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November 21, 2024 12:28 pm

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!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-!! अष्टमोध्याय: !! : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-!! अष्टमोध्याय: !! : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!

!! अष्टमोध्याय: !!

गतांक से आगे –

माँ ! माँ ! निमाई अपने घर आगये थे । और अपनी माँ को पुकार रहे थे ।

माँ शचि ने भी जब सुना मेरा निमाई आगया है ..तो वो भीतर से दौड़ पड़ीं ..मृत देह में मानों किसी ने अमृत बरसा दिया हो, ऐसा लगा । माँ शचि दौड़ीं और अपने पुत्र निमाई को हृदय से लगा लिया । रोने लगीं ….इतने दिनों का गुबार आँखों से बह गया था । निमाई ने चरण वन्दन करते हुये कहा …माँ ! कुछ दिन की यात्रा में गया था पर समय ज़्यादा लग गया , तुम को कष्ट हुआ होगा ना ! मुझे क्षमा कर माँ ! निमाई के मुख से ये सुनते ही माता हिलकियों से रो पड़ीं ….मेरा क्या है निमाई ! पर बेचारी लक्ष्मी मेरी बहु …अन्तिम क्षण तक तुझे ही पूछ रही थी ।

वो स्वस्थ तो है ना ? निमाई ने इतना ही पूछा था कि ….निमाई ! मेरी बहु लक्ष्मी को क्रूर काल ने अपना ग्रास बना लिया ….वो बेचारी तुझे ही पूछती रही ….वो बेचारी तुझे अन्तिम क्षणों में अपने पास देखना चाहती थी ….ये कहते हुये दहाड़ मारकर गिर पड़ीं माँ शचि ।

सिर चकराने लगा निमाई का …उनके आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा ….क्या ! लक्ष्मी का स्वर्गवास हो गया ? निमाई के नेत्र सजल हो उठे थे ….पर उन्होंने घर की स्थिति देखी …माँ को मूर्छित देखा तो निमाई ने अपने आपको सम्भाल लिया ।

जल का छींटा देकर जगाया ….फिर माता को समझाने लगे ….”काल के आगे किसकी चली है माँ ! जो लिखा जा चुका है उसे कौन मिटा सका है , कौन मिटा पाया है “ । इस तरह निमाई ने अपनी माँ को सान्त्वना दिया ….माँ ने भात बनाकर खिलाया फिर अपने निमाई के लिए बिस्तर लगा दिया ….निमाई थके थे ….कुछ ही देर में वो सो गये । माँ शचि ने आकर देखा …निमाई गहरी नींद में सो रहा है ..वो सिरहाने बैठीं ….नेत्रों से अश्रु बह चले …अभी तो इसकी युवावस्था भी पूर्णरूप से नही आई । हे विधाता ! मेरे पुत्र के भाग्य में ये क्या लिख दिया तुमने । अब कौन कन्या इसे मिलेगी । इस तरह प्रलाप करते हुये माँशचि ने पूरी रात बिता दी थी ।


पूरा नवद्वीप आज दुखी है …..नवद्वीप का विद्वत्समाज आज विशेष असहज अनुभव कर रहा है ।

क्या हुआ ऐसा ? विष्णुप्रिया ने अपने पिता जी से पूछा ।

सनातन मिश्र जी ने कहा …पुत्री ! एक दिग्विजयी पण्डित कश्मीर से आया है ….उसे किसी ने बताया होगा नवद्वीप का नाम ….क्यों की सम्पूर्ण भारत में विद्या के केन्द्र के रूप में नवद्वीप का नाम लोग जानने लगे हैं ….इसलिये ये दिग्विजयी पण्डित हम सबको पराजित करने के उद्देश्य से आया है …बेटी ! हम पराजित हो जायें ….कोई बात नही …पर नवद्वीप का नाम डूब जायेगा …जो हमारे लिए अच्छा नही है ।

