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महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी


भाग-1
श्रावण कृष्णपक्ष की रात। मूसलाधार वर्षा, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कन से धरती लरज-लरज उठती है। एक खण्डहर देवालय के भीतर बौछारों से बचाव करते सिमटकर बैठे हुए तीन व्यक्ति बिजली के उजाले में पलभर के लिए तनिक से उजागर होकर फिर अंधेरे मे विलीन हो जाते हैं । स्वर ही उनके अस्तित्व के परिचायक हैं-
“बादल ऐसे गरज रहे हैं मानो सर्वग्रासिनी काम क्षुधा किसी सत के अंतर आलोक को निगलकर दम्भ-भरी डकारें ले रही हो। बौछारें पछतावे के तारों सी सनसना रही हैं।बीच-बीच में बिजली भी वैसे ही चमक उठती है जैसे कामी के मन में क्षण भर के लिए भक्ति चमक उठती है।”
“इस पतित की प्रार्थना स्वीकारें गुरू जी, अब अधिक कुछ न कहें। मेरे प्राण भीतर-बाहर कही भी ठहरने का ठौर नहीं पा रहे हैं। आपके सत्य वचनों से मेरी विवशता पछाड़े खा रही है।”
“हा..हा… एक रूप में विवशता इस समय हमें भी सता रही है। जो ऐसे ही बरसता रहा तो हम सबेरे राजापुर कैसे पहुँच सकेगें रामू ?
“राम जी कृपालु हे प्रभु। राजापुर अब अधिक दूर भी नही है। हो सकता है, चलने के समय तक पानी रुक जाय।”
तीसरे स्वर की बात सच्ची सिद्ध हुई। घड़ी भर में ही बरखा थम गई। अँधेरे में तीन आकृतियाँ मन्दिर से बाहर निकलकर चल पड़ीं।
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मैना कहारिन सवेरे जब टहल सेवा के लिए आई तो पहले कुछ देर तक द्वारे की कुण्डी खटखटाती रही, सोचा नित्य की तरह भीतर से अर्गल लगी होगी फिर औंचक में हाथ का तनिक सा दबाव पड़ा तो देखा कि किवाड़े उढ़के भर थे। भीतर गई, ‘दादी-दादी’ पुकारा, रसोई वाले दालान में ताका, रहने वाले कोठे मे देखा पर मैया कहीं भी न थी। मैना का मन ठनका। बाकी सारा घर तो अब धीरे-धीरे खण्डहर हो चला है और कहाँ देखे।पुकारने से भी तो नही बोली। कहाँ गईं? मैना ने एक बार सारा घर छानने की ठानी, तब देखा कि रत्नावली ऊपरवाले अर्ध-खण्डहर कमरे में अचेत पड़ी तप रही है।
मैना दौड़ी-दौड़ी श्यामो की बुआ के घर गई। श्यामो बरसों पहले अपने घर- बार की होकर दूसरे गाँव गई, श्यामो के पिता भी पत्नी के मरने और उसके हाथ पीले करने के उपरांत कई बरसों से संन्यासी होकर चित्रकूट में गाजा पिया करते हैं, पर उनकी विधवा बहन अब तक गाँव में श्यामों की बुआ के नाम से ही सरनाम है। सोमवशी ठाकुर है पर धरमसोध में गाँव की बड़ी-बड़ी ब्राह्मणियों के भी कान काटती है। ७५ वर्ष के लगभग आयु है और रतना मैया को भौजी कहती है, उन्हें अपना गुरु मानती है।
“अरे बुआ, गजब हुई गवाह । दादी तो चली।”
“हाय-हाय, का कहती हौ मैनो। अरे कल तिसरे पहर तो हम उन्हे अच्छी भली छोड़ के आये रहे।
