!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( चतुर्थोध्याय: )
गतांक से आगे –
निमाई , निमाई , निमाई , “ तेरे बड़े भाई विश्वरूप घर से भाग गये “।
एक छोटा बालक जो निमाई घर के पास ही रहता था ….वही भागते हुये आया और निमाई को गंगा घाट में आकर सूचना दे दिया । गंगा घाट में जितनी महिलायें थीं और छोटी छोटी बच्चियाँ थीं …सब दुखी हो निमाई की ओर देखने लगी थीं । विष्णुप्रिया को सबसे ज़्यादा दुःख हुआ था ….क्यों की उसका निमाई दुःख से कातर हो उठा था ।
कितना सुन्दर , कितना ज्ञानी बालक था विश्वरूप …..तुमने तो देखा ही होगा ….हाँ हाँ , पण्डित जगन्नाथ जी के साथ चलता तो था ….लम्बा , गौर वर्ण ….किसी से ज़्यादा बोलता भी नही था ….विष्णुप्रिया निमाई के ही बगल में आकर खड़ी हो गयी थी ….निमाई के सजल नेत्र इसने कभी देखे नही थे ….बस ऊधम और चंचलता ही विष्णुप्रिया ने देखी थी…..पर “बड़े भाई विश्वरूप घर से भाग गये “? अब अश्रु टपकने वाले थे निमाई के ….कि विष्णुप्रिया ने निमाई के हाथ को पकड़ लिया ….मानों वो कहना चाह रही थी ….मैं तुम्हारे दुःख में साथ हूँ । तभी विष्णुप्रिया की माता गंगा घाट पर आगयीं ….विष्णुप्रिया ने निमाई का हाथ छोड़ दिया ……माता ने विष्णुप्रिया को कहा …अब चलो , ब्राह्मण की कन्या हो कुछ पढ़ोगी या नही ? या दिन भर गंगा में ही खेलते रहना है …..चलो , हाथ पकड़कर खींचते हुये प्रिया को उनकी माता ले गयीं थीं ….निमाई को वो देखती गयी थी …..निमाई को देखते हुये उसको रोना आरहा था ….निमाई दुखी है ये बात भी सह्य नही थी विष्णुप्रिया को । वो एक बार चिल्लाकर बोली ….”कल गंगा घाट में आऊँगी” …..माता ने पूछा …किसको कह रही हो …उस निमाई को ? प्रिया ने कहा …नही …अपनी सखी को । निमाई अब वहाँ से घर की ओर चल दिया था ।
अद्वैताचार्य जी की पाठशाला में होनहार बालक था ये विश्वरूप ….पण्डित जगन्नाथ जी के पुत्र और निमाई के अग्रज …बड़े भाई …विश्वरूप । घर में निमाई पहुँचे …सब रो रहे हैं घर में ।
दादा , दादा , दादा …..
कहते थकता नही था निमाई ….और विश्वरूप भी तो अपने अनुज निमाई को कितना प्रेम करते थे ….कल की ही तो बात है ….माता शचि देवि ने निमाई से कहा था …जा अपने दादा विश्वरूप को बुला ला …ये सुबह जाता है और रात्रि होने तक पढ़ता ही रहता है ….कह …भात तैयार है …आजाए । छोटा सा निमाई गया था अपने दादा विश्वरूप को बुलाने ….पर अद्वैताचार्य जी ने जब निमाई को देखा ….उन्हें तो साक्षात् श्रीकृष्ण ही दिखाई दिये …नटखट कृष्ण । विश्वरूप ! ये कौन हैं ? निमाई को देखकर विश्वरूप ने उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया था ….ये मेरा छोटा भाई है …निमाई नाम है इसका । फिर अपने अनुज को चूमते हुये विश्वरूप बोले थे ….आप ये मत सोचना कि ….ये गम्भीर बालक है …शान्त है …ना , गुरुदेव ! ये इतना ऊधमी है आपकी कल्पना से परे है । दादा ! माँ ने बुलाया है … भात तैयार है …खाने चलो । निमाई ने अपने बड़े भाई के कान में धीरे से कहा । अच्छा गुरुदेव ! मैं चलता हूँ ….माँ बुला रही है । ठीक है अभी जाओ …पर कल विश्वरूप ! भर्तृहरि के इस श्लोक की व्याख्या लिखकर लाना ….और हाँ , मुझे पता है तुम सबसे अच्छी व्याख्या लिखोगे । जी गुरुदेव ! विश्वरूप अपने छोटे भाई निमाई को लेकर निकल गये थे ।
घर जाकर दोनों ने भात खाया था …..पर रात्रि में ऐसा क्या हुआ ?