ये दिग्विजयी क्यों आया है ? विष्णुप्रिया मासूमियत से पूछती है। । शास्त्रार्थ करके हमें पराजित करने के लिये …..पिता जी ! इनको इससे क्या मिलता है ? पुत्री ! इनके पीछे बड़े बड़े राजा और धनिक लोगों की चाल छुपी होती है …ये अपने क्षेत्र को ऊँचा करने के लिये दूसरे क्षेत्र को कमतर करने का प्रयास करते हैं जिसमें ये पाण्डित्य को अपने साथ रखते हैं । पाण्डित्य के कारण शास्त्रार्थ करवाकर दूसरे को पराजित करते हैं । पिता सनातन मिश्र से ये सुनकर विष्णुप्रिया कुछ सोचने लगीं । पिता जी ! क्या नवद्वीप में कोई ऐसा विद्वान नही हैं जो इस दिग्विजयी का सामना कर सके ? विष्णु प्रिया ने कुछ सोचकर पूछा । हैं , पर पुत्री ! विद्वत्ता ही पर्याप्त नही होती …शास्त्रार्थ में वाक्चातुरी की भी आवश्यकता पड़ती है । तो पिता जी ! आपको क्या लगता है नवद्वीप में ऐसा कौन है जो इस दिग्विजयी से सामना कर सके । लम्बी साँस लेकर सनातन मिश्र बोले …मुझे तो एक ही व्यक्ति लगता है …कौन पिता जी ? निमाई । पण्डित निमाई । विष्णुप्रिया ने जैसे ही अपने पिता के मुख से ये नाम सुना ….सरसता उनके हृदय में घुलती चली गयी ।


निमाई ! तुमने सुना , निमाई !

निमाई के शिष्य और विद्वान सब निमाई के पास आगये थे ।

हाँ , क्या बात है ? निमाई ने पूछा । बैठ के बात करते हैं ना …तो चलो गंगा घाट …मैं गंगा स्नान के लिए ही जा रहा हूँ …निमाई सबको लेकर गंगा घाट पहुँच गये थे । ऊपर की चादर हटाई , सरसों का तेल निकाला और अपने शरीर में लगाने लगे …हाँ , अब बोलिये क्या बात है । सब विद्वान एक स्वर में बोले ….”कश्मीर से कोई दिग्विजयी आया है”…तो आने दो …हम भी दिग्विजयी जी का भाषण सुनेंगे । निमाई ने देह में तेल मर्दन करते हुये कहा । पर निमाई पण्डित ! वो शास्त्रार्थ करने आया है । नवद्वीप को हराने आया है ।
तुम कुछ करो निमाई ! सब लोग विनती के स्वर में बोलने लगे ।

निमाई ने कहा – नवद्वीप में और भी विद्वान हैं अकेला निमाई ही थोड़े है ? पर तुम ही हमारी लाज बचा सकते हो । एक वृद्ध विद्वान ने आगे आकर कहा ।

विष्णुप्रिया उसी समय गंगाघाट आगयीं थीं …कई दिनों बाद इन्होंने अपने निमाई को देखा था ….पर विद्वान और अपने से मान्य जनों को देखा तो पीछे ही बैठ गयीं । अपने गौर शरीर में अभी भी तैल मर्दन ही कर रहे थे निमाई ।

ये काम तो हम चुटकी में ही कर सकते हैं …..उन्मुक्त हंसी हंस दिये निमाई ।

“कश्मीर राज्य के विद्वान दिग्विजयी पण्डित श्रीकेशव शास्त्री जी गंगा स्नान को पधार रहे हैं “।

दो सेवक आये ….जो घोड़े में बैठकर आये थे …उन्होंने आकर ये सूचना दी । निमाई ने गंगा में डुबकी लगाई …और बाहर निकलते हुये विद्वानों को बोले – आप कहें तो दिग्विजयी को यहीं देख लें ।

तभी दिग्विजयी अपने चार शिष्यों के साथ गंगा स्नान को आये …..गंगा घाट पर सब थे ही .. सबकी अब दृष्टि दिग्विजयी पर टिक गयी थी । दिग्विजयी ने गंगा स्नान किया ….और किनारे आकर बैठ गये । विष्णुप्रिया देख रही हैं ….उनकी दृष्टि तो निमाई से हटती ही नही ।

निमाई स्नान कर चुके थे ….वो दिग्विजयी के पास आये और प्रणाम किया …प्रसन्न रहो …इतना ही बोले दिग्विजयी , निमाई वहीं शान्ति से बैठ गये ।

मैं पण्डित निमाई । निमाई ने अपना परिचय दिया । नाम सुनते ही दिग्विजयी चौंके …ओह ! तुम हो निमाई ? निमाई का नाम दिग्विजयी ने भी सुन रखा था । जी , आपका दास हूँ ….निमाई ने भी कह दिया ।

हूँ …न्याय के विद्वान हो ? जी , आपके सामने तो बालक ही हूँ । निमाई की नम्रता देखकर दिग्विजयी गदगद हो रहे थे । उन्हें लग रहा था यही है जो मुझे हरा सकता है ? इसी के बल पर नवद्वीप वाले मुझ से भिड़ेंगे ! शास्त्रार्थ करेंगे ?

