1-“भगवान के नाम स्मरण से अंतःकरण शुद्ध होता है।”
आरंभ में शुद्धि प्रतीत न होती हो तब भीनामस्मरण जारी रखना चाहिए।बाधक संस्कारों की निवृत्ति के साथ साथ शुद्धि का अनुभव होने लगता है।ऐसा भी किया जा सकता है कि नाम जपते जायं साथ साथ यह अनुभव करते जायं कि अंत:करण शुद्ध हो रहा है।इस पर न जायं कि केवल कल्पना करने से क्या होता है?कल्पना में बडी शक्ति होती है वह जीवन को बना भी सकती है और नष्ट भी कर सकती है। 2-“भगवान के स्वरूप दर्शन से इंद्रियां शुद्ध , शुद्ध हुई इंद्रियां भगवद् स्वरूप एवम भगवद् लीलाओं में आसक्त हो जाती हैं ।” इंद्रियों में नेत्र इंद्रिय का प्रभाव बहुत है।आंखें जो देखती हैं वैसा हीअनुभव होता है।इसमें रागद्वेष की प्रधानता है लेकिन नेत्र जब भगवद् स्वरुप को निहारते हैं तब रागद्वेष नहीं होता।
अपने सेव्यस्वरुप के पास बैठकर उन्हें निहारें और देखें क्या अनुभव होता है।पहले तो चित्त पर पडे लौकिक आवरण अपना असर दिखायेंगे किंतु धीमे धीमे वे भगवद् स्वरुप के प्रभाव से छंटेंगे और कुछ विशेषता मालूम होगी।भगवान सचमुच विराज रहे होते हैं।यह पुष्टिमार्ग की सबसे बडी विशेषता है,सबसे बडा आधार है जिसके बल पर वैष्णव सभी बाधाओं को पार कर लेता है।यह कोई मामूली बात नहीं है।
3-“ज्ञान देहाध्यास का नाश कर देह को शुद्ध करता हैं और स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कराता हैं।”
पुष्टिमार्गमें यह ज्ञान कौनसा है?यह है शरीर प्रभु का है,मेरा नहीं।मेरा होता तो मैं बचा लेता।मगर न इसका जन्म मेरे हाथ में है,न इसकी मृत्यु।इसे पाना,छोडना हमारे हाथ में नहीं।हमारे हाथ में तो यही है हम इसे सेवा में लगा दें।यह निमित्त बनेगा बाकी सेवा तो हमारा भावस्वरुप ही करेगा।
4-“भक्ति देह प्राण और इंद्रियों से प्रेम एवम आसक्ति को हटाकर वह प्रेम आसक्ति भगवान में कराती है।”
भक्ति का आरंभ शरणागति से है।अच्छा होगा पहले शरणभाव की शरण में रहें।सीधे भगवान तक पहुंचना मुश्किल है।बीच में शरणभाव खडा है उसकी मदद ली जा सकती है।यह हमारा बडा मददगार है।हमें चाहिए कि हम गहराई से इस शरणभाव की शरण को अनुभव करने की पूरी कोशिश करें।फिक्र करने की जरूरत नहीं क्योंकि शरणागति के चाहे जितने भी रुप हों वे सब अनिवार्य रुप से श्रीकृष्ण से ही जुडे हुए हैं।
‘तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्ण:शरणं मम।वदद्भिरेव सततं……..
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