श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! रणछोड़राय – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 9” !!
भाग 2
आक्रमण !
सेना को मुहूर्त बता दिया था.......उसी मुहूर्त में मगध सेना नें मथुरा में चढ़ाई कर दी थी ।
ये अठारहवी बार आक्रमण था मगध सेना का मथुरा पर…….उन्हें सब पता था ………इसलिये कुछ ही दिनों में मगध से चलकर मथुरा को घेर लिया था सेना नें ।
मथुरा की सेना तैयार नही थी….क्यों की श्रीकृष्ण असावधानी बरत रहे थे इस बार…..जरासन्ध को वो इस बार गम्भीरता से ले ही नही रहे थे ।
कृष्ण ! ये जरासन्ध फिर आगया ? इस बार तो मैं इसका वध करूँगा ! बलराम क्रोध में भरे हुये हैं ।
शान्त दादा ! शान्त ! श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहे ।
हाथ पकड़ कर निकले बाहर दोनों भाई …………….
जरासन्ध रथ लेकर आगया सामनें ही ………..
श्रीकृष्ण सहज खड़े हैं अपनें बड़े भाई का हाथ पकड़े ………
इस बार हे कृष्ण ! मैं तुम्हे छोड़ूँगा नही ………..जरासन्ध चिल्लाया ।
सत्रह बार की पराजय इतनी जल्दी भूल गए मगध नरेश ! श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुये बोले थे ।
पैदल राम कृष्ण को देखकर जरासन्ध भी रथ से नीचे उतरा ……..पीछे उसकी सेना थी …………..
इस बार कोई छल काम नही देगा कृष्ण ! तुम्हे हम पराजित करके ही रहेंगे …….जरासन्ध बोलता जा रहा था ।
क्रोध में भरकर बलराम जी आगे बढे ………मैं इसका अभी वध करता हूँ ……….दादा ! हाथ पकड़ पीछे खींचा श्रीकृष्ण नें ।
कान में धीरे से बोले ……..मैं जो कह रहा हूँ दादा ! वही करना है !
क्या कह रहे हो तुम ? बलराम जी नें पूछा ।
भागो ! श्रीकृष्ण धीरे से बोले ।
तुम क्या कह रहे हो ? भागें ? अरे ! लोग क्या कहेगें ?
दादा ! लोगों का क्या है ….कहते रहते हैं कोई फ़र्क नही पड़ता ।
रणछोड़ नाम रखा जायेगा इतिहास में तुम्हारा !
दादा ! माखन चोर कहते हैं ना ! चीर चोर भी और चित चोर भी कहते ही हैं …….फिर क्या फ़र्क पड़ता है कि रणछोड़ और सही ।
तुम क्या छल करना चाह रहे हो मुझ से ……..जरासन्ध आगे बढ़ा ।
हाथ कसकर पकड़ा अपनें बड़े भाई का श्रीकृष्ण नें…और बोले – दादा ! भागो ! और दोनों भाई दौड़ पड़े ।
जरासन्ध नें अपनें सैनिकों को श्रीकृष्ण के पीछे ही भागनें का आदेश दिया ….और स्वयं पैदल ही भागा …..क्यों की श्रीकृष्ण भाग ही ऐसे रहे थे अब पकड़ में आये कि तब ।
वन, नदी, पर्वत इन सबको पार करते हुये ये नीलमणी और गौर श्रीबलभद्र दौड़ रहे हैं……. पकड़ो ! इसे पकड़ो ! ये बचकर जानें न पाये .पकड़ो इसे, जरासन्ध अतिउत्साह से दौड़ रहा है …..पर श्रीकृष्ण और बलराम को ये पकड़ नही पा रहा था……….
दौड़ते हुए थक गया था जरासन्ध कितना दौड़ता !
समुद्र के पास में पहुँच गए थे ये लोग दौड़ते हुये …………….
एक निर्जन वन में प्रवेश कर लिया था श्रीकृष्ण और बलराम नें …………उसी वन से होते हुये एक पर्वत पर चढ़ रहे थे कि …..जरासन्ध चिल्लाया ……..वन में आग लगा दो ………..बस क्या था सैनिकों नें अग्नि बाण छोड़ दिए …..देखते ही देखते वन अग्नि से धधक उठा ……..राम कृष्ण पर्वत पर चढ़े ……..पर पर्वत भी अग्नि की चपेट में आगया था ।
पर्वत के नीचे ………..विशाल समुद्र लहरा रहा था ।
दादा ! कूदो ……….बलभद्र का हाथ पकड़ कर कूदे श्रीकृष्ण ।
कूदते हुये जरासन्ध नें देख लिया था …..अगाध जल राशि में कूदें हैं अब तो बच नही सकते ………जरासन्ध कुछ देर तक सागर में दृष्टि गढ़ाये रखा पर ये दोनों भाई दिखाई नही दिये ………चलो ! अच्छा हुआ डूब गए दोनों ……ये कहकर जरासन्ध लौट आया था ।
समुद्र के एक द्वीप पर तैरते हुये पहुँचे तो ……..
ओह ! ये क्या है ? बलराम जी नें चौंक कर पूछा तो श्रीकृष्ण बोले …..द्वारिका पुरी ……….अच्छा तो विश्वकर्मा नें तैयार कर दिया ।
दादा ! तैयार ही नही किया ……..समस्त मथुरा वासी भी अब आगये हैं द्वारिका में ……मथुरा को सब छोड़ चुके हैं ।
बलराम जी और भी प्रश्न करनें वाले थे किन्तु सारे प्रश्न निर्रथक ही होते क्यों की ये लीला धारी हैं और मायापति भी तो इन्हीं को कहा जाता है ।
चलो दादा ! अपनी द्वारिका में…….सागर के जल में भींगें हुए श्रीकृष्ण और बलराम अपनी नव निर्मित द्वारिका पुरी में प्रवेश कर रहे थे ।
शेष चरित्र कल –


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