श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “मिथिला में दिव्य प्रेमदर्शन” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 78 !!
भाग 1
हे प्रेमदेव ! मुझे प्रेम का दर्शन कराइए …….
ज्ञान हमें विरासत में मिली है ….इस मिथिला की गद्दी में बैठने वाले सब ज्ञानी ही हुए हैं ।
पर प्रेम अद्भुत है ….ज्ञान रूपी वृक्ष पर खिलने वाला पुष्प प्रेम है, उसका दर्शन कब होगा ?
अर्धरात्रि के समय मिथिला के राजा बाहुलाश्व श्रीकृष्णचन्द्र जू के चरण दवा रहे थे …..तब राजा ने भगवान श्रीकृष्ण से ये प्रश्न किया था ।
इन दिनों मिथिला जनकपुर के अतिथि बने हुए हैं श्रीकृष्ण ……….
नाथ ! हमारे पूर्वज राजा शीलध्वज और महारानी सुनयना जी के यहाँ साक्षात भक्ति महारानी ने अवतार लिया था “सर्वेश्वरी सीता”के रूप में ….हम आज भी अपने आपको धन्य मानते हैं मिथिला वासी , कि उन भक्ति की साकार मूर्ति सीता जी का हमने परब्रह्म श्रीराघवेंद्र को कन्यादान किया था ।
किन्तु , त्रेतायुग की बात है ये …अब तो द्वापर भी जाने वाला है कलियुग का आगमन है …..
येसे काल में प्रेम का दर्शन असम्भव ही लगता है …..किन्तु आप चाहें तो ……
श्रीकृष्ण भगवान से राजा बहुलाश्व प्रार्थना कर रहे थे….कि तभी –
हे श्रीकृष्ण ! तुमने बताया नही कि तुम यहाँ मिथिला में बैठे हो…मैं तो तुम्हें द्वारिका खोज आया ।
ये ऋषि घोरआंगिरस थे …..महान तपस्वी …और महान योगी ।
जो तपस्या में लीन रहता है ….देह को तप से तपाता है ….उनमें क्रोध की मात्रा कुछ ज़्यादा ही रहती है । ये घोरआंगिरस क्रोधी ऋषि थे …..किन्तु महान तपशील ।
उठ गए वासुदेव……ऋषि के चरणों में वन्दन किया ….राजा विदेह बहुलाश्व ने भी भगवान श्रीकृष्ण के साथ साथ ऋषि चरणों में अपने मस्तक को रख दिया था ।
स्वयं के साथ लाए बाघम्बर को बिछाकर ऋषि बैठ गए ।
हाँ , अब बताओ राजन ! श्रीकृष्ण से तुम क्या पूछ रहे थे ?
राजा विदेह ने सिर झुका लिया किन्तु कुछ बोले नही ।
मैं समझता हूँ …..ये छलिया है …..क्यो कृष्ण ! मैं झूठ तो नही बोल रहा ।
ऋषि घोरआंगिरस ने किंचित मुस्कुराते हुए श्रीकृष्ण की और देखते हुए कहा था ।
हे ऋषि ! आप मिथ्या कहते ही नही हैं । ऋषि से श्रीकृष्ण इतना ही बोले ।
तो इसका मतलब तुमने अभी तक छलियापना छोड़ा नही है । इस बार ऋषि खुलकर हंसे ।
सुनो राजन ! तुम जो प्रश्न कर रहे थे ना वासुदेव से ….कि प्रेम क्या है ?
कुछ नही रखा है प्रेम भक्ति में ….ज्ञान सर्वोच्च है …..ज्ञान के बिना सब व्यर्थ ही तो है…….
आप कुछ आहार ग्रहण कर विश्राम करें ऋषि ! राजा विदेह उनको सुलाना चाहते हैं ।
तुम मेरी बात पर ध्यान न देकर मुझे सुलाना क्यो चाहते हो ….कहीं मेरी अवहेलना …..
नही नही ऋषि ……ये राजा विदेह तो आपके श्रम को ध्यान में रखते हुए कह रहे थे ।
श्रीकृष्ण ने बात सम्भाल ली थी ।
ओह …मेरी चिन्ता मत करो …दस हजार वर्ष हो गए घोरआंगिरस सोया नही है …..
मुझे प्रिय नही है ये तमोगुण से भरा कोई भी क्षण …..”विशुद्ध सत्व” मैं इन्हीं में रमा रहता हूँ ।
और भी बहुत कुछ बोलने वाले थे ऋषि …किन्तु श्रीकृष्ण ही बोल उठे ……
जब सोना नही है तो इस महल में क्यो रहना …..ऋषि ! अगर आप चाहें तो इस समय हम लोग दूधमती के तट पर भ्रमण कर आएँ ।
अरे वाह ! कृष्ण तुमने तो मेरे मन की बात कह दी ….अब चलो ….इतना कहते हुए ऋषि उठे उनके पीछे श्रीकृष्ण और फिर राजा बाहुलाश्व चल दिए ।
चारों और सुन्दर सुन्दर फूल खिले हैं …….उनमें भौंरों का झुण्ड गुनगुन कर रहा है ।
चाँदनी रात है ..चाँदनी, उस वन में छिटक रही है ..जिससे वन की शोभा और सुन्दरतम हो गयी है ।
दूधमती का जल दूध के समान बह रहा है…हवा शीतल चल रही है ..उस हवा में एक मादकता है ।
“दिव्य और अद्भुत” ……..ऋषि घोर आंगिरस बोले थे ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल
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