!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( अष्टदशोध्याय:)
गतांक से आगे –
किन माता पिताओं की इच्छा होगी वो अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से दूर करें पर जगत की रीत बड़ी निर्दय है । जिसे नयनों का तारा बनाकर रखा था उसी को विदा करना ….ये कितना कष्टप्रद होता है …पर नारी के भाग्य में विधाता ने यही लिखा है ।
निमाई गये अपनी ससुराल और अपनी नई नवेली भार्या विष्णुप्रिया को विदा करवा लाये ।
विष्णुप्रिया अब शचिदेवि के यहाँ आगयीं हैं …प्रिया के रुनझुन करते पाँव जब आँगन में चलते तब शचि देवि के आनन्द का कोई ठिकाना न रहता । भोजन बनाना चाहती हैं प्रिया पर शचि देवि उन्हें बनाने नही देतीं कहतीं – अभी तुम छोटी हो ….कुछ समय और बीतने दो । निमाई तो अपनी पाठशाला में ही व्यस्त रहते थे । इन दिनों निमाई पूरी तरह से लगे हैं अपनी पाठशाला की प्रगति में …विद्यार्थी बढ़ते जा रहे हैं ….नवद्वीप में निमाई की प्रतिष्ठा चरम पर पहुँच गयी है । लोग वाहन में चल रहे होते और उन्हें निमाई दीख जाते तो उतर कर उन्हें प्रणाम करते । इन दिनों निमाई को कुछ नही सूझ रहा …बस …कैसे अपने विद्यार्थियों को विद्या देकर उन्हें परम विद्वान बनायें । यही इनका लक्ष्य था , इसलिये विद्यार्थी भी इनका बहुत आदर करते थे ।
घर की स्थिति बहुत सुखद है ….शचि देवि और विष्णुप्रिया दोनों घर में हैं …दोपहर के समय कान्चना आजाती है तो ये सखियाँ मिल कर खेलती हैं …हार जीत पर हंसती हैं …खूब हंसती हैं …लोट पोट हो जाती हैं ….निमाई जब ये देखते हैं …तब उन्हें बहुत प्रसन्नता होती , वो दवे पाँव आकर गम्भीर आवाज में कहते …इस तरह हंसना लड़कियों को शोभा नही देता ।
बेचारी विष्णुप्रिया डर जाती …रुआंसी सी हो जाती …तब हंसते हुये निमाई कहते …अरे वाह ! मैं पति हूँ क्या पत्नी से विनोद भी नही कर सकता । प्रिया तब भी असहज ही रहती …तो निमाई कहते ….हम भी खेलेंगे ….प्रिया तब भी डरी रहती …तो निमाई प्रिया को गुदगुदी करते हुए चले जाते ….तब वो खूब हंसती …साड़ी का पल्लू मुँह में दबा कर हंसती । तुम रोती अच्छी नही लगती हो …तुम हंसा करो ….”तो भैया ! आप इसे हंसाया करो”…..कान्चना पीछे से बोलती ।
शचि देवि के साथ प्रिया पल्लू पकड़ कर गंगा स्नान के लिए जाती …पल्लू पकड़े ही गंगा नहाती …फिर वैसे ही वापस घर में आती । अपनी सासु माँ शचि के प्रिया केश बना देती ….पाँव दबा देती ….हर समय माँ , माँ , माँ ….आगे पीछे रुनझुन करते हुये डोलती रहती । इस तरह आमोद प्रमोद घर में बना हुआ था ….पर समय तो बीतता जा ही रहा था ।
निमाई ! बड़े गम्भीर हो आज ? क्या बात है ….बोलो पुत्र ! शचि देवि ने निमाई को आज कुछ ज़्यादा ही गम्भीर देखा तो पूछ लिया । सहज ही रहते थे निमाई ….हंसते खेलते चंचलता लिये निमाई से ही माँ का भी परिचय था ….पर आज इतना गम्भीर !
माँ ! पिता जी याद आरहे हैं ।
निमाई के नेत्र सजल हैं …..पर शचि देवि के नयन तो बरस पड़े ….पुत्र ! विधाता के आगे किस की चली ..देख वो हमें अनाथ करके चले गये ….हिलकियाँ फूट पड़ी थीं शचि देवि की । निमाई कुछ देर शान्त रहे …शचि देवि ने अपने अश्रु पोंछे …और निमाई की ओर देखने लगीं …..निमाई ! तू कुछ कहना चाह रहा है क्या ? माँ ! मैं गया तीर्थ जाने की आज्ञा माँग रहा हूँ । निमाई ने कह तो दिया पर शचि देवि इस बात पर फूट फूट कर रोने लगीं थीं । एक काम कर निमाई , इस बूढ़ी माँ को विष दे दे और चला जा जहां जाना हो ।
माँ ! ऐसा मत कह …मैं तो पिता जी का श्राद्ध करने जा रहा हूँ …..माँ ! तू इतनी अधीर क्यों हो रही है ! ये कर्म आवश्यक है ….हम शास्त्र को मानने वाले हैं हम ही श्राद्ध आदि कर्म नही करेंगे शास्त्र मर्यादा का पालन नही करेंगे तो फिर कैसे होगा । निमाई ने अपनी माता को धैर्य धराया ….शचि देवि अब क्या कहें ….क्यों की निमाई अपने पिता के श्राद्ध कर्म करने के लिए गया जा रहे थे । पुत्र ! तुमने प्रिया को ये बात कही ? नही , अभी नही । उस बेचारी को क्या कहेगा ? तू दूर जा रहा है ये सुनते ही उसके तो प्राण अटक जायेंगे । माँ ! तुम भी समझाना ना उसे । निमाई ने अपनी माता को नाना विधि से समझा दिया पर अब बारी थी विष्णुप्रिया को समझाने की …..निमाई जानते हैं उसे समझाना बड़ा कठिन कार्य होगा ।
“तुमी परदेशे जाबे , ऐहि बड़ दुःख “
भीतर से माता पुत्र की बात प्रिया ने सुन लिया ..उसके हाथों थाल थी जिसमें व्यंजन आदि थे …पर ये सुनते ही उसके हाथ काँपने लगे …पूरा शरीर काँपने लगा …मेरे प्राण प्रियतम चले जायेंगे , उस सरला बालिका को क्या पता वियोग क्या होता है ! ये तो बेचारी आनन्द से गृहस्थ का सुख लूट रही थी …आमोद प्रमोद में इसका समय बीत रहा था ….इसने तो सोचा भी नही था ….कि ये समय भी आयेगