श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “ इति सुदामा चरिते” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 70 !!
भाग 1
भीलों से लुट कर सुदामा अपने गाँव आ गए थे …..मोतियों की माला हीरों का हार यहाँ तक की पीताम्बरी भी भीलों ने लूट ली थी ।
किन्तु सुदामा को कोई दुःख नही था , हाँ सुशीला की श्रद्धा श्रीकृष्ण के प्रति कम हो जाएगी ये डर अवश्य था मन में । “द्वारिका जाओ” कहती रहती थी , चार मुट्ठी चिउरा भी वही माँग कर लाई थी , मन में आस तो थी कि द्वारिकाधीश कुछ तो देंगे , पर उसने नही दिया ।
सुदामा गाँव में पहुँचे हैं , सोचते हुए पहुँचे – दे देता , अपार सम्पदा तो थी उसके पास । मैं तो ठीक हूँ , मेरी पीताम्बरी भी छीन ली भीलों ने , मैं छाल पहन कर चल रहा हूँ , पर सुशीला का क्या ! वो तो मुझे सुनाएगी , तेरे बारे में भी बोलेगी….कहेगी कृपण है तुम्हारा सखा ।
यार ! कुछ तो दे देता , मुझे नही अपनी भाभी को ही दे देता ।
सुदामा यही सोचते हुए आ पहुँचे हैं अपने गाँव ।
ये छाल ! वो पीताम्बरी कितनी अच्छी थी , कितनी अच्छी लग रही थी ।
वो भी छीन ली उन भीलों ने ……अरे ! कुछ नही तो कम से कम एक सुवर्ण मुद्रा ही दे देता…..तेरा क्या जाता उसमें , अरे ! तू तो “श्रीनिवास” है , लक्ष्मी तेरे चरणों में ही तो थी …..
सुदामा यही सोचते हुए अपने गाँव में प्रवेश किए ।
गाँव के लोगों ने सुदामा जी को देखा तो हंसे , और ऐसी स्थिति में देखकर तो और हंसने लगे ।
सुदामा जी को कोई हंसे या रोए इससे क्या अन्तर पड़ने वाला था ……किन्तु सुदामा फिर दुखी हो जाते हैं , कृष्ण ! तेरा नाम ख़राब होगा , मेरी सुशीला ही क्यो मेरा पूरा गाँव तेरे नाम को लेकर हंसेगा …बात मेरी होती तो कोई नही , पर तुझे बोलेंगे ……..सुदामा इधर उधर बिना देखे अपनी झोपड़ी में जाना चाहते हैं , वो चल भी रहे हैं ।
सब जानता है तू , पर व्यवहार नही जानता …..फिर सुदामा किंचित मुस्कुरा जाते हैं , वैसे व्यवहार तो मैं भी नही जानता…..पर कुछ तो दे देता यार ! अब सुशीला क्या क्या सुनाएगी ।
सुदामा जैसे ही अपनी झोपड़ी के पास पहुँचे ,
दो द्वारपालों ने सुदामा को रोक दिया ……आप नही जा सकते भीतर ।
सुदामा चौंक गए …..मैं कहीं वापस द्वारिका नगरी में तो नही पहुँच गया ! फिर ध्यान से अपने गाँव को देखा , नही ये तो अपना ही गाँव है , पर ये महल ! यहाँ तो मेरी झोपड़ी थी ……सुदामा जी घबड़ाए , ये क्या हुआ …….मैं द्वारिका क्या गया , यहाँ किसी श्रीमंत ने मेरी झोपड़ी पर अपना महल बना दिया । पर सुदामा द्वारपाल से ही पूछते हैं – इस महल का मालिक कौन है ?
“श्रीश्री सुदामा जी महाराज” …….द्वारपालों ने उत्तर दिया ।
अरे ! मैं इस का मालिक ! महल का मालिक !
नही , कोई सुदामा नाम का सेठ होगा , उसका भी नाम सुदामा ही होगा ।
अच्छा ! सुनो , उन सेठ जी को बुलाओ ……सुदामा ने कहा ।
वो तो पण्डित जी हैं सेठ जी नही , द्वारपालों ने फिर उत्तर दिया ।
सुदामा चकित हैं , पण्डित तो मैं ही हूँ , पर ये महल मेरा कैसे है ?
भैया ! तो उन पण्डित जी को ही बुला दो । सुदामा ने फिर द्वारपालों से कहा ।
वो तो द्वारिका गए हैं । द्वारपाल की बात सुनकर सुदामा जी फिर चौंक गए थे ।
सोचा अब तो भीतर ही जाऊँ , महल में ही जाकर देखूँ , कि क्या स्थिति है ,
सुदामा जी महल में जानें के लिए तैयार ही थे कि फिर रुक गए …..कहीं मुझे धक्का दे दिया इन पहलवान द्वारपालों ने तो मेरी तो यही समाधि बन जाएगी , सुदामा अब देख रहे हैं उस महल को ।
स्तब्ध-चकित हैं सुदामा…….अरे यहाँ तो तुलसी का पौधा था , पर अब तो चंदन वृक्ष खड़े हैं ।
महल के चारों ओर घूम घूम के देख रहे हैं सुदामा , झोपड़ी की जगह महल खड़ा कर दिया ।
और महल भी सामान्य नही है कृष्ण के टक्कर का महल है ….पर ये कौन है ।
सुदामा जी का ध्यान महल की ओर ही था कि तभी –
माता जी ! थोड़ा दूर से …….
महल से आयीं थीं ये महिला , इनके साथ आठ सखियाँ थीं , चार वाम भाग में और चार दाहिने भाग में , मध्य में महल की ही मालकिन आयी थीं उनके हाथों में पूजा की थाल थी ….पग के नूपुर , ध्वनि अद्भुत कर रहे थे । उन महिला ने आकर सुदामा जी के चरणों में वन्दन किया था…..सुदामा जी को लगा महल की मलिकन आयी है और ब्राह्मण के चरण छू रही है ।
माता जी ! थोड़ा दूर से ……..
सुदामा जी बोल पड़े थे ।
माता जी ? सुशीला ने रोष से देखा सुदामा जी के मुख में ।
सुदामा ने जैसे ही देखा सुशीला को ……सुशीला ! अरे वाह ! ये साड़ी , ये हाथों के कड़े , सोने के हैं ? हाँ , हाँ सब सोने के ही हैं सुशीला बोली ।
झोपड़ी कहाँ ? ये महल अपना है ! सुशीला ने कहा ।
महल अपना है ! सुदामा जी कुछ समझ नही पा रहे हैं कि इतना सब !
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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