श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “मिलेंगी वृषभान नन्दिनी” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 72 !!
भाग 2
कितने चहकते हुए श्रीकृष्ण आज रोहिणी माता को वृन्दावन की बातें बता रहे थे ।
मनसुख आएगा ना कुरुक्षेत्र ?
हाँ , उसी ने ज़िद्द की है बाबा ब्रजराज से , पता है कन्हैया यहाँ से जो पत्र मैं भेजती हूँ ना , उसे मनसुख ही पढ़ता है , जीजी पत्र उसी से पढ़वाती हैं । रोहिणी माता गदगद हो कर बता रही हैं ।
यमुना , कदम्ब का वृक्ष , तमाल का वो घना कुँज ।
और बरसाना …….”बरसाना” कहते ही श्रीकृष्ण की तो प्रेम समाधि ही लग गयी थी ।
गहवर वन , मोर कुटी , प्रेम सरोवर, सांकरी खोर …..नेत्र बन्दकर के श्रीकृष्ण इन नामों को ऐसे ले रहे थे …जैसे किसी पवित्र ग्रन्थ के पवित्र मंत्रों का उच्चारण कर रहे हों ।
और वो वृषभान नन्दिनी ? रोहिणी माता ने ये क्या कह दिया था ।
ये क्या नाम ले लिया …..ओह ! नेत्र बन्द हो गए श्रीकृष्ण के उनके हृदय में उनकी आल्हादिनी प्रकट हो गयीं , मुखमंडल में हल्की मुस्कुराहट फैल गयी , नेत्रों से अश्रु धार बह चले , हृदय की धड़कन तेज हो गयीं ।
मेरी आल्हादिनी ! मेरी प्रिया ! मेरी राधा …..
वो मुझ से मिलेंगी ? फिर एकाएक हंसने लगते हैं श्रीकृष्ण ।
वो तो मिली हुई ही हैं , वो अगर अनमिली हो जाएँ तो क्या इस कृष्ण की सत्ता रहेगी ? उन श्रीराधिका जू के बिना ये कृष्ण क्या बचा रहेगा ।
श्रीराधा , जिनका स्मरण कर ये कृष्ण जगत के प्राणियों को प्रेम वितरण करता फिरता है ।
श्रीराधा , जो इस कृष्ण की आत्मा हैं , हम दोनों दो कहाँ हैं ! एक हैं ।
भावावेश में श्रीकृष्ण बोलते चले गए थे , उन्हें कुछ भी भान नही रहा वो अपनी श्रीराधा में ही खो गए थे ।
तात ! कुरुक्षेत्र के लिए द्वारिकावासियो को आज ही निकलना था , क्यो की द्वारिका से कुरुक्षेत्र की दूरी भी तो बहुत थी । पर रोहिणी के महल में ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व इसलिए आए थे श्रीकृष्ण कि ये पता करें कि वृन्दावन वाले पहुँच रहे हैं कि नही ।
किन्तु! सूर्योदय होने को आगया ,श्रीकृष्ण और माता रोहिणी दोनों ही “वृन्दावन रस”में डूब गए थे।
वृन्दावन की चर्चा ही ऐसी थी ।
उद्धव विदुर जी से कहते हैं – तात ! उसी समय वसुदेव जी आए और श्रीकृष्ण को ऐसी स्थिति में देखकर वो भी विह्वल हो उठे थे ।
“अपराधी तो ये वसुदेव है उन महामना नन्द जी का , उनकी नवजात पुत्री को मैंने ही कंस के हाथों में सौंप दिया था इसलिए कि मुझे अपने पुत्र को बचाना था , कितना स्वार्थी है ये वसुदेव ।
पर उन महामना ब्रजराज ने एक बार मुझ से नही कहा कि ….मेरी पुत्री कहाँ गयी वसुदेव ?
वो चाहते तो कृष्ण को ले जा सकते थे , उनकी पुत्री को मैं ले आया था …रो उठे वसुदेव , लाया ही नही उनकी पुत्री को , मैंने तो मरवा दिया ….पर उन महामना नन्द जी को कोई शिकायत नही ।
रोहिणी ! मुझे पता नही था कि वृन्दावन वाले भी आरहे हैं कुरुक्षेत्र, आहा ! उन लोगों के तो चरण की धूल भी माथे से लगा लें , धन्य हो जाएँगे ……वसुदेव वही करने वाला है ।
वसुदेव ने अपने आपको उस भाव समुद्र से बाहर निकाला ….क्यो की वो भी डूब रहे थे ।
मैंने ही आकर कहा …..बहुत दूर की यात्रा है , इसलिए अब निकलना उचित रहेगा ।
उद्धव बोले ….मेरी बात सबनें सुनी , रोहिणी माता स्नान करने के लिए जा चुकी थीं ।
श्रीकृष्ण भी उठ गए और मन में अपने वृन्दावन वासियों से मिलने की मधुर उत्कण्ठा को संजोय अपने महल में चले गए थे , रुक्मणी आदि अब तैयार होकर बैठी हुईं थीं ….कुरुक्षेत्र जाने की सबकी विशेष इच्छा है । श्रीकृष्ण के मन में अब यही चाह ……वृषभान नन्दिनी मिलेंगी , आहा ।
शेष चरित्र कल –
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