!! “श्रीराधाचरितामृतम्” – 5 !!
गोकुल में प्रकटे श्यामसुन्दर
भाग 1
आप क्या कह रहे हैं ब्रह्मा जी ! मैं और पुरोहित की पदवी स्वीकार करूँ ? आपनें ये सोच भी कैसे लिया ?
चलो कोई राजा या चक्रवर्ती होता तो विचारणीय भी ……पर एक गोप ….ग्वालों के मुखिया का मैं महर्षि शाण्डिल्य पुरोहित बनकर जाऊँ ?
मैं उस दिन विधाता ब्रह्मा से बहुत कुपित हुआ था हे वज्रनाभ !
मैं तो पवित्रता का विशेष आग्रही था…….स्वच्छ और पवित्र स्थान ही मेरे प्रिय थे ……थोड़ी भी गन्दगी मुझ से सह्य न थी ।
उस दिन मैं अपनी तपः भूमि……..हिमालय में बैठ कर तपस्या कर रहा था …….मुझे तो हिमालय की भूमि प्रारम्भ से ही प्रिय थी ।
प्रातः की बेला…….गोपी चन्दन का उर्ध्वपुण्ड्र मेरे मस्तक पर लगा था ……….कण्ठ में तुलसी की माला……..मैं प्रातः की वैष्णव सन्ध्या करनें के लिए तैयार ही था कि ……..मेरे सामने विधाता ब्रह्मा प्रकट हो गए ……और उन्होंने मुझे कहा ………कि मैं बृज मण्डल में जाऊँ ……और वहाँ गोपों के मुखिया का पुरोहित बनूँ ।
मुझे रोष नही आता …………पर पता नही क्यों उस समय हे वज्रनाभ ! मुझे क्रोध आया ……..और मैने विधाता को भी सुना दिया ।
रोष न करो वत्स शाण्डिल्य ! ब्रह्मा शान्त ही रहे ।
तुमनें जैसे रोष किया है ………ऐसे ही मैने वशिष्ठ से भी जब रघुकुल का पौरोहित्य स्वीकार करनें की बात कही थी ……तब वो भी ऐसे ही क्रुद्ध हो उठे थे ……..पर मैने जब उन्हें कहा ……..कि परमात्मा अवतरित हो रहे हैं इस रघुकुल में तो उन्होंने अतिप्रसन्न हो मुझे बारम्बार वन्दन किया था ।
तो क्या इन ग्वालों के यहाँ भी ईश्वर अवतार ले कर आरहे हैं ?
मैने व्यंग किया था विधाता से ……….पर मेरी और देखकर चतुरानन मुस्कुराये …….निकुञ्ज से अल्हादिनी श्रीराधा और श्याम सुन्दर अवतार ले कर आरहे हैं !
क्या ! हे वज्रनाभ ! मेरे आनन्द का कोई ठिकाना नही था ………मैं नाच उठा ………..”क्या ऋषि वशिष्ठ जी जैसे मेरा भी भाग्योदय होनें वाला है ?
शायद उनसे ज्यादा …………..क्यों की रामावतार एक मर्यादा का अवतार था पर ये अवतार तो विलक्षण है ……..प्रेम की उन्मुक्त क्रीड़ा है इस अवतार में ………..हँसे विधाता …..हे महर्षि शांडिल्य ! “रामावतार लीला” नायक प्रधान थी ….पर ये लीला नायिका प्रधान है ………..क्यों की प्रेम की लीला में नायक गौण होता है ……….।
विधाता ब्रह्मा नें मुझे सब कुछ समझा दिया था ……….मथुरा मण्डल में ही महावन है ……जिसे गोकुल कहते हैं …………वहाँ आपको जाना है ………….वहीं मिलेंगें आपको “पर्जन्य गोप” उनके गोकुल में ही आपको पौरोहित्य कर्म करना है …..यानि आपको उनका पुरोहित बनकर रहना है ………। विधाता को इससे ज्यादा मुझे समझानें की जरूरत नही थी ………..इसलिये वो वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए ।
हे वज्रनाभ ! मैने बिलम्ब करना उचित नही समझा ……और हिमालय से नीचे उतरते हुए बृज मण्डल की ओर चल पड़ा था ।
महर्षि शाण्डिल्य आज अपनें बारे में बता रहे थे वज्रनाभ को ……..कि कैसे वो “बृजपति नन्दराय” के कुल पुरोहित बने ……….और इस का वर्णन करते हुए कितनें भाव में डूब गए थे महर्षि आज ।
