श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “ द्यूत क्रीड़ा – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 55 !!
भाग 1
आइए महाराज युधिष्ठिर ! अब थोडी क्रीड़ा भी हो जाए ! नही नही, अगर महाराज आज्ञा दें तो ।
महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित हस्तिनापुर में पधारे थे , पाँचों पाण्डवों ने महाराज धृतराष्ट्र के चरणों में पूर्ण श्रद्धा के साथ प्रणाम किया और इन्द्रप्रस्थ की और से राजसूय यज्ञ का भेंट भी निवेदन किया था , भीष्म पितामह, गुरु द्रोण , कृपाचार्य आदि सब उपस्थित थे , अजात शत्रु युधिष्ठिर ने सबको प्रणाम किया और सबने प्रसन्न मन से आशीर्वाद भी दिया ।
क्या पुत्र वधू द्रौपदी नही आयी ? महारानी गान्धारी ने द्रौपदी की वाणी नही सुनी तो पूछ लिया । आयी हैं माता ! पर वो …….युधिष्ठिर चुप हो गए दासी ने आगे बढ़कर कहा , महारानी मासिक धर्म में हैं इसलिए वो यहाँ नही आयीं ।
मुझे मेरे पुत्र दुर्योधन ने बताया था की राजसूय यज्ञ अद्भुत किया तुम लोगों ने, चलो मेरे भाई पाण्डु स्वर्ग में प्रसन्न होंगे तुम्हारे इस यज्ञ से , मुझे बहुत प्रसन्नता हुई , महाराज धृतराष्ट्र बोलते जा रहे थे किन्तु आगे बढ़कर युधिष्ठिर ने उनके चरण छुए , अब आज्ञा दीजिए महाराज अब मैं संध्या को महल में उपस्थित होऊँगा । इतना कहकर युधिष्ठिर अपने भाइयों के सहित जाने लगे थे ।
मेरे भ्राता युधिष्ठिर महाराज ! दुर्योधन ने आगे आकर युधिष्ठिर को प्रणाम किया था ।
प्रसन्न रहो दुर्योधन ! और सब कुशल तो हैं ? ओह ! मामा जी ! आपको भी मेरा प्रणाम ।
युधिष्ठिर महाराज ने दुर्योधन से कुशलता पूछते हुए शकुनि को भी प्रणाम कर लिया था ।
सब कुशल हैं , हस्तिनापुर मेरे पिता महाराज की छत्रछायां में आनंदित है ।
दुर्योधन की बातें सुनकर अब सभा से निकलने लगे थे पाण्डव ,
महाराज ! आज मेरी एक इच्छा है , वो आपको पूरी करनी ही पड़ेगी ! दुर्योधन ने अपने पिता महाराज धृतराष्ट्र से हाथ जोड़कर कहा था ।
क्या ? क्या कहना चाहते हो स्पष्ट कहो पुत्र ! धृतराष्ट्र ने कहा ।
मेरा परिवार आज यहाँ उपस्थित हुआ है , मैं बहुत प्रसन्न हूँ । दुर्योधन ने दम्भ का सहारा लिया ।
भीम दादा !
दुर्योधन कुछ नाटकीय सा नही कर रहा । अर्जुन ने भीम के कान में धीरे से कहा था ।
तभी दुर्योधन का भाई दुशासन भी वहाँ पहुँच गया , उसके साथ कर्ण था ।
मैं ये चाहता हूँ की हम सब परिवार मिलकर आपस में खेलें , आज क्रीड़ा हो जाए ,
नही नही महाराज ! लोभवश नही बस मनोरंजन के लिए ।
सब का ध्यान धृतराष्ट्र की और था वो क्या आदेश देते हैं ।
कौन सा खेल ? तात ! ये प्रश्न आपने किया था दुर्योधन से ।
विदुर जी मुस्कुराए , हाँ , उद्धव ! मैं महामन्त्री था इसलिए मैंने प्रश्न किया था ।
“द्यूत क्रीड़ा” दुर्योधन बोला ।
अर्जुन ने महाराज युधिष्ठिर का हाथ पकड़ कर कहा – चलिए महाराज ! इस तरह की क्रीड़ा में हम लोगों की रुचि नही है । पर मर्यादा का पालन करने में अग्रणी हैं युधिष्ठिर इसलिये रुक गए , “हमारे पूज्य पिता के ज्येष्ठ भ्राता विराजे हैं उनकी जो आज्ञा होगी हमें माननी ही होगी “। इतना कहकर रोक लिया था अपने भाई अर्जुन आदि को युधिष्ठिर ने ।
ये राजा महाराजाओं का खेल है , आप आइए बैठिए , नही नही , महाराज जैसी आज्ञा देंगे ।
दुर्योधन अर्जुन और भीम को देख रहा था ये दोनों खेलने की बात छोड़ो ये तो रुकने के लिए भी अब तैयार नही थे ।
द्यूत क्रीड़ा , मनोरंजन के लिए प्राचीन काल से ही चली आरही एक क्रीड़ा है , इसलिए युधिष्ठिर ! दुर्योधन का मन रखने के लिए तुम खेलो । धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को कहा ।
तब तात ! आप बोले थे , “महाराज ! युधिष्ठिर के लिए ये क्या आपकी आज्ञा है ?
विदुर ! द्यूत के लिए किसी को आज्ञा नही दी जाती , वैसे युधिष्ठिर को अपने भ्राता का मन रखना चाहिए , धृतराष्ट्र बोले थे ये ।
युधिष्ठिर ! ये महाराज की आज्ञा नही है , इसलिए तुम चाहो तो ……हे तात ! आप कितना सम्भाल रहे थे पाण्डवों को पर कलि सवार हो गया था पाण्डवों के विवेक पर । उद्धव बोले ।
अपने से बड़ों की बातों का आदर करना ही चाहिए , युधिष्ठिर बोले – और दुर्योधन कुछ ग़लत भी नही कह रहा , वो अपने भाइयों के साथ क्रीड़ा ही तो करना चाहता है इसमें गलत क्या ?
पर भैया ! अर्जुन युधिष्ठिर को कुछ कहने जा रहे थे पर आगे बढ़कर दुर्योधन को अपने गले से लगा चुके थे युधिष्ठिर ।
यहाँ , आप यहाँ बैठिए , आप हमारे बड़े हैं , दुर्योधन ने दम्भ का चोला ओढ़कर युधिष्ठिर को एक उच्च आसन में बिठाया उनके आस पास अर्जुन भीम नकुल सहदेव ये लोग बैठ गए थे ।
सामने दुर्योधन बैठ गया और चौसर बिछा दिया गया था ।
मेरा प्रतिनिधि मेरा मामा होगा ! दुर्योधन ने सबके सामने घोषणा करी ।
पर ये नही हो सकता , अर्जुन ने विरोध किया , भीष्म पितामह के भी विरोध के स्वर सुनाई दिए ।
पर क्यों ? दुर्योधन का प्रतिनिधि शकुनि क्यों नही हो सकता ? धृतराष्ट्र महाराज ने जब ये प्रश्न किया तब न अर्जुन उत्तर दे सके न भीष्मपितामह , हाँ भीष्म पितामह ने इतना अवश्य कहा कि , चौसर खेलने में शकुनि कुछ ज़्यादा ही निपुण है , इस बात पर दुर्योधन हंसा था उसके साथ उसके लोग सब हंसे थे , पितामह ! ये क्या बात हुई , पितामह कुछ बोले नही फिर ।
खेलें ! इन्द्रप्रस्थ के महाराज !
आज्ञा हैं ? शकुनि दम्भ भरी वाणी से युधिष्ठिर को पूछ रहा था ।
मामा जी ! आप भी ! शुरू कीजिए , युधिष्ठिर ने कहा ।
पासे पीसने लगा शकुनि , और पीसते हुए युधिष्ठिर से बोला , क्या लगाओगे दाँव में ?
सौ सुवर्ण मुद्रा , ये कहते हुए अर्जुन की और देखा था युधिष्ठिर ने ।
इन्द्रप्रस्थ के राजा मात्र सौ सुवर्ण मुद्रा , व्यंग भी करते हुए उसने पासे पीसे ,
छ मेरे , तुम्हारे ? चार , युधिष्ठिर बोल उठे ।
मामा ! छ आने चाहिएं । दुर्योधन बोल उठा ।
पासों को जैसे ही फेंका शकुनि ने , चार , युधिष्ठिर चिल्लाए , चार ही आए थे ।
ये क्या हुआ मामा ! फुसफुसाया कान में दुर्योधन ।
देखते जाओ आगे आगे भांजे ! शकुनि ने समझाया ।
वाह ! युधिष्ठिर महाराज ! आप तो द्यूत क्रीड़ा के अच्छे जानकार लगते हैं पितामह ऐसे ही आपको बालक समझ बैठे थे ।
लीजिए , आप जीते सौ सुवर्ण मुद्रा ,
दो अंक , युधिष्ठिर पहले ही बोल उठे इस बार , और मैं लगाता हूँ अपना गौ धन , सम्पूर्ण इन्द्रप्रस्थ का गौ धन , क्या कर रहे हैं आप ? अर्जुन ने कम्पित स्वर में पूछा ।
इन्द्रप्रस्थ के महाराज तो आप हैं फिर ये अर्जुन बीच में क्यों बोल रहा है , दुर्योधन अब अपने रूप में आने लगा था , और ये बात सुनकर कर्ण हंसा , अपमानित सा अनुभव किया अर्जुन ने किन्तु युधिष्ठिर पर तो कलि आकर बैठ चुका था , फिर ये द्यूत क्रीड़ा है इसमें एक उन्माद होता है जिससे कोई खेलने वाला बच नही सकता । उसी उन्माद ने जकड़ लिया है युधिष्ठिर को ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-
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