“कुछ पूछौ ना बुआ, एकदम अचेत पड़ी हे, लक्कड जैसी सुलग रही है। राम जाने ऊपर खण्डहरे में का करे गई रही। वही पड़ी है।’
“अरे तौ हम बूढी- बूढ़ी अकेले क्या कर सकेगीं। गनपती के बड़कऊ और मुल्लर हीरन को लपक के बुलाय लाओ। हम सीधे भौजी के घरे जाती हैं।
बादल करीब-करीब छँट चुके थे परन्तु सूर्य नारायण का रथ अभी आकाश भाग पर नहीं चढ़ा था।
रतना मैया की बहिर्चेतना लुप्तप्राय हो गई थी। साँसें उल्टी चल रही थीं।श्यामो की बुआ ने मैया की दशा देखकर मैना को नीचे के कमरे मे फटाफट गोबर से लीपने का आदेश दिया और आप द्वारे पे जाके आसपास के बन्द-खुले द्वारों की ओर मुँह करके गोहारने लगी- “अरे, गतपती की बहू, रमधनिया की अम्मा, अरी बतासो, अरे जल्दी-जल्दी आओ सब जनी। भौजी को धरती पर लेने का बखत आय गया।”
“हैं ये क्या कहती हो स्यामों की बुआ?अरे कल तो अच्छी भली रही।सुमेरू की अम्मा, मुल्लर की महतारी, बतासो काकी देखते-देखते ही अपने-अपने द्वारे पर आके हाल चाल पूछने लगीं, पर आने के नाम पर बाबा और मैया के पुराने शिष्य गणपति उपाध्याय की पत्नी, उनकी बड़ी पत्तोहू और रामधन की अम्मां को छोड़कर और कोई न आया। किसी की झाड़ू-बुहारू अभी बाकी थी, किसी की जिठानी अभी जमना जी से नहीं लौटी थी। औरतें अपने-अपने घरों में सबेरा शुरू कर रहीं थीं। घर गिरस्ती के नाना जंजालो का मकड़जाल बुनने का यही तो समय था। अभी से चली जायें और मैया सुरग सिघारे तो उनकी मिट्टी उठने तक छूतछात के मारे घर के सारे काम ही अटके पड़ें रहेगें। फिर भी इतनी स्त्रियाँ तो आ ही गईं। उन्होनें और श्यामो की बुआ ने मिलकर मैया को ऊपर से उतारा और गोबर-लिपी धरती पर लाकर लिटा दिया। राम-राम सीताराम की रटन आरभ हो गई।
थोड़ी ही देर मे कुछ मरद मानुस आ पहुँचे।अंतिम क्षण की बाट में मैया के जीवन वृत्त का लेखा-जोखा चार जनों की जवानों के बहीखातों पर चढ़ने लगा।
“बड़ी तपस्या किहिन विचारी।”
“हम जानी, साठ-पैसठ बरिस तो हो गए होगे बाबा को घर छोड़े।”
“अरे जादा, तीन बीसी और पाँच वरिस की तौ हमारी ही उमिर हुई गई।सम्बत् १४ में भये रहेन हम। उसके पाँच- सात बरिस पहले बाबा ने घर छोड़ा रहा।हम तौ कहते है कि ऐसी धरमपतनी सबको मिले। औरो की तो फंसाय देती है पर दादी ने तो बाबा की बिगड़ी बनाय दी। हमरी जान मे अब गावँ में बाबा की उमिर के ….”
“काहे, बकरीदी बाबा और रजिया बाबा हैं। बकरीदी बाबा बताते तो है कि बाबा से चार दिन बड़े हैं और राजा अहिर इनसे एक दिन छोटे हैं।”
“रजिया कक्का, बकरीदी चच्चा हम जानी सौ बरस के तो जरूर होयगें।”
“नाहीं, बप्पा से दस वरिस बड़े हैं। अरे बुआ, क्या हाल है दादी का? ”
“बैसने परी है अबहीं तो। बोल वोल तौ पहले ही बन्द होइ चुका है। जाने काहे मां प्राण अटके है।”
“कुछ भी कहौ, बाकी एक पाप तो इनसे भया ही भया। पति देवता से कुवचन बोलीं, तौन वह घर से निकरि गए।”
“राम-राम, अनाड़ी जैसी बात ….”
