!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तमोध्याय:)
गतांक से आगे –
अपनी धर्मपत्नी लक्ष्मी देवि को उनके पिता के घर में छोड़कर निमाई पूर्व बंगाल की यात्रा में चले गये थे । इनके साथ इनके विद्यार्थी भी थे ….जो बड़े उत्साहित थे । पूर्व बंगाल ( आधुनिक बांग्लादेश ) में भी निमाई के विद्वत्ता की चर्चा थी …वहाँ के कई विद्वानों ने अपने यहाँ आने का निमन्त्रण भी दिया था ….निमाई इसलिये भी पूर्व बंगाल की यात्रा में चल दिये थे ।
गुरु जी ! गम्भीर रहना …..नौका में बैठे एक शिष्य ने निमाई से कह दिया था ।
“क्यों , मैं कोई पत्थर की मूर्ति हूँ”….उन्मुक्त हंसते हुये निमाई बोले थे …उनके साथ अन्य शिष्य भी हंस पड़े थे । गंगा की एक धारा जो सागर में मिलती है और एक धारा पूर्व बंगाल में चली जाती है ….निमाई नौका में बैठे बैठे शीतल हवा का आनन्द ले रहे थे …उनके गौरांग देह से चादर हट गयी थी ….देह चमक रहा था …निमाई मुस्कुराते हुये गंगा की पवित्रतम हवा में झूम रहे थे ।
पूर्व बंगाल में निमाई का वहाँ के विद्वानों ने अभूतपूर्व स्वागत किया ….नवद्वीप से निमाई पण्डित आये हैं ….ये सुनते ही बड़े बड़े नैयायिक आकर उनसे चर्चा करने लगे …न्याय के सम्बन्ध में बातें करने लगे ….कोई कोई शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देता तो ये सहज भाव से उसे स्वीकार कर लेते …और देखते ही देखते वो निमाई के तर्क के आगे झुक जाता …..पर उस हारे विद्वान को निमाई अपमानित नही करते …उसे भी आदर सम्मान के साथ विदा करते ।
पूर्व बंगाल की यात्रा में पण्डित निमाई के व्याख्यान भी हुये …..इनको सुनने के लिए बड़े बड़े विद्वान आते थे …इनकी तार्किक क्षमता देखकर सब नतमस्तक हो जाते ।
एक दिन की बात – प्रातः की सुन्दर वेला थी …..निमाई स्नान करके अपना नित्य कर्म कर रहे थे …तभी सामने से एक वयोवृद्ध पण्डित आये ….वो भावुक थे …उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे …हाथ में लाठी लिये कांपते हुए वो आरहे थे ….निमाई उठकर खड़े हुये और जैसे ही उनसे कुछ पूछते ….उन वृद्ध पण्डित जी ने ही पूछा …क्या श्रीमान पण्डित निमाई हैं ? निमाई ने जैसे ही , हाँ , कहा …वो तो साष्टांग धरती में लेट गये ….उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाह तेज हो गये थे ….वो बिलख रहे थे ….निमाई के चरण छूने की उनकी जिद्द थी ….पर निमाई अपने चरण दे नही रहे थे ।
निमाई के शिष्यों ने देखा तो भीतर से वो सब भी आगये ….और प्रश्नवाचक दृष्टि से अपने गुरु निमाई को देखा …निमाई ने भी संकेत में ही उत्तर दिया ….पता नही । कुछ देर बाद वो वृद्ध पण्डित शान्त हुये तो उन्हें अपने साथ आसन में बैठाया । पर वो निमाई के साथ कैसे बैठ सकते थे । क्यों ? आप मेरे पिता तुल्य हैं आपको तो मैं उच्च आसन में बैठाऊँ वही उचित होता पर मेरे पास इस समय यही है …हे भगवन्! ये तो आपकी महिमा है …आप भगवान होकर भी मुझ अधम को अपना बना रहे हैं ।
वो वृद्ध ब्राह्मण अब हाथ जोड़कर अपनी गाथा सुनाने लगे थे…..
