श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! पाण्डवों का वनवास – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 57 !!
भाग 1
नही द्रौपदी ! नही , तुम मेरे पुत्रों को श्राप नही दोगी । मैं तुमसे हाथ जोड़कर कह रही हूँ ।
महारानी गान्धारी द्रौपदी के क्रोध से समझ गयीं थीं कि ये चाहे तो अभी इसी क्षण हस्तिनापुर को जला कर भस्म कर देगी । चीर कैसे बढ़ता गया ये असम्भव था , गान्धारी ने जब सुना कि द्रौपदी की चीर खतम ही नही हो रही वो बढ़ती ही जा रही थी दुशासन हाँफने लगा था थक कर गिर गया था , तब द्रौपदी गान्धारी को महाकाली के रूप में दिखाई देनें लगी थी ।
वो बोली भी , आर्यपुत्र ! ये द्रौपदी नही काली है , चण्डी है , मुझे ऐसा लग रहा है कि काली स्वयं द्रौपदी के रूप में आकर मेरे पुत्रों के मस्तकों को काट कर खेल रही है और मेरे पुत्रों का रक्त पीते हुए अट्टहास कर रही है । आर्यपुत्र ! ये अच्छा नही हुआ मेरी बात मानकर पाण्डवों को उनका राज पाठ सब लौटा दीजिए । धृतराष्ट्र से कानों में गम्भीरता से बोली थी गान्धारी ।
भीम ! तुम नपुंसक हो !
अंगार उगल रहे थे द्रौपदी के नेत्र , वो भीम की और देखकर ही पहले बोली थी । धिक्कार है तुम्हारी इस वीरता को ।
तुम्हारी भार्या को ये दुर्योधन अपनी जंघा में बिठाने की बात करता रहा और तुम सुनते रहे !
मैं द्रौपदी , आज प्रतिज्ञा करती हूँ कि दुर्योधन के जंघा के रक्त से ही मैं अपने केशों को धोऊँगी ! और जब तक मुझे इस दुर्योधन की जंघा का रक्त नही मिलेगा तब तक मैं अपने केशों को बाँधूँगी नही । द्रौपदी की हुंकार ही सुनाई दे रही थी पूरी सभा में ।
मैं प्रतिज्ञा करता हूँ , कि दुर्योधन की जंघा को मैं तोडुंगा , रक्त भी लाकर मैं ही दूँगा तुम्हें ।
भीम ने प्रतिज्ञा की ।
पर द्रौपदी इतने पर भी शान्त नही हुई , वो क्रोध से काँप रही है , आज चण्डी बनकर समस्त कौरव समाज को खाने के लिए तैयार है ये । किसी की हिम्मत नही कि द्रौपदी के आगे कोई बोल भी दे ।
हाँ , कर्ण मुस्कुरा रहा था ,
सूतपुत्र ! तेरा मस्तक ये अर्जुन अपने गाण्डीव से छेदेगा, अर्जुन क्रोध से उबल पड़े थे ।
वेश्या बोलकर द्रौपदी को तूने , नारी जात का महत अपराध किया है , कर्ण! मैं तुझे मृत्यु का ग्रास बनाऊँगा । अर्जुन का क्रोध देखने जैसा था ।
इतने पर भी कहाँ शान्त हुई थी द्रौपदी , तब गान्धारी ने हाथ जोड़कर कहा था , श्राप मत देना मेरे पुत्रों को , उनके किए अपराध के लिए मैं क्षमा माँगती हूँ ।
धृतराष्ट्र के कानों में गान्धारी ने कह दिया था – सब कुछ लौटा दो इन पाण्डवों को ।
धृतराष्ट्र समझ रहे थे , धर्म अधर्म को वो जानते तो थे किन्तु ! पुत्र मोह के कारण वो अधर्म को छोड़ नही सकते थे और धर्म का पालन कर नही सकते थे ।
महारानी गान्धारी की बात उन्हें ठीक लगी वो समझ रहे थे कि द्रौपदी अपनी पे आजाए तो हस्तिनापुर को भस्म करने में इसे देर न लगेगी ।
हे पाण्डवों ! क्षमा करो दुर्योधनादि मेरे पुत्रों को , और मैं अपनी पुत्रवधू द्रौपदी से भी क्षमा माँगता हूँ कि उसका जो अपमान हुआ है इस सभा में उसे वो भूल जाए , आप लोगों को मैं दुर्योधन के दासत्व से मुक्त करता हूँ , मैं सब कुछ लौटा रहा हूँ आप लोगों को , आप लोगों का राज पाठ , सम्पत्ति , सब कुछ , धृतराष्ट्र के इतना कहते ही दुर्योधन अपने पिता से ही रुष्ट हो उठा था , शकुनि को लगा पाण्डव तो हार कर भी जीत गए , सब कुछ तो इनके पास आगया फिर से ।
जो हुआ उसे एक दुस्वप्न मान कर भूल जाओ ! गान्धारी ने अब युधिष्ठिर से हाथ जोड़कर कहा।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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