!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेमनगर 55 -“जहाँ सकामता ही निष्कामता है” )
गतांक से आगे –
यत्र सकामत्वमेवाकामत्वम् ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) सकामता ही निष्कामता है ।
*हे रसिकों ! प्रेमनगर में सकाम और निष्काम का झंझट नही है ….”अपने प्रिय के लिए चाहना” – भले ही सकामता कहलाये किन्तु ये निष्कामता से कम तो नही है ।
ज्ञानी पुरुष भले ही “सकामता” की निन्दा करें ….”निष्कामता” का माहात्म्य गायें ….किन्तु प्रेम नगर के वासी ये सब भूल जाते हैं कि सकाम क्या है और निष्काम क्या है ? अपने प्रीतम के लिए ही जब प्रेमी ने जीवन धारण कर रखा है …तो बात सकाम और निष्काम से ऊँची चली गयी ना !
भागवत के नन्दमहोत्सव की एक झाँकी है …..श्रीशुकदेव जी ने ये झाँकी राजा परीक्षित को दिखाई है …आप भी इस झाँकी का दर्शन करें ।
महाराज नन्द जी के पुत्र हुआ है …ये सुनते ही नन्द महाराज के आनन्द का कोई ठिकाना नही रहा ….वो परम आनंद में डूब गये हैं । क़ीमती वस्त्र लुटा रहे हैं ….लोग लूट रहे हैं ….अपने पुत्र के जन्म की खुशी में नन्द महाराज सुवर्ण लुटा रहे हैं ….हीरे मोती लुटा रहे हैं …..विप्रों को दान दे रहे हैं …..चारों ओर दही और हल्दी की कीच मची हुई है । बड़े बड़े सात तिल के पर्वत बनाये हैं, उन तिल के पर्वतों में रत्न ,सुवर्ण , रजत ये सब भर दिया है …और विप्रों को दान देने लगे हैं ….तभी नन्दमहाराज ने दान के संकल्प को रुकवा दिया …
ऋषि शांडिल्य ने कहा ….हे महामना नन्द ! क्या हुआ ? नन्द महाराज हाथ जोड़कर बोले …मेरी इच्छा थी कि मेरे घर पुत्र होगा तो मैं दो लाख गौओं का दान करूँगा …हे ऋषिवर ! आपकी आज्ञा हो तो इसी समय दो लाख गौओं का भी दान कर दिया जाये ? बड़ी विनम्रता से नन्द महाराज ने कहा था ।
महर्षि शांडिल्य ने आज्ञा दी ….तुरन्त गोपों ने दो लाख गौओं को एक विशाल मैदान में खड़ा कर दिया ….हजारों वेदज्ञ ब्राह्मण वेद मन्त्रोच्चार कर रहे हैं …दिव्य वातावरण हो गया है …सुनार आदि गौ को सजाने में लगे हैं ….गौ के सींग सुवर्ण से मढ़े जा रहे हैं …रजत से गौ के खुर ।
एक ग्वाला दौड़कर आता है …और नन्द महाराज के कान में कहता है ….बाबा ! अद्भुत लाला है तुम्हारा तो , ऐसा लगता है मनौं नीलमणि हो …नही नही नीलमणि तो कठोर है …किन्तु आपका लाला तो कोमल , अत्यन्त कोमल है । नन्दमहाराज के मन में उनका लाला छा गया है ….नीलवरण है ….कोमल है ….अत्यन्त सुन्दर है …..आहा ! महाराज नन्द के नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहने लगे हैं …तभी सात तिल के पहाड़ तैयार हो गए …सज धज के गौएँ तैयार हो गयीं …विप्र जन संकल्प बुलवाने लगे । नन्दमहाराज को विप्रों द्वारा पूछा गया ….कि आपकी कोई कामना ? ये दान किसलिए है ? महर्षि शांडिल्य ने अन्य विप्रों को टोका और कहा ….आपको पता नही है क्या ? हमारे नन्दमहाराज निष्काम हैं …..इन्होंने कभी सकामना से कुछ भी नही किया ….हे विप्रों ! पूर्व में जितने यज्ञ अनुष्ठान आदि भी हुए हैं वो सब के सब निष्काम ही हुए हैं …महर्षि कहते जा रहे हैं …..मैं पूछता था हे नन्द महाराज ! आपको तो पुत्र चाहिए ना ? तब ये कहते थे …नही , मुझे कुछ नही चाहिए …मेरे नारायण भगवान जो मुझे देंगे मैं वही स्वीकार करूँगा ….इसलिये निष्कामता की ये महान मूर्ति हैं …इन्हें कोई कामना नही है । महर्षि की ये बातें कहाँ सुनीं नन्दमहाराज ने ….वो तो तुरन्त बोल दिये ।
“मेरे लाला की उन्नति हो”…..बन्द नेत्र से ही नन्दमहाराज ने विप्रों को कह दिया था ।
महर्षि शांडिल्य चकित थे ….कि आज तक ये निष्काम रहे किन्तु आज क्या हो गया इन्हें ?