अचानक बकरीदी दर्जी का छोटा बेटा बूढ़ा रमजानी दौड़ता हुआ आता दिखलाई दिया। निठल्ले शास्त्रार्थ में कौतूहलवश विघ्न पड़ा।
क्रमशः
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी
भाग -2
६१-६२ वर्ष के बूढ़े रमजानी का दौड़ना आश्चर्यकारी था। दूर से ही बोला- “ककुआ ककुआ होसियार। बाबा आय रहे हैं।”
“अरे कौन बाबा”
“गुसाँई बाबा ! गुसाँई बाबा ! अरे अपनी रतना काकी के……”
दो शिष्यों , राजा अहिर, अपने जवान पोते की पीठ पर लदे बकरीदी दर्जी, शिवदीन दुबे, नन्हकू, मनकू आदि गाँव के कई लोगों के साथ गोस्वामी तुलसीदास जी धीरे-धीरे आ रहे थे। बाबा के शिष्यों में से एक राम द्विवेदी उनके साथ काशी से आया था। उसकी आयु तीस-बत्तीस के लगभग थी। दूसरे शिष्य वाराह क्षेत्र निवासी एक संत जी थे। आजानुबाहु, चमकते सोने-सी पीत देह, लम्बी सुतवां नाक, उभरी ठोड़ी, पतले होठ, सिर ओर चेहरे के बाल घुटे हुए, माथे, बाहों और छाती पर वैष्णव तिलक था।काया कृश होने पर भी व्यायाम से तनी हुईं भव्य लगती थी। लगता था मानों मनुष्यों के समाज में कोई देवजाति का पुरुष आ गया है। बायें हाथ मे कमण्डलु, दाहिनें हाथ मे लाठी, गले मे जनेऊ और तुलसी की मालायें पड़ी थीं। वे जवानों की तरह से तनकर चल रहे थे।
“भैया तुम बहुत झटक गए हो। कैसा राजा इन्नर-सा सरीर रहा तुम्हारा” – सत-गृहस्थ राजा जो बाबा से आयु में केवल एक दिन छोटे पर स्वस्थकाय थे, स्नेह से बाबा को देखकर बोले।
बाबा ने कहा- “पिछले आठ नौ बरसों से वात रोग ने हमको ग्रस लिया है। बाहँ मे पीड़ा हुई, फिर सारे शरीर मे होने लगी। बस हनुमान जी और व्यायाम ही जिला रहे है हमको। बाकी बकरीदी भैया से हम बहुत तगड़े है। चार ही दिन तो बड़े है हमसे और तुम्हारा जी चाहे तो तुम भी हमसे पंजा लड़ाय लेव राजा।”
एक हँसी की लहर दौड़ गई। उसी समय अपने घर से मुगटा पहने बाबा के पुराने शिष्य, अड़सठ-उनहत्तर वर्षीय पण्डित गणपत्ति उपाध्याय नंगे पैरों दौड़ते हुए आए, भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया।बाबा ने पहचानकर गले लगाया। गणपति ने रतना मैया की गम्भीर दशा बतलाकर बाबा के अचानक आगमन को चमत्कारी बखाना।
बाबा कहने लगे- “जेठ महीने में ही हम वाराह क्षेत्र में आ गए थे। चातुर्मास वहीं बिताने का विचार था परन्तु कुछ दिन पहले हमे स्वप्न से हनुमान जी से ऐसी प्रेरणा मिली कि राजापुर होते हुए हम चित्रकूट जाएँ और वही चातुर्मास पूरा करे।”
राजा प्रेम से उन्हें एक बाँह मे भरकर बोले-“अरे अब भगवान ने तुमको अंतरजामी बनाय दिया है। वहुत ऊंची तपस्या भी किए हो।”
श्यामों की बुआ देखते ही ‘अरे मोर भैया’ कहकर पुक्का फाड़कर रोती हुई दौड़ी और कहा-‘भौजी के परान बस तुमरे बदे अटके हैं” फिर उनके पैरों पर गिरकर और जोर-जोर से रोने लगी।
वृद्ध संत ने उनके सिर पर दो बार हाथ थपथपाया और राम-राम कहा। रतना मैया के मरने की बाट जोहते खड़े हुए बूढ़ों, अधेड़ों और लड़कों ने बाबा के चरण छूने मे होड़ लगा दी। अगल-बगल के घरों की औरतें चुटकी से घूघँट थामे एक आखँ से उन्हें देखने लगीं ! बच्चों की भीड़ भी बढ़ आई। श्यामो की बुआ गरजी-“चलौ, हटौ, रस्ता देव। पहले भौजी से मिले देव, जिनके परान इनके दरसन में अटके हैं।”