निमाई घर पहुँचा …..सब रो रहे हैं …..माता शचिदेवि का रो रो कर बुरा हाल है । पिता जगन्नाथ भी अश्रु पोंछ रहे हैं । पर पण्डित जी ये सब हुआ कैसे ? विश्वरूप ने सन्यास लेने की क्या पहले ही सोची थी ? पता नही ….पर वो गम्भीर पूर्व से ही था ….”वैराग्यशतक” उसको बड़ा प्रिय था ….हर समय वैराग्य की बातें ही करता रहता था …..पण्डित जगन्नाथ जी अपने लोगों को बता रहे थे । ये श्लोक रात में उसने लिखा था …और इस श्लोक की व्याख्या ….पढ़ो श्लोक …वही भर्तृहरि का श्लोक है ……..
“अरे ओ युवकों ! जब तक ये कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है , जब तक वृद्धावस्था तुमसे दूर है ….जब तक इंद्रियों की शक्ति कम नही हुई है ….तब तक आत्मकल्याण का प्रयत्न कर लो …इसी में तुम्हारी बुद्धिमानी है ….नही तो घर में आग लगने पर कोई कुआँ खोदने की सोचे तो , क्या ये मूर्खता नही है ?”
पण्डित जगन्नाथ रो रहे हैं …मेरा बेटा सन्यास लेने की बात करता था ….मैंने उसे एक दो बार समझाया भी …पर वो आज घर छोड़कर चला गया ।
निमाई दूर खड़ा है ….वो सब देख सुन रहा है …निमाई को देखते ही माँ शचि दौड़ी और निमाई को अपने हृदय से लगा लिया …निमाई कुछ नही बोल रहा …वो शान्त है आज परम शान्त ।
बोल तू , अपने दादा की तरह सन्यास नही लेगा न ! बोल तू , अपने बड़े भाई की तरह हमको छोड़कर नही जायेगा ना ! बोल निमाई बोल ! माता शचि झकझोर रही हैं निमाई को ….निमाई अब रोने लगा ….तो माता ने उसे अपने हृदय से चिपका लिया था ।
किसे देख रही है ….दो घण्टे होगये …..ज़्यादा नहाना उचित नही है …और वैसे भी अब ऋतु में परिवर्तन दिखाई दे रहा है ….चल विष्णुप्रिया ! चल ।
हाँ तो तुम लोग जाओ ….मैं आजाऊँगी । पर अब वो नही आयेगा ? एक सखी ने कहा । कौन ? कौन नही आयेगा ? विष्णुप्रिया को रोष आगया है ….वही तेरा निमाई …नही आयेगा ? तुझे बड़ा पता है ….ज्योतिषी है तू ….जो कह रही है नही आयेगा । विष्णुप्रिया ! उसके बडे भाई विश्वरूप ने सन्यास ले लिया है । विष्णुप्रिया सोचने लगीं , फिर बोलीं – पर कुछ दिन बाद तो आयेगा ना ? दुखी स्वर में पूछा । अब तो सुना है निमाई का यज्ञोपवीत संस्कार होने जा रहा है । फिर वो पढ़ाई में मन लगायेगा । अब कहाँ आयेगा वो निमाई । विष्णुप्रिया दुखी होकर गंगा जल से बाहर निकल आईं । और गीली साड़ी में ही कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठ गयीं ….कपोल में अपने हाथ रखकर ।
विष्णुप्रिया ! विष्णुप्रिया !
माता महामाया देवि अपनी पुत्री को खोजतीं हुईं गंगाघाट पर आगयीं थीं ।
हाँ , माँ ! विष्णुप्रिया उठी ……चलो अब घर ….तुम्हारी बहुत शिकायत आरही है …दिन भर गंगा में खेलते रहना ….चलो घर । कल से तुम्हारी पढ़ाई शुरू होगी । मेरी पढ़ाई ? विष्णुप्रिया ने पूछा …हाँ तुम्हारी पढ़ाई । विष्णुप्रिया कुछ सोचने लगीं फिर बोलीं ….माँ ! निमाई आज नही आया ! हाँ तो क्यों आयेगा …कल उसका यज्ञोपवीत है ….फिर पढ़ाई करेगा । विष्णुप्रिया ने पूछा ..आप जाओगी निमाई के यज्ञोपवीत में ? हाँ , बुलाया है तो भिक्षा देने तो जाना ही पड़ेगा ।
मैं भी जाऊँगी….विष्णुप्रिया तुरन्त बोली । कोई आवश्यकता नही है यज्ञोपवीत में जाने की …..अब घर बैठो और ब्राह्मण कन्या की तरह चुपचाप पढ़ाई करो …समझीं ! माँ आज विष्णुप्रिया की कोई बात नही मान रहीं थीं । अब इधर विष्णुप्रिया की घर में ही पढ़ाई शुरू हो गयी …..और उधर यज्ञोपवीत संस्कार निमाई का सम्पन्न हो गया ।
सुन्दर लग रहा था निमाई …छोटा सा …सिर मुड़ाकर …हाथ में भिक्षा पात्र …सुन्दर तो है निमाई ।
माँ महामाया देवि अपने पति सनातन मिश्र को रात्रि में उधर की बात बता रही थीं ……सनातन मिश्र जी तो सो गये थे ….पर विष्णुप्रिया सारी बातें प्रसन्नतापूर्वक सुनती जा रही थी ।
शेष कल –

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