नन्द महाराज ने महर्षि के चरणों में प्रणाम किया ….और हाथ जोड़कर कहा ….पता नही क्यों आज सकाम होने का जी कर रहा है ….लग रहा है ….मेरे यहाँ जो नीलमणि आया है …उसका उत्थान हो …वो आगे बढ़े ….वो आगे आगे बढ़ता जाये और बहुत बड़ा बन जाये । नन्दमहाराज की बातें सुनकर महर्षि मुस्कुराते हुए बोले …हे नन्द राय ! ये आपके वात्सल्य प्रेम की पराकाष्ठा है ….ये प्रेम होना ही बड़ी बात है ….इसमें सकाम और निष्काम दोनों ही व्यर्थ से लगते हैं । महर्षि समझ गये थे कि “वात्सल्य प्रेम” ने अपनी सीमा आज तोड़ दी है ।
फिर दान हुआ ….आज दान में नन्दमहाराज ने अपने पुत्र के उत्थान का संकल्प पढ़ा था ।
एक झाँकी का और दर्शन कीजिए –
दो दिन और रुकना है कुरुक्षेत्र में ….किन्तु श्रीराधारानी आज बेचैन हो उठी हैं ।
ललिता आदि के समझ में नही आरहा कि क्यों ? क्यों इतनी बेचैनी ? क्यों उकता गयीं कुरुक्षेत्र से श्रीराधारानी ! और आज तो दोनों का मिलन भी हुआ है ….श्याम सुन्दर और श्रीराधारानी को ललिता सखी के प्रयास से मिलाया भी गया है ….ललिता ने स्वयं एकान्त प्रदान किया है इन सनातन प्रेमियों को …..इनके एकान्त में कोई विक्षेप न हो इसका प्रयास भी किया है ….किन्तु क्या हुआ ऐसा कि मिलन के पश्चात् ही ………..
हे राधे ! क्या हुआ ? आप इतनी उकता क्यों रही हैं ?
ललिता ने सविनय पूर्वक श्रीराधारानी से पूछा था ।
श्रीराधा मौन रहीं ….ललिता ने आगे प्रश्न किया ….सौ वर्ष हो गये ….ओह ! सौ वर्ष का वियोग कम नही होता ….सौ वर्ष तक आपने कुछ कामना नही रखी ….सौ वर्ष के पूर्व भी आप निष्काम प्रेम की मूरत समझी जाती रहीं हैं…..निष्काम प्रेम पर विश्व आपका उदाहरण देता है …आपके मन में कोई कामना नही है ….फिर आज क्या हुआ कि निष्काम श्रीराधा कामना से भर गयीं ?
ललिता की बातें सुनकर श्रीराधारानी फिर भी कुछ नही बोलीं …तब ललिता सखी ने पूछा …..क्या मिलन ठीक नही था ? क्या श्रीकृष्ण वही नही थे ? श्रीराधा ने अपने कमल नयन उठाये और अपनी प्यारी सखी ललिता को देखा ….कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात् वो बोलीं- सब कुछ वही था …ललिते ! सब कुछ वैसा ही था …प्यारे भी वही थे …मैं राधा भी वही थी …बातें भी वही थीं …बस नही था तो …वो हमारा श्रीवृन्दावन नही था , यमुना नही थी , वंशीवट नही था …वहाँ की लताएँ नही थीं …वहाँ के पक्षी नही थे ….श्रीराधारानी बोलीं …मिलन हुआ प्यारे से …किन्तु जो रस , जो आनन्द श्रीवृन्दावन में बरसता था वो यहाँ कहाँ । ललिता चकित थीं ….निष्काम श्रीराधा ने ये सब कहा था ….ये सकाम प्रेम वाले कहें तो समझ में भी आता है ।
श्रीराधा ललिता के मनोभाव को समझ कर बोलीं –
रास हर स्थान पर सम्भव नही है ….रास कुरुक्षेत्र में कहाँ होगा ? इसके लिए तो वही भूमि चाहिये …रस की भूमि , रास की भूमि …श्रीवृन्दावन । हाँ , मैं मानती हूँ ये सकाम है …किन्तु यही सकाम निष्काम से भी ऊँचा है । क्यों कि मैं देख रही थी प्यारे श्याम सुन्दर श्रीवृन्दावन में जितने निश्चिंत रास करते थे उतने यहाँ नही थे ……मैं अपने लिए कहाँ …अपने प्यारे के कष्ट को देखकर कह रही हूँ ….मुझे श्रीवृन्दावन ले चलो …मुझे अब श्रीवन ही चाहिए ।
कहते हैं रसिकों ! उसी समय श्रीराधारानी को लेकर ललिता श्रीवृन्दावन चली आयीं थीं ।
ये सकामता है …कुछ चाहना …कामनाओं का मन में जागृत होना , ….किन्तु उच्च प्रेम में देखा गया है …कि सकाम और निष्काम का झंझट ही वहाँ खतम हो जाता है । जब हृदय में प्रीतम ही छाए हैं ….उन्हीं के लिए निष्काम थे और सकाम भी हैं तो उन्हीं के लिए ।
इसलिये ये सूत्र बड़ा ही अद्भुत है कि “प्रेम नगर में सकाम ही निष्काम है”।
शेष अब कल –


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