श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “उद्धव गीता – हंसावतार” उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 87 !!
भाग 2
और तुम कहो कि ….मैंने तो आत्मा को लेकर प्रश्न किया है तो आत्मा तो सबकी एक ही है ….जो तुम्हारी वो मेरी ….फिर उसका क्या परिचय ।
उद्धव ! प्रश्न सब व्यर्थ ही होते हैं । इसलिए मैंने हंस के रूप में प्रथम , प्रश्न को ही निरर्थक सिद्ध कर दिया था ।
फिर मैंने उनसे कहा ….संसार में चित्त है ….और चित्त में संसार है ….फिर कैसे मुक्त हुआ जाए ?
हे ब्रह्मापुत्रों ! यही प्रश्न है ना तुम्हारा ? मैंने हंस के रूप में सनकादी ऋषियों से पूछा था ।
सिर झुकाकर उन्होंने ….हाँ कहा ।
“जीव चित्त नही है ….जीव तो मेरा स्वरूप है ….संसार परिवर्तनशील है …संसार के गुण भी परिवर्तनशील हैं …..यानि मिथ्या हैं …..फिर चित्त तो उसे ही कहते हैं ना ….जो नाना संस्कारों को भरकर चल रहा है ……जन्म मृत्यु का चक्र उसी से चलता है ।
किन्तु …..जीव को समझना होगा ……..चित्त भी जड़ है …और संसार के गुण भी जड़ हैं ….जड़त्व में ममत्व होने से …इनको अपना मानने से संसार में आवागमन हमारा हो रहा है ।
जीव क्या करे ? उन प्राचीन ऋषि सनकादियों ने फिर प्रश्न किया ।
मेरे स्वरूप का चिन्तन करते हुए इन दोनों को ही त्याग दे ……संसार के गुणों ( सत्व, रज, तम) को भी त्याग दे और चित्त को भी जला दे ।
कैसे जलेगा चित्त ? सनकादी ने फिर प्रश्न किया ।
मेरी अप्राकृत लीला , मेरा चिन्तन, मेरा अचिंत्य रूप …..या मुझे अपने आत्मरूप में हृदय में बैठे देखते हुए , उस ध्यान धारणा से चित्त जल जाएगा ……फिर तुम्हारा जो सत्य रूप है वही प्रकट होगा ….प्रकट क्या होगा …..असत्य जल जाएगा …सत्य तो है ही ।
मैंने इतना कहा और मौन हो गया था …..सनकादी ऋषियों ने मुझे साष्टांग प्रणाम किया …सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने मेरी अर्चना की ……फिर मैं वहाँ से अन्तर्धान हो गया ।
उद्धव ! मैं मन नही , मैं बुद्धि नही , न चित्त हूँ … मैं तो आत्मतत्व नित्य हूँ ….
इस तरह से ज्ञान मार्ग के द्वारा द्रष्टा भाव से देखते हुए भी चित्त से परे जा सकते हैं ….
या फिर ….मेरी कथा सुनते हुए , मेरे नाम का चिन्तन करते हुए …मेरी लीला ही ये सब जगत है …सर्वत्र मैं ही मैं हूँ ….ऐसी भक्ति भावना युक्त होकर भी चित्त को पिघाला जा सकता है ….ये भक्ति मार्ग है ।
भगवान श्रीकृष्ण इतना कहकर फिर गोमती के तरंगों को निहारने लगे थे ।
शेष चरित्र कल
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