श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! बलराम की बृज यात्रा – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 38” !!
भाग 1
कन्हैया !
ये शब्द आज द्वारिकाधीश के कानों में पड़े ……वो स्तब्ध – चकित हो अपनें बड़े भाई बलराम को देखनें लगे थे……इस नाम से सम्बोधन भी तो बलराम नें ही किया था !
वषों हो गए इस नाम को किसी नें नही लिया ….न ये नाम लेकर किसी नें पुकारा ही…कौन जानें इस नाम की मधुरिमा को…..माधुर्य को …”कन्हैया” नाम में जो रस है….वो “द्वारिकाधीश” में दूर दूर तक नही है ।
कुछ देर के लिये द्वारिकाधीश बृज में ही पहुँच गए थे…..हाँ, दाऊ !
उन्होंने भी सहज ही ये सम्बोधन कर डाला था ।
कन्हैया ! मैं बृज वृन्दावन जा रहा हूँ ………बलराम के इतना कहते ही सजल नेत्र हो गए थे श्रीकृष्ण के …….बृज ! वृन्दावन ! आहा ! कुछ देर में लिये तो मानों समाधि ही लग गयी थी श्रीकृष्ण की ।
जाओ ! जाओ दाऊ भैया ! जाओ …..बृज तो हमारा जीवन है …….बृज ही तो हमारा अपना घर है ………ये द्वारिका तो बसाई गयी है ….और जिसे बसाया जाता है …..वो उजड़ भी जाती है …..किन्तु ! बृज ! वो तो ………..पीताम्बरी से अपनें आँसुओं को पोंछा था श्रीकृष्ण नें ।
मेरी मैया ! लम्बी साँस ली श्रीकृष्ण नें ……….मेरे बाबा ! ओह ! मेरे ग्वाल सखा मेरी गोपियाँ ! नेत्र सावन भादौं की तरह बरस रहे थे श्रीकृष्ण के अब ………और दाऊ ! वो मेरी प्राण जिसे मैं सबसे छुपाकर रखता हूँ ……श्रीराधा ! एक बार बोले ……श्रीकृष्ण के नेत्र बन्द हो गए थे …….श्रीराधा ! दूसरी बार में वो लड़खड़ाये ……श्रीराधा ! और तीसरी बार में श्रीकृष्ण अवनी में ही गिर पड़े ।
बलराम आगे बढ़कर सम्भाल रहे हैं श्रीकृष्ण को …………
रुक्मणी उसी समय वहाँ आगयीं थीं ………..क्या हुआ ? वो घबड़ाई हुयी सी पूछ रही हैं …………बलराम कुछ बोलते उससे पहले ही श्रीकृष्ण के मुख से ये शब्द निकला ………श्रीराधा !
श्रीराधा ? रुक्मणी चौंक गयीं ……..ये राधा कौन है ?
रुक्मणी का पूछना क्या हुआ श्रीकृष्ण के तो रोम रोम से अब यही नाम प्रकट हो रहा था उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे लम्बी साँस चल रही थी ……और श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा !
सत्यभामा दौड़ पडीं ………..जाम्बवती आदि सब रानियाँ आगयीं महल में ………सब बलराम से पूछ रहे हैं ………ये क्या हुआ ? और ये श्रीराधा कौन है ?
बलराम ! तुम वृन्दावन जा रहे हो ? गम्भीर आवाज उस महल में गूँजी ……सबनें जब देखा तो सामने रोहिणी माता चली आरही थीं ।
ये किसी के महल में नही जातीं ………..न किसी से मिलना जुलना इन्हे प्रिय है……ये एकाकी हैं ………..अपनें में ही रहती हैं ………हंसते हुये शायद इन्हें किसी नें देखा होगा …….।
हाँ माँ ! सिर झुकाकर अपनी माता से बलराम जी नें कहा ।
रोहिणी नें देखा …….सब रानियाँ घबड़ाई हुयी हैं …….श्रीकृष्ण धरती में पड़े हुये हैं ………..उन्हें देह सुध नही है …रुक्मणी बिलख रही हैं ……रोहिणी माता के नेत्रों से अश्रु बह चले थे …….जब उन्होंने देखा …..श्रीराधा ! श्रीराधा ! रोम रोम से प्रकट हो रहा था श्रीकृष्ण के ।
कौन है राधा ? रोहिणी माता से रुक्मणी नें पूछा ।
पहले अपनें पति को तो सम्भालो रुक्मणी ! रोहिणी माता नें दो टूक कहा ….तब कुछ लज्जित हो श्रीकृष्ण को सम्भालनें लगी थीं ।
दाऊ ! तुम बृज जा रहे हो ! जाओ ! सबको मेरा यथायोग्य प्रणाम बोलना ……और हाँ …जीजी के चरणों को छूकर कहना रोहिणी आपको बहुत याद करती है………..बृजराज बाबा को ढोग कहना …..गोप बालकों को मेरा प्यार देना ……गोपियों को मेरा दुलार देना …..और हाँ , राधा को …….रो पडीं रोहिणी माता …….उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था …..वो आगे कुछ बोल नही पाईँ ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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