम्हारा कन्हैया भगवान है ।
यहाँ , इस गोपी के घर पहली बार कन्हैया नें माखन की चोरी की थी ।
मनसुख मुझे वो घर दीखता था ।
यहाँ तो ! कितना हंसा था उस दिन मनसुख ………इस घर के गोपी की चोटी रात्रि में सोते समय उसके पति की दाढ़ी से कन्हैया नें बाँध दी थी ……फिर रोनें लगा था उन सब बातों को स्मरण करके मनसुख ।
पता है , मेरे लिये उसनें माखन की चोरी की ………फिर अपनें आँसुओं को पोंछ कर मनसुख बताता ।
हाँ , नही तो पूछ लो इन सब से …………….
मैं दुबला पतला था ना ………तो एक दिन मुझ से बोला कन्हैया ………तू दुबला क्यों है ? मैने कहा ……..माखन नही है मेरे पास …….न कोई गोपी देती है माखन …….तो कन्हैया नें मेरे लिये कहा …….मनसुख को मोटा बनाना है …..चलो माखन की चोरी करें …..और इसे खिलाएं ।
ये कहते हुये हिलकियों से रो पड़ा था मनसुख ………..उद्धव ! कहना कन्हैया से …..उसका मनसुख फिर से दुबला हो गया है …….बहुत दुबला हो गया है …….आजा ! माखन खिला मनसुख को आकर !
उद्धव ! कहना कन्हैया से ।
मैं कुछ बोल न सका…….क्या बोलता इन निःस्वार्थ निर्मल प्रेमियों के सामनें…….मैं निकल गया गोपियों को भी ये सूचना देनी थी कि। मैं कल मथुरा जा रहा हूँ ….सखाओं से विदा ले मैं यमुना के किनारे आया ।
उद्धव ! तुम इतनी जल्दी जाओगे ! अभी तो आये ही थे !
ललिता नें मुझ से कहा था ।
मैने साष्टांग श्रीजी के चरणों में प्रणाम किया ……….वो अल्हादिनी मेरे प्रणाम स्वीकारनें में बड़ा संकोच करती हैं ……………
कल कब जाओगे ? मुझ से इतना ही पूछा था ।
सूर्योदय के पश्चात ………….मैने कहा ।
तुमनें आकर अच्छा किया उद्धव ! इन्दु भी बोली थीं ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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