श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! रुक्मणी हरण – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 14” !!
भाग 2
सेनापति को आदेश दिया रुक्मी नें ……विदर्भ की पूरी सेना रुक्मणी की सुरक्षा में लगा दी जाए……..चार घेरा बनाओ ……..मध्य में रुक्मणी चले पूजन के लिये …….उसके चारों ओर उसकी सखियाँ हों…….उन सखियों को घेरकर हमारे सैनिक चलें ………निःशस्त्र ………फिर शस्त्र धारी सैनिकों का घेरा हो जो उन सैनिकों को घेर कर चलते रहे…….इन घेरे को कोई तोड़ न सके ।
ये आदेश सेनापति को दे दिया था रुक्मी नें ।
अद्भुत बाजे बज उठे थे ……….शहनाई की मंगल गूँज से विदर्भ आनन्दित हो उठा था ……….नर नारी पुष्प बरसा रहे थे ……….
राजकुमारी रुक्मणी की ……..जय जय जय !
भीष्मक नन्दिनी की …..जय जय जय !
विदर्भ राज कन्या की ……जय जय जय !
प्रजा में अतिउत्साह था उनकी राजकुमारी का विवाह होनें वाला है ….और वो आज भगवती पूजन के लिये जा रही हैं ।
सैनिकों के अभूतपूर्व सुरक्षा के मध्य रुक्मणी चल रही हैं …….रुक्मणी के चारों ओर उनकी सखियाँ हैं ………सखियों को घेरकर चल रहे हैं सैनिक .और उनको भी घेर कर चल रहे हैं अस्त्र शस्त्र से लदे हुये अति वीर सैनिक ………।
मध्य में अति सुन्दर गौर वर्णी मुखमण्डल ऐसा कि कोई इक टक देख भी नही सकता इतना तेज है ………….गम्भीरता से चल रही हैं ….उनके सुन्दर कर में पूजन की थाली है ………..भगवती का पूजन करना है …..किन्तु अब तो रुक्मणी ये बात भी भूल गयीं हैं …….उनके मन में बस भुवन सुन्दर श्रीकृष्ण ही छा गए हैं ।
वो कब आएंगे ! नही आये तो ! नही नही विदर्भ में आ चुके हैं तो अवश्य आएंगे ……..इन्हीं सब बातों को मन में लेकर रुक्मणी चल रही हैं ……………मन्दिर आगया है ……सैनिक बाहर खड़े हो गए हैं ……अपनें अपनें शस्त्रों को सम्भाले हुये ……सावधान की मुद्रा में ।
भीतर सखियाँ गयीं हैं रुक्मणी के साथ ……किन्तु सखियाँ भी कुछ आगे तक जाकर रुक गयीं …..अब केवल रुक्मणी चली जा रही हैं ।
सामनें विग्रह है भगवती उमा का ……….पूजन की थाल रख दी है सामनें चौकी पर ……..प्रथम – हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं …..अपलक दर्शन कर रही हैं भगवती के ………पर उन्हें भगवती कहाँ दिखाई देती हैं ……..उन्हें तो भगवती के विग्रह में भी श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे हैं …………….उन्होंने तुरन्त अपनें नेत्रों को बन्द किये ………पर हृदय में भी तो वही विराजे हैं ……………रुक्मणी एक ही बात कहती हैं ……हे भगवती ! मुझे श्रीकृष्ण ही पति रूप में मिलें ।
विलम्ब करना उचित नही है………ऐसा मन में विचार कर श्रीकृष्ण नें अपनी रथ चला दी ………अश्व दौड़ पड़े थे और क्षणों में ही मन्दिर में पहुँचा दिया था …….रथ को रोका श्रीकृष्ण नें ………मन्दिर से कुछ दूरी पर …………
वहाँ से उतरे रथ से ……………और अकेले धीरे धीरे चल पड़े थे ।
सैनिकों नें देखा पहले तो उन्हें लगा कि विदर्भ के राजपरिवार का ही कोई सदस्य होगा …………किन्तु एक नें कहा ……नही ये तो विदर्भ के नही हैं ।
ए रुको ! सैनिक चिल्लाये ।
श्रीकृष्ण रुके ……..मुड़े ………और अद्भुत, सैनिकों की ओर देखकर मुस्कुरा दिए ………..श्रीकृष्ण मुस्कुराएं तो ये क्या , अच्छे अच्छे अपना सर्वस्व खो बैठते हैं ……. ।
बस सब मुग्ध हो गए थे …….श्रीकृष्ण की मोहिनी मुस्कान पर ये सब कुछ भूल गए ………..आहा ! कितना सुन्दर मुस्कुराता है ………
तात ! उद्धव हंसे विदुर जी से बोले ……श्रीकृष्ण बढ़ते जा रहे हैं मन्दिर की ओर ……पर किसी सैनिक में हिम्मत नही है जो इन्हें पकड़ ले …..क्यों की मुस्कान पर ये सब मर मिटे हैं ।
गए मन्दिर में ………..पीताम्बर धारी…श्याम वर्ण वाले इन द्वारिकाधीश नें नेत्र बन्दकर ध्यान कर रहीं रुक्मणी को अपनें बाहों में उठा लिया ………रुक्मणी को रोमांच हुआ…….उन्होंने जैसे ही अपनें नेत्र खोले ……भुवन सुन्दर की बाहों में ………..उनका वो दिव्य अद्भुत रूप सौन्दर्य ………..वो देखती रहीं , श्रीकृष्ण भी उन्हें अपलक देखते रहे ….और आगे बढ़ते भी रहे ………..
क्या चाल है आह ! सैनिक लोग चाल देख रहे हैं ………
रथ में ले जाकर रुक्मणी को बिठा दिया ………..और स्वयं फुर्ती से रथ की लगाम सम्भाल बैठे …………….और ………..
रुक्मणी हरण ………ले गया ….अरे ! ले गया !
सैनिक भागे रथ के पीछे………रुक्मणी नें श्रीकृष्ण से कहा ….नाथ !
रथ न रोकिये……आप बस चलाते रहिये रथ इनको तो मैं देख लुंगी ।
इतना कहकर अपना दिव्य रूप रुक्मणी नें सैनिकों को जैसे ही दिखाया……तात ! महालक्ष्मी हैं ये….इनके मुख से जो तेज प्रकट हुआ …….उसे देखनें की शक्ति कहाँ थीं इन बेचारे सैनिकों में …….सब मूर्छित हो गए…….सब पत्तों की तरह बिखर गए मानों वृक्ष से टूट गए हों ।
शेष चरित्र कल –


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