श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “श्रीकृष्णचन्द्र जू की मिथिला यात्रा”- उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 77 !!
भाग 2
चारों और आनन्द की हिलोरें चल रहीं थीं मिथिला में ……….राजा बहुलाश्व ने सब कुछ न्योछावर कर दिया था भगवान वासुदेव के चरणों में ……और प्रेमपूवर्क भगवान को और उनके साथ आए समस्त ऋषियों को विदेह अपनी राजधानी जनकपुर ले आए थे ।
क्यों नही आएँगे मेरे यहाँ भगवानश्रीकृष्ण …….वो भगवान हैं और भगवान मात्र राजाओं के नही होते वो तो सबके होते हैं ….जो पूर्ण उसमें प्रपन्न हों …उनके होते हैं ।
ये ब्राह्मण था …जी , श्रुतदेव इसका नाम था । मिथिला का ही है ये ….पर राजधानी जनकपुर में न रह कर दूर दूधमति ( जनकपुर मिथिला में ये एक पवित्र नदी है )। तट पर इसनें अपनी कुटिया बनाई थी ।
ये अयाचक था , किसी से कुछ माँगना नही है …..अयाचक था इसलिए दूधमति का जल मात्र पी कर ये जप तप साधन में लीन रहता था ।
सुना इसने की द्वारिका से श्रीकृष्ण आरहे हैं ….तब से ये भी अपनी कुटिया को झाड़ पौंछ कर पूर्ण विश्वास से बैठा था कि भगवान इसकी कुटिया में अवश्य आएँगे ।
“पहले मेरे यहाँ ही आएँगे”…….निष्ठा दृढ़ थी इस ब्राह्मण की ।
“क्यो जाने लगे भला पहले राजा के पास भगवान ….वो तो हम लोगों की पहले सुनते हैं”।
“अरे ! जनकपुर में पहुँच गए भगवान श्रीकृष्ण” …दूसरे ब्राह्मण ने आकर श्रुतदेव को कहा ।
नेत्रों से अश्रु बह चले ….श्रुतदेव ने कहा ये सम्भव ही नही है , पहले मेरी कुटिया में ही पधारेंगे भगवान !
पर उन्होंने तो विदेह का आतिथ्य स्वीकार कर लिया है …और मैं जा रहा हूँ अब उनके दर्शन करने …वो ब्राह्मण तो गया ।
श्रुतदेव अपनी कुटिया से बाहर आए …..मन में उदासी गहरी छाने लगी थी ।
क्या सच में भगवान मेरे यहाँ न आकर राजा के महल में ही गए ….
ब्राह्मण सोच ही रहे थे कि ……
सामने से आ रहे हैं भगवान वासुदेव …..ब्राह्मण ने देखा …..जब ध्यान से श्रुतदेव ने दृष्टि डाली ………पीताम्बर धारी नीलवर्ण की आभा जिनके श्रीअंगों से छिटक रही है …वो मुस्कुराते हुये आरहे हैं , पैदल ही आरहे हैं….उनके साथ नारद जी , शुकदेव, व्यास देव , असित , अंगिरा आदि सब ….पर इनकी और श्रुतदेव का ध्यान ही नही गया …वो तो बस भगवान वासुदेव का दर्शन करके ही आनंदित हो रहे थे । श्रुतदेव के आनन्द की तो अब कोई सीमा ही नही रह गयी थी ।
ये देह भान भूल गए थे …जल पात्र निकट था उसी जलपात्र को बजाते हुए श्रुतदेव नाचने लगे थे …सात्विक भाव सब दृष्टिगोचर होने लगे श्रुतदेव के देह में…नेत्रों से अश्रु की धार बह चली थी ।
उनकी ऐसी स्थिति देखकर श्रीकृष्ण चन्द्र जू ने उनके मस्तक में अपने हाथ रखे …..और कहा …आप भक्त हैं , परम भक्त हैं …मैं इसलिए आपकी कुटिया में आया हूँ ….आप मेरे लिए निष्ठावान हैं , आप मुझ से प्रेम करते हैं ….किन्तु हे श्रुतदेव ! ये कृष्ण अपनी पूजा से इतना प्रसन्न नही होता जितना सत्पुरुषों की पूजा से होता है ।
श्रुतदेव रुक गए ……वो चरणों में गिर गए श्रीकृष्ण के ….भाव में इतने सिक्त थे ये कि अभी भी इनको समझ नही आरहा कि भगवान कहना क्या चाह रहे हैं ।
श्रुतदेव को अपने कण्ठ से लगाया भगवान ने ….फिर बोले …हे विप्र ! ये जो मेरे साथ आए हैं ये मेरे ही रूप हैं…ये नारद जी हैं , ये शुकदेव जी हैं , ये महर्षि अंगिरा हैं साधु मेरा ही तो रूप होता है …..इनको वन्दन न करके तुम मेरी कितनी भी पूजा कर लो उससे मैं प्रसन्न नही होता ।
श्रीकृष्ण के इतना कहते ही श्रुतदेव ने उन ऋषियों के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया था ।
अब श्रीकृष्ण प्रसन्न हुये …..अपनी कुटिया में ले गए वो श्रुतदेव …..और प्रथम ऋषियों के चरण पखारे फिर श्रीकृष्ण चन्द्र जू के ।
श्रुतदेव ! वो त्रेता युग था कि विपन्न के यहाँ ही भगवान पहले जाते थे ….
अब तो कलियुग आने वाला है …..श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्व विदेह के यहाँ चले गए हैं ।
वो दूसरा ब्राह्मण जनकपुर में राजा के यहाँ श्रीकृष्ण चन्द्र जू के दर्शन कर आया था ।
तू भी जा श्रुतदेव , अब यहाँ नही आएँगे भगवान श्रीकृष्ण …….
पर वो जैसे ही श्रुतदेव की कुटिया में ये सब बोलते हुए गया ……..आहा ! वो पीताम्बर धारी मुस्कुराते हुए श्रुतदेव के यहाँ साक पात फल फूल ग्रहण कर रहे थे ।
उसको विश्वास नही हुआ …….ये कैसे हो सकता है …….
“क्यो नही हो सकता …ये भगवान हैं ….ये भक्त की भावना का आदर करते ही हैं” ।
देवर्षी नारद जी ने उस दूसरे ब्राह्मण से कहा ….ये राजप्रासाद में भी हैं और कुटिया में भी ।
वो ब्राह्मण चरणों में गिर गया था भगवान श्रीकृष्ण के ।
“भक्तिवश्य भगवान” देवर्षी मुस्कुराते हुए यही कह रहे थे ।
शेष चरित्र कल
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