श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “मैं श्रीकृष्ण मित्र सुदामा” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 62 !!
भाग 2
ऐ कहाँ जा रहे हो ? दो द्वारपालों ने सुदामा को पकड़ लिया ।
अब सुदामा को क्या पता था ये तो घुस रहे थे महल में , मेरे मित्र का महल है यही ठसक थी मन में ।
सुनो ! सुनो ! मिलना है द्वारिकाधीश से ! सुदामा ने द्वारपालों को समझाना चाहा ।
सुदामा की बात सुनकर हंसे द्वारपाल , बड़े बड़े राजाओं को भी द्वारिकाधीश से मिलने के लिए पूर्व से समय लेना पड़ता है , और तुम ? ये कहते हुए सुदामा के तन से लिपटी इकलौती धोती को द्वारपाल देख रहे थे । सुदामा समझ गए । “तो मुझे मिलना है , उसको जाकर कह दो सुदामा आया है”, सुदामा को अब कुछ रोष सा आरहा था , कि हम उतनी दूर से आए और यहाँ ये लोग मुझे मेरे मित्र से मिलने भी नही दे रहे ।
देखो पण्डित जी ! तुम्हें भूख लग रही होगी , हाँ तुम्हारे इस देह को देखकर लग भी रहा है , तुमने खाया भी नही होगा कई दिनों से , दूसरे द्वारपाल ने कहा , फिर पहले वाले ने कुछ गम्भीर होते हुए कहा – ये द्वारिका है यहाँ अन्नक्षेत्र बहुत चल रहे हैं , महाराज ! पहले कुछ खा लो , जाओ !
द्वारपाल स्पष्ट बोलकर फिर अपने सावधान की मुद्रा में ही खड़े हो गए थे ।
सुनो भैया ! एक बार बोल दो ना , सुदामा आया है , बस , उसके कान में मेरा नाम सुना दो , फिर वो मिलना चाहे मिल लेगा नही तो कोई बात नही , मैं लौट जाऊँगा । सुदामा इतना बोलकर फिर वहीं सीढ़ी पर बैठ गए थे , दुर्बल शरीर को थकान भी तो हो रही थी ।
महाराज ! कौन हैं आप ,किसी देश के नरेश हैं ? द्वारपाल व्यंग कर रहे हैं , पर सुदामा क्या जानें व्यंग को ।
अरे ! मैं ही तो सुदामा हूँ , द्वारपाल को हंसकर कह रहे थे ।
सुदामा से द्वारिकाधीश क्यों मिलें ! कोई विशेषता है सुदामा की ?
द्वारपालों को अब झुँझलाहट हो रही थी ।
इधर आओ , सुदामा बैठे बैठे ही द्वारपालों को अपने पास बुलाने लगे थे , कान लाओ मेरे पास , सुदामा के पास द्वारपालों ने जब अपने कान लगाए तो धीरे से सुदामा बोले – “द्वारिकाधीश मेरे मित्र हैं” ………ये सुनते ही द्वारपाल हंसने लगे । पण्डित जी ! अब तो पेट की गर्मी सिर में चढ़ रही है ।
नेत्रों से अश्रु झरने लगे सुदामा जी के , मैं कभी झूठ नही बोला , मेरी बात का विश्वास करो भैया ! मुझे क्षुधा भी व्याप नही रही , बस श्रीकृष्ण के दर्शन हो जाएँ ! ये कहते हुए सुदामा जी की वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।
सुन भैया !
कहीं ये सच में ही हमारे द्वारिकाधीश के मित्र तो नही है ? द्वारपाल आपस में बातें करने लगे थे ।
नही , वस्त्र देखें हैं इसके ! पहले द्वारपाल ने कहा ।
पर हमारे द्वारिकाधीश का प्रेम ऐसे ही लोगों पर बरसता है , दूसरा द्वारपाल बोल उठा था ।
दीन बन्धु , दीनानाथ , यही नाम तो हमारे द्वारिकाधीश के हैं ।
अगर ये द्वारिकाधीश का मित्र निकल गया तो !
हाँ , तो क्या कहते हो , सूचना दे दें ? पहले द्वारपाल ने अपने सहयोगी से कहा ।
पर अभी तो द्वारिकाधीश भोजन कर रहे होंगे , मध्याह्न का समय हो रहा है । दूसरे द्वारपाल ने समय देखकर बताया ।
ऐ भैया ! सूचना पहुँचा दो ना की सुदामा आया है , मिलना हो तो मिल लेगा श्रीकृष्ण और अगर नही मिलना है तो मैं आज ही लौट जाऊँगा अपने गाँव , क्यों रहूँ फिर मैं इस कंचन की नगरी में ।
सख्य भाव अपने मूर्त रूप में अब प्रकट हो रहा था , सुदामा सखा है वो कोई दास या सेवक तो नही है । सख्य की अपनी जो ठसक है वो प्रकट होने को ही थी की –
अच्छा महाराज ! आप रुको , हम जाते हैं और द्वारिकाधीश को आपकी बात बताते हैं ।
द्वारपालों ने उन्हें बैठे रहने के लिए कहा और स्वयं गए भीतर महल में ,
हाँ , एक बार फिर पूछा था क्या नाम बताया ?
सुदामा आनंदित होकर बोले – सुदामा ।
और हाँ ये भी कहना , उज्जैन में पढ़े थे ऋषि संदीपनी के यहाँ , सुदामा चिल्लाकर महल में जाते हुए द्वारपालों को बता रहे हैं , और हाँ उससे कहना , उसके भाग का चना ,
सुदामा मुस्कुराते हुए बोले – अब तो वो पक्का ही समझ जाएगा ।
ये कहते हुए वो फिर बैठ गए वहीं सीढ़ी पर ।
द्वारपाल भीतर गए ।
शेषचरित्र कल –
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877