श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! द्वारिकाधीश – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 10” !!
भाग 1
तात ! द्वारिकाधीश बन गए हैं अब श्रीकृष्ण ……..सब कुछ माया के द्वारा हुआ था संकल्प मात्र किया था श्रीकृष्ण नें तो ।
रातों रात मथुरावासियों को गरूण जी ले आये थे द्वारिका में ।
उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
द्वारिका , समुद्र से द्वादश योजन भूखण्ड माँग कर उसमें विश्वकर्मा नें एक पुरी बना दी थी …..ये श्रीकृष्ण का धाम बना तो इसका नाम सप्तपुरियों में भी आया और चार धामों में भी ……आता क्यों नही भगवान श्रीकृष्ण जिसे अपना बनायें उसकी महिमा तो बढ़नी ही थी ………….तात ! उग्रसेन ही राजा थे द्वारिका के भी ……….पर उनका राजा होना कोई महत्व नही रखता था ……….इस बात को वो भी जानते थे ….इसलिये द्वारिकाधीश तो श्रीकृष्ण ही कहलाये ।
द्वारिका का हर भवन भिन्न भिन्न रंगों का था ………राशि के आधार पर रंगों का चयन था ……….ये अद्भुत वास्तु कौशल दिखाया द्वारिका में देवशिल्पी द्वारा ।
द्वारिका के यातायात के लिये समुद्र में एक सेतु की संरचना भी की गयी थी ……..किन्तु इस सेतु की विशेषता ये थी कि जब चाहो इसे उठाया जा सकता था …………….नगर के आठ महाद्वार थे ………..निकट पर्वत उपवन वन वाटिका सब अत्यन्त सुन्दर बने थे …….।
द्वारिकाधीश का महल तो इन्द्र के महल को भी लज्जित करनें वाला था …….दिव्य और अद्भुत ! सुवर्ण की तो पूरी द्वारिका ही थी …..किन्तु द्वारिकाधीश का महल नाना रत्नों, मणि माणिक्य मोती इनसे भित्ति की रचना की गयी थी …….अन्तःपुर द्वारिकाधीश का समुद्र के किनारे था ……….सुगन्ध प्रायोजित नही करना पड़ता ………अन्तःपुर में वायु देव ही सुगन्ध पहुँचा देते थे …….नाना प्रकार के पुष्प खिले थे …..सदैव उनमें भौरों का झुण्ड ही मंडराता रहता था ।
यही थी द्वारिका और इसमें आकर विराजे थे द्वारिकाधीश ।
हम कहाँ हैं ? हम कहाँ हैं ? रात्रि में ही मथुरा से गरूण जी उठा लाये थे समस्त मथुरावासियों को ……सुबह जब उठे तो उन्हें कुछ घबराहट हुयी…..ये घबराहट प्रजा में ही नही ….महाराज उग्रसेन को भी हुई थी ।
“हम समुद्र के किनारे हैं”……मथुरा वासी एक दूसरे को कहनें लगे थे ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –


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