कुछ सुनाइये ! निमाई ने कुछ देर बाद कहा ।

हंसा दिग्विजयी ….क्या सुनना है ? तुम न्याय के विद्यार्थी क्या सुनोगे ?

ऐसी बात नही है …काव्य से भी हमें प्रेम है …..निमाई ने नम्रता का ही प्रदर्शन किया ।

आप हमें …पतितपावनी गंगा मैया के ऊपर कुछ सुनाइये ।

ओह ! गंगा , सुरसरी , विष्णुपदी , जाह्नवी …..ये पृथ्वी की पुज्या नही तीनों लोकों की पूज्य हैं …..निमाई हाथ जोड़कर – “जी जी” कह रहे हैं । चारों ओर लोग हैं ….जो निमाई और दिग्विजयी का ये संवाद बड़े ध्यान से सुन रहे हैं …विष्णुप्रिया भी इन सबमें मुख्य है ।

नये कविता सुनाऊँगा ….अभी अभी रचना करके …और दिग्विजयी ने सुनाना प्रारम्भ किया ….वो बोलते गए ….वो गाते गये ..अपनी नई रचना के साथ वो बहते गये ..क़रीब सौ श्लोक उन्होंने सुना दिये थे ।

अब कुछ श्लोक की व्याख्या हो जाये ! निमाई ने रूखे शब्दों में कहा ।

दिग्विजयी बोला – किस श्लोक की व्याख्या ? ये कहते हुये दिग्विजयी हंसा …क्यों की सम्पूर्ण सौ श्लोकों की व्याख्या तो सम्भव नही है …अब जिसकी व्याख्या सुननी हो वो श्लोक सुनाये …श्लोक सुनाना सम्भव नही है …क्यों कि सारे श्लोक नवीन हैं …अभी रचित हैं । निमाई कुछ नही बोले ….तो दिग्विजयी ने कहा …अभी तुम बालक हो …जाओ ।

आँखें बन्दकर के निमाई ने सौ श्लोकों में से एक श्लोक सुना दिया ……और कहा – हे प्रभु ! इसमें श्लोक का गुण दोष बताइये । विष्णुप्रिया ने प्रसन्न होकर ताली बजाई ….दिग्विजयी ने मुड़कर देखा तो विष्णुप्रिया दीखी ….वो संकोच कर रही थीं अब ।

निमाई ! भई सच में तुम्हारी मेधा को देखकर हम बहुत प्रभावित हो गये …..स्मृति तुम्हारी अद्भुत है ….अब देखो दोष तो इसमें हैं हीं नहीं ….गुण हम बता देते हैं …..निमाई हंसे …..महाराज ! अपना बेटा तो सबको प्यारा लगता ही है । इस व्यंग ने दिग्विजयी को क्रोधित कर दिया …तुम क्या कहना चाहते हो ….मेरे श्लोकों में , मेरे काव्य में दोष है ? निमाई ने कहा …हाँ , है ….और ये पहला दोष ….ये दूसरा…..ये तीसरा …..ये चौथा ……बताते गये दोष ……सोचा नही था दिग्विजयी ने की इतनी बुरी तरह से पराजित होना पड़ेगा …..और वो भी निमाई जैसे बीस वर्षीय नवयुवक के आगे ।

निमाई ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और चारों ओर देखते हुये बोले ….सब अपने कार्यों में व्यस्त हैं …किसी को पता नही चला कि आप हार गये ….इतना कहकर निमाई अपने घर की ओर चल दिये थे । विष्णुप्रिया उछलती हुई ….ताली बजाकर आनंदित होती हुई ….घर में चली आई ।

पिता जी ! निमाई ने दिग्विजयी को पराजित कर दिया …..
विष्णुप्रिया अति प्रसन्नता के साथ अपने पिता जी को बता रही थी ।

कैसे ? सनातन मिश्र जी उत्साहित होकर सुनने लगे …वो बताती गयी …बताती गयी ….
सनातन मिश्र जी की आँखों में चमक आगयी थी …बेटी ! नवद्वीप की लाज रख ली निमाई ने ।

वो तो है पिता जी ! मुस्कुराती हुई विष्णुप्रिया बोली थी ।

शेष कल –

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