मैंने बहुत साधना की ….मुझे कुछ नही चाहिये था सिर्फ भगवान को प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य था …हे भगवन् ! मैंने शास्त्र अध्ययन किये मैंने उसमें पाया कि ब्रह्मचर्य की साधना से भगवान मिलते हैं ….उसके चलते मैंने ब्रह्मचर्य का पालन करना प्रारम्भ किया ..दस वर्षों तक साधना करता रहा …पर कोई लाभ मुझे मिला नही …अरे ! भगवान नही तो कमसे कम भगवत्साक्षात्कार से पूर्व की स्थिति तो बन जाती …नही बनी …तब मुझे किसी ने कहा ….अगर भगवान ब्रह्मचर्य से मिलता तो बड़े बड़े भक्त आदि तो ग्रहस्थ थे । मैंने इस साधना को त्याग दिया ….फिर मैंने तन्त्र की साधना की …..और वो साधना मैंने दस वर्षों तक लगातार किया ….बलि आदि भी मैंने भगवती को प्रदान किये ….पर कुछ नही हुआ । मैंने श्रीदुर्गासप्तशती की एक लक्ष आवृत्ति पूरी की…..पर भगवती के भी मुझे दर्शन नही हुए । तब मैं हताश निराश होकर बैठ गया …सारे साधनों को तिलांजलि देने की मैं सोच ही रहा था कि मेरे सामने साक्षात् भगवती दुर्गा प्रकट हो गयीं । उन वृद्धब्राह्मण की बातों को सब लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे ।
हे प्रभु ! मुझे भगवती दुर्गा ने वर माँगने को कहा …तो मैंने उनसे हाथ जोड़कर विनती की कि मुझे भगवत्साक्षात्कार करा दीजिये …तब भगवती दुर्गा मुझे शान्त भाव से देखने लगीं ….फिर सहज बोलीं – साक्षात् नारायण स्वरूप पण्डित निमाई नवद्वीप से आरहे हैं ….आप उनके दर्शन करना और ये प्रश्न उन्हीं से करना …वो सहज में समाधान कर देंगे । इतना कहकर भगवती मेरे सामने से अन्तर्ध्यान हो गयीं । ये बात है एक वर्ष पूर्व की …तब से मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ …कि आप यहाँ पधारें और मेरी चिन्ता को मिटायें । भगवती ने मुझे ये भी कहा था कि उन्हीं से तुम्हें साध्य की प्राप्ति होगी । वो परम साध्य तुम्हें किस साधना से प्राप्त होगा ये भी वही बतायेंगे । इतना कहकर वृद्ध मौन हो गये और चातक की तरह निमाई के मुख रूपी स्वाति बूँद के झरने की प्रतीक्षा करने लगे थे । निमाई के शिष्य भी बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे कि निमाई क्या कहेंगे ! आस पास के विद्वान भी वहाँ आगये …वो भी निमाई को सुनना चाहते थे ।
पण्डित निमाई ने उन वृद्ध पण्डित की ओर देखा ….और बोले – हे ब्राह्मण देव ! सत्य ये है कि सतयुग में ध्यान की महिमा थी …लोग अपने हृदय में ही भगवान विष्णु का ध्यान करते और उन्हें पा लेते …..उस युग के लिए ये सहज था ।
निमाई की मधुर बोली सबको मन्त्र मुग्ध कर रही थी …..निमाई के शिष्य सोच रहे थे कि निमाई वैष्णवता की खिल्ली उड़ाते रहते हैं …..तर्क से वैष्णव सिद्धान्त को काट देते हैं ….पर यहाँ ये क्या कहेंगे ?
सतयुग में ध्यान की महिमा थी …..त्रेता युग में …यज्ञ आदि से लोग भगवान को पा लेते थे ….द्वापर में पूजा आराधना आदि से भगवान की उपासना लोग करते थे ….पर कलियुग में ! पण्डित निमाई के नेत्र सजल हो गये …उन्होंने ऊपर आकाश में देखा …फिर लम्बी स्वाँस लेते हुये बोले ….हरि नाम । क्या ? क्या कहा आपने ? ये प्रश्न सबने पूछा था ….उन वृद्ध पण्डित जी ने तो पूछा ही …निमाई के शिष्यों ने भी पूछा ।
आगे वाणी अवरुद्ध हो गयी निमाई की …..जल नेत्रों से बरसने लगे …..हरि नाम । हरिनाम के सिवाय और कोई उपाय इस कलियुग में नही है । भगवान वश में हो जाते उसके जो उसके नाम को पुकारता है …भगवान उसके संग संग फिरते हैं जो उनके नाम का उच्च स्वर से गान करते हैं । भगवान उसका तो कभी पीछा छोड़ते ही नही …जो रोते हुये …नेत्रों से अश्रु बहाते हुये …..हरि बोल …कहता है । उसका नाम लेता है …निमाई रो पड़े थे ….उनके नेत्रों से अब अश्रुप्रवाह चल पड़े …वो उठ कर दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर …हरि बोल …हरि बोल …कहने लगे थे ।
निमाई की ये स्थिति शिष्यों के लिये नई थी …..इन्होंने तार्किक निमाई को देखा था….पर इस तरह भावना में बहने वाले निमाई से इनका कोई परिचय नही था । तर्क के माध्यम से बड़े बड़े विद्वानों की धज्जियाँ उड़ाने वाले ये पण्डित निमाई ही थे ? सब लोग चकित थे । मैं कह रहा हूँ …मैं कह रहा हूँ ….मैं गायत्री सावित्री को साक्षी मानकर कह रहा हूँ …..हरि नाम से श्रेष्ठ साधना और कोई नही है …..भगवान व्यास देव ने स्वयं कहा है …मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि हरि नाम के सिवा कलियुग में कोई दूसरी गति नही है ….नही है ……नही है । ये कहते हुये निमाई हिलकियों से रो रहे थे …इनको रोता देख अन्य सब शिष्य भी रोने लगे ।
शिष्यों ने और उन वृद्ध पण्डित जी ने देखा कि निमाई के रोम रोम से हरि नाम फूट रहा था । पर अब ये क्या हुआ ! निमाई हाथ जोड़ने लगे थे ….मेरी बात मानों ….हरिनाम से बड़ा कुछ नही है ….इसलिये सब इसी का आश्रय लो ….निमाई का ये रूप देखकर सब चकित थे ।
फिर निमाई आगे बोले …….
ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का दिव्य महामन्त्र है …..इसका ही निरन्तर जाप करने से साध्य प्रकट हो जायेगा ……फिर निमाई हंसे ….साध्य क्या ? हरि नाम का जिह्वा में आना ही साध्य की प्राप्ति है । इतना कहकर भावावेश में निमाई मूर्छित हो गये थे । शिष्यों ने इन्हें सम्भाला ….निमाई भीतर से इतने प्रेमी है ! शिष्यों के मन में निमाई के प्रति और पूज्यभाव बढ़ गया था । पर वो वृद्ध ब्राह्मण ….वो तो नाचने लगा ….हरि बोल …हरि बोल….महामन्त्र का उच्चारण करते हुये वो उन्मत्त हो रहा था । कुछ देर में निमाई ने अपने नेत्र खोले …और अश्रु भरे नेत्रों से मुस्कुराते बोले – ब्राह्मण देवता ! काशी जाओ , मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा । वो वृद्ध ब्राह्मण उसी क्षण निमाई को प्रणाम करते हुये काशी चला गया था । निमाई ने अब पूर्व बंगाल की यात्रा यहीं स्थगित की और नवद्वीप के लिए निकल गये थे ।
“आज निमाई नवद्वीप आ रहा है”। गंगा घाट में कोई महिला दूसरी को कह रही थी ।
विष्णुप्रिया सुन रही है ।
पता है पूर्व बंगाल में भी निमाई ने अपनी विद्वत्ता से सबको मोहित कर दिया ….पूरा पूर्व बंगाल पागल हो गया निमाई के पीछे । विष्णुप्रिया सुन रही है ….ये यही सुनने तो आती है ।
अरी सुना , तूने सुना , एक महिला आई और घाट में बैठी सभी को कहने लगी …विष्णुप्रिया ने भी मुड़कर देखा उसकी ओर ….क्या हुआ ? शचि देवि की बहु लक्ष्मी को सर्प काट गया । ये सुनते ही विष्णुप्रिया को निमाई का मुखचन्द्र स्मरण हो आया , ओह ! लक्ष्मी को कुछ हो गया तो मेरे निमाई दुखी हो जायेंगे ! विष्णुप्रिया के नेत्रों से अश्रु बहने लगे …..तभी एक महिला और आई ….तुझे पता ही नही है ….वैद्य जी के पास ले गये लक्ष्मी को …पर वैद्य जी ने कह दिया …इसके तो प्राण निकल गये ।
निमाई की पत्नी लक्ष्मी मर गयीं ? ये सुनते ही विष्णुप्रिया रोते हुये अपने घर की ओर भागी ….माता महामाया ने पूछा क्या हुआ प्रिया ? पर अपने कक्ष में जाकर विष्णुप्रिया ने कपाट लगा दिया ….और रोने लगी …हिलकियों से रोने लगी ….मेरे प्यारे निमाई को कष्ट ही कष्ट है । ओह ! निमाई आरहे हैं वो जब सुनेंगे उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया तब उनकी क्या स्थिति होगी ! माता शचि ने कितने कितने सपने सजाये थे ….विष्णुप्रिया यही सब सोचते हुये रोती रही ।
शेष कल –

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