श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! दाऊ जब बृज में क्रोधित हुये – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 40” !!
भाग 2
चन्द्रावली के नेत्र बहनें लगे थे ……….वो बरसाने में ही रहती हैं ……..हाँ, माता कीर्ति और बृषभान जी नें आपको बरसानें में बुलाया है ।
दाऊ सबकी बातें सुनते रहे ………..चन्द्रावली और ज्योत्स्ना नें एक ही बात कही …….दाऊ ! हमें श्रीकृष्ण की बातें बताओ ……….वो द्वारिका में क्या करते हैं ……..क्या हमें याद करते हैं ? अब कहाँ याद करते होंगे ?
दाऊ उन सबकी बातें सुनते हैं …………..फिर श्रीकृष्ण के बारे में बतानें लगते हैं …….कैसे रुक्मणी का हरण किया …..कैसे सोलह हजार एक सौ आठ विवाह किये ………..सब बताया ।
ज्योत्स्ना गोपी दाऊ को इक टक देखती रहती है …………वो अपनें प्रिय दाऊ के लिये माला भी बनाकर लाई है ………..चन्द्रावली उसकी भाव भंगिमा देखकर उठ जातीं हैं और दाऊ को प्रणाम करके चली जातीं हैं……..तात ! यानि श्रीकृष्ण की सब गोपियां चली गयीं हैं ।
अब तो यहाँ ज्योत्स्ना और उसकी सखियाँ हैं………..जो दाऊ को पूर्व से ही प्रियतम मान कर बैठीं थीं ।
पुष्पों की माला ही नही पहनाई उस गोपी नें अपनें बाहों का हार भी संकर्षण के गले में डाल दिया था ।
प्रेम चल पड़ा ………….यमुना दूर हैं …………गोपियों को प्यास लगी है ……स्वेद बिन्दु मस्तक से गिरनें लगे थे …………..
संकर्षण कहाँ मर्यादा को मानने वाले हैं ………..इन्हें तो क्षण में ही क्रोध में आजाता है …………
..हे यमुनें ! इधर आओ !
बस आवाज लगाई थी और यमुना को अपनी ओर बुलाया था ।
पर यमुना जल के रूप में हैं उनका यहाँ अधिदैव रूप प्रकट नही है ……..और जल अकारण कैसे आजाए ……..वर्षा हो बाढ़ हो ……..कुछ तो कारण बनें ………..
पर ये भी संकर्षण हैं ………..शेषनाग का क्रोध तो हर समय बना ही रहता है …………यमुना नही आईँ ………….उनकी गोपियाँ स्वेद से नहा गयी हैं और तृषा भी उन्हें व्याप रही है …………
बलभद्र को क्रोध आगया ……………और इनका क्रोध !
हल उठाया हाथों में और यमुना की धारा को खींच दिया ………
तू क्या समझती है कालिन्दी ! तुझे नष्ट कर दूँगा…..तेरी छोटी छोटी धाराएं बनाकर रेगिस्तान में पहुँचा दूँगा और तू वहाँ जाकर नष्ट हो जायेगी ।
खींच दिया यमुना को बलभद्र नें ………पर ये तो यमुना हैं ……श्रीकृष्ण प्रिया हैं …………तुरन्त अधिदैव रूप से प्रकट हो गयीं …….और हाथ जोड़कर बोलीं ……..आप मेरे पूज्य हैं …….आपके अनुज की मैं प्रिया हूँ उसी सम्बन्ध से मुझे क्षमा करें आप …..।
पर दादा ! मेरी भी तो मर्यादा है ……..आप मेरे स्वामी के बड़े भाई हैं ऐसे मैं आपके पास कैसे आसकती थी ……..और जल के रूप आनें में कुछ तो कारण हो ………हे दाऊ दयाल ! आपनें कारण हल को बनाया और मेरी धारा को अपनी ओर कर लिया है ……मैं आगयी हूँ जल के रूप में ।
इतना कहकर हाथ जोड़कर यमुना अधिदैव रूप से अंतर्ध्यान हो गयीं जल की एक धारा दाऊ दादा के पास आगयी थी ।
तात ! दाऊ का क्रोध जब शान्त हुआ तब उन्हें अपनी गलती का भान हुआ था…….यमुना पर क्रोध करके दाऊ को लगा मैनें अनुचित किया ।
उद्धव बोले – हे विदुर जी ! इसके बाद दाऊ जी यमुना जल पान करते हैं अपनी गोपियों को भी जल पिलाते हैं और जल क्रीड़ा करते हैं ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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