परम संत महाकवि गोस्वामी तुलसीदास उनसठ वर्षो के बाद अपने घर की देहरी पर चढ़ रहे थे। उनका सौम्य शातं तेजस्वी मुख इस समय अपने औसत से कुछ अधिक गम्भीर था। उनके पीछे भीड़ भी भीतर आने लगी। चेहरे पर भीनी मुस्कान के साथ उनका कमण्डलुवाला हाथ ऊपर उठा, अगूँठे और तर्जनी के घेरे में कमण्डलु अटका था और तीन उँगलियाँ ठहरने का आदेश देते हुए खड़ी थीं। बाहरवालों ने एक-दूसरे को पीछे ढकेला। बाबा अकेले अन्दर गए। वही दहलीज, वही दालान, आँगन के पारवाली कोठरियों और दालान का अधिकाशँ भाग अब ईंटों का ढेर बना था। जगह-जगह बरसाती घास और वनस्पति उग रही थी। पर बाबा का मन इस समय कहीं भी न गया। ध्यान: मग्न सिर झुकाए हुए उन्होनें दालान मे प्रवेश किया। मैना हाथ जोड़कर झुकी और उनके चरणों के आगे भूमि पर सिर नवाया, फिर कहना चाहा कि इसी कमरे में है, किन्तु मुँह से बोल न फूट सके, केवल हाथ के संकेत से कमरा दिखला दिया।इसी बैठक वाले कमरे में कथा वाचस्पति पण्डित तुलसीदास शास्त्री ने अपने ग्राहस्थिक जीवन में अध्ययन और शास्त्रार्थ से भरे पूरे नौ वर्ष बिताए थे। कमरे के भीतर जाकर ताजी लिपी भूमि पर निश्चेष्ट पड़ी हुई पत्नी को देखा, फिर बाबा ने किवाड़ों को थोड़ा उढ़काकर मानों मैना को भीतर न आने के लिए कहा। दाहिनी ओर चौकी पर रामचरितमानस का बस्ता रखा था। उस पर बासी फूल रखे हुये थे।आले में मोटे बत्तेवाला दिया जल रहा था। पहले
बाबा एक क्षण तक खड़े रहे, फिर पत्नी के सिरहाने बैठ गए।छाती के बीच में प्राणों की धुकधुकी खरगोश की कुलाचों सी रुक- रूक कर चल रही थी।चेहरा शांत किन्तु कुछ-कुछ पीड़ित भी था। बाबा ने अपने कमण्डलु से जल लेकर मैया के मुख पर छींटा दिया। उनके सिर पर हाथ फेरकर, उनके कान के पास अपना मुख ले जाकर उन्होंने पुकारा-“रतन” चेहरे पर हल्का-सा कम्पन आया पर आंखें न खुली। फिर पुकारा-“रतन”
लगा कि मानों कमल खिलने के लिए अपने भीतर से संघर्ष कर रहा हो। बाबा ने राम-राम बुदबुदाते हुए उनकी दोनों आखों पर अँगूठा फेरा। मैया की आँखें खुलने लगीं। पुतलियाँ दृष्टि के लिए भटकी, फिर स्थिर हुई फिर क्रमश, चमकने लगीं। मुरझाया मुख-कमल अपनी शक्ति भर खिल उठा। होठों पर मुस्कान की रेखा खिच आई। शरीर उठना चाहता है किन्तु अशक्त है। होंठ कुछ कहने के लिए फड़कने का निर्बल प्रयत्न कर रहे हैं किन्तु बोल नहीं फूट पाते। केवल चार आँखे एक-दूसरे में टकटकी बाँधें बड़ी सजीव हो उठीं हैं । पति की आँखों में अपार शांति और प्रेम तथा पत्नी की आँखों में आनन्द और पूर्ण कामत्व का अपार संतोष भरा है।
“राम-राम कहो रतना ! सीताराम-सीताराम”
होठों ने फिर फड़कना आरम्भ किया। कलेजे की प्राण कुलाचें कण्ठ तक आ गईं।
“सीताराम ! सीताराम ! ” बाबा के साथ-साथ मैया के कण्ठ से भी क्षीण अस्फुट ध्वनि निकली।बोलने के लिए जीव का संघर्ष और बढ़ा।
क्रमशः
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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Author: admin
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