!! “श्रीराधाचरितामृतम् 3 !!
“भानु” की लली – श्रीराधारानी
भाग 1
प्रेम की लीला विचित्र है …..प्रेम की गति भी विचित्र है ….
इस प्रेम को बुद्धि से नही समझा जा सकता है …….इसे तो हृदय के झरोखे से ही देखा जा सकता है ………..।
हो सकता है मिलन की चाँदनी रात का नाम प्रेम हो ……..या उस चाँदनी रात में चन्द्रमा को देखते हुए प्रियतम की याद में आँसू को बहाना …….ये भी प्रेम हो सकता है ……..।
मिलन का सुख प्रेम है ……….तो विरह वेदना की तड़फ़ का नाम भी प्रेम ही है ………शायद प्रेम का बढ़ना …..प्रेम का तरंगायित होना ……..ये विरह में ही सम्भव है ………….विरह वो हवा है जो बुझती हुयी प्रेम की आग को दावानल बना देनें में पूर्ण सहयोग करती है ।
कालिन्दी के किनारे महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण प्रपौत्र वज्रनाभ को “श्रीराधा चरित्र” सुना रहे हैं…..और सुनाते हुए भाव विभोर हो जाते हैं ।
हे वज्रनाभ ! मैं बात उन हृदय हीन की नही कर रहा ……….जिन्हें ये प्रेम व्यर्थ लगता है …………मैं तो उनकी बात कर रहा हूँ ……..जिनका हृदय प्रेम देवता नें विशाल बना दिया है ……..और इतना विशाल कि सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखाई देता है ………कण कण में ….नभ में , थल में , जल में……..क्या ये प्रेम का चमत्कार नही है ?
इसी प्रेम के बन्धन में स्वयं सर्वेश्वर परात्पर परब्रह्म भी बंधा हुआ है ………….यही इस “श्रीराधाचरित्र” की दिव्यता है ।
श्रीराधा रूठती क्यों हैं ? वज्रनाभ नें सहज प्रश्न किया ।
इसका कोई उत्तर नही है वत्स ! प्रेम निमग्न महर्षि शाण्डिल्य बोले ।
लीला का कोई प्रयोजन नही होता …….लीला उमंग ….आनन्द के लिए मात्र होती है । हे यदुवीर वज्रनाभ ! प्रेम की लीला तो और वैचित्र्यता लिए हुए है ……इस प्रेम पथ में तो जो भी होता है …..वो सब प्रेम के लिए ही होता है…प्रेम बढ़े…..और बढ़े बस यही उद्देश्य है ।
न …..न ……….वत्स वज्रनाभ ! बुद्धि का प्रयोग निषिद्ध है इस प्रेम लीला में …………इस बात को समझो ।
फिर गम्भीरता के साथ महर्षि शाण्डिल्य समझानें लगे ………….
ब्रह्म की तीन मुख्य शक्ति हैं ………………..महर्षि नें बताया ।
द्रव्य शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति ……………
हे वज्रनाभ ! द्रव्य शक्ति यानि महालक्ष्मी …………क्रिया शक्ति यानि महाकाली……..और ज्ञान शक्ति यानि महासरस्वती ।
हे वज्रनाभ ! नौ दिन की नवरात्रि होती है तो इन्हीं तीन शक्तियों की ही आराधना की जाती है…….एक शक्ति की आराधना तीन दिन तक होती है ……..तो तीन तीन दिन की आराधना.. एक एक शक्ति की……..तो हो गए नौ दिन ……नवरात्रि इसी तरह की जाती है ।
पर हे वज्रनाभ ! ये तीन शक्तियाँ ब्रह्म की बाहरी शक्ति हैं …….पर एक मुख्य और इन तीनों से दिव्यातिदिव्य जो ब्रह्म की निजी शक्ति है ….जिसे ब्रह्म भी बहुत गोप्य रखता है……उसे कहते हैं “आल्हादिनी” शक्ति ……….महर्षि शाण्डिल्य नें इस रहस्य को खोला ।
आल्हाद मानें आनन्द का उछाल …………….।
हे वज्रनाभ ! ये तीनों शक्तियाँ इन आल्हादिनी शक्ति की सेविकाएँ हैं ……..क्यों की द्रव्य किसके लिए ? आनन्द के लिए ही ना ?
क्रिया किसके लिए ? आनन्द ही उसका उद्देश्य है ना ?
और ज्ञान का प्रयोजन भी आनन्द की प्राप्ति ही है …………।
इसलिये आल्हादिनी शक्ति ही सभी शक्तियों का मूल हैं……और समस्त जीवों के लिये यही लक्ष्य भी हैं ।
फिर मुस्कुराते हुए महर्षि शाण्डिल्य नें कहा …………ब्रह्म अपनी ही आल्हादिनी शक्ति से विलास करता रहता है ……..ये सम्पूर्ण सृष्टि उन आल्हादिनी और ब्रह्म का विलास ही तो है ………..यानि यही महारास है ………..सुख दुःख ये हमारी भ्रान्ति है वज्रनाभ ……..सही में देखो तो सर्वत्र आल्हादिनी ही नृत्य कर रही हैं …………।
इतना कहते हुए फिर भावातिरेक में डूब गए थे महर्षि शाण्डिल्य ।
कहाँ हैं श्याम सुन्दर ?
बताओ चित्रा सखी ! कहाँ हैं मेरे कृष्ण !
आज निकुञ्ज में आगये थे गोलोक क्षेत्र से कृष्ण के अंतरंग सखा ।
वो श्रीराधा को मना रहे हैं ………रूठ गयी हैं श्रीराधा !
इतना ही कहा था चित्रा सखी नें …..पर पता नही क्या हो गया इन “श्रीदामा भैया” को …….क्या हो गया इनको ……आज इतनें क्रुद्ध ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
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