हे वज्रनाभ ! मैं मथुरा आया ……….मुझे अच्छा लगा यहाँ आकर ….क्यों की मैं सोचता हुआ आरहा था कि नगर के वातावरण से मुझे घृणा है ………हर तरह का प्रदूषण फैला रहता है नगर में ……..फिर कोलाहल तो है ही …………मुझे तो हिमालय की आबोहवा ही अच्छी लगती रही थी……..पर मथुरा नगरी में आकर मुझे अच्छा लगा ।
महाराज उग्रसेन नें मेरा स्वागत किया था ………..आचार्य गर्ग की कुटिया में मैं कुछ घड़ी ही रुका ………फिर गोकुल गाँव की ओर चल पड़ा ……….।
ओह ! कितनी सुखद और प्रेमपूर्ण ऊर्जा थी इस गाँव की ………।
मेरा मन आनन्दित हो उठा……मोर नाच रहे हैं …..पक्षी बोल रहे हैं ……बन्दर उछल कूद कर रहे हैं वृक्षों में ।
सुन्दर सुन्दर गौएँ ………..सुवर्ण से उनकी सींगें मढ़ी हुयी थीं ……चाँदी से उनके खुर मढ़ दिए थे ……….ये सब भाग रही थीं आनन्द से इधर उधर ……ग्वाले इनके पीछे इनको सम्भालनें के लिए चल रहे थे ।
मेरे काँप उठा…. उस पवित्रतम भूमि में पैर रखते हुए ……….कहीं इस भूमि की कोई चींटी भी न दव जाए …………..आहा ! यहाँ की रज भी कितनी कोमल और सुगन्धित थी ………पवित्रतम ।
वृक्षावली घनी थीं ………..फलों से लदे वृक्ष धरती को छू रहे थे …….।
यमुना के किनारे बसा गाँव था ये गोकुल…………तभी मैने देखा …..सामनें एक सुन्दर से प्रौढ़ ग्वाल जो सुन्दर पगड़ी बाँधे हुए थे ………..उनके साथ कई ग्वाले थे ……………….सबके हाथों में थाल थी ………उसमें क्या था ये मुझे नही पता था उस समय …….रेशमी वस्त्र से ढंका हुआ था वो थाल ………..।
“मैं पर्जन्य गोप”….मेरे साथ मेरे ये नौ पुत्र हैं ………और कुछ मेरे मित्र और सेवक हैं ………हे महर्षि ! आज हमारी विधाता नें सुन ली ……हम धन्य हो गए ……..वर्षों से हम लोग यही आशा में थे कि हमें कोई दैवज्ञ पुरोहित मिले ……..और आज हमें आप मिल गए ।
कितनें भोलेपन से कहा था पर्जन्य गोप नें …………और उन थालों को मेरे सामनें रख दिया था …..किसी में मुक्ता मोती ……..किसी में मेवा इत्यादि ….किसी में भिन्न भिन्न मोरों के पंख …..किसी में सुवर्ण की और रजत की गिन्नियां थीं ।
अपना परिचय भी कितनी जल्दी दिया था पर्जन्य नें ………….
” राजा देवमीढ़ के दो विवाह हुए ……एक क्षत्रिय की कन्या से और एक वैश्य कन्या से ………..क्षत्रिय कन्या से सूरसेन हुए ……….और वैश्य कन्या से मैं पर्जन्य ………
मेरे पिता नें भाग बाँट भी दिया …….बंटवारा भी कर दिया ………गौ धन , कृषि कार्य ये सब मेरे भाग दे दिया ……..और राज्य राजनीति सूरसेन को ।
सूरसेन मेरे भाई हैं ……..उनको तो अच्छा पुरोहित मिल गया आचार्य गर्ग ……….पर हमें बड़ी चिन्ता थी ……….कि हमारे पास कोई पुरोहित नही हैं ……अब आप आगये हैं हमारा मंगल ही मंगल होगा ।
बडी विनम्रता से “पर्जन्य गोप” नें अपनी बात रखी ।
नौ पुत्र थे “पर्जन्य गोप” के…………..पर सबसे छोटे पुत्र थे पर्जन्य के ………”नन्द” ।
मैने उन्हें ही देखा ……………पाँच वर्ष के थे वो ………पर सबसे तेजवान …………..मुस्कुराहट बहुत अच्छी थी …..
सबनें मेरे पद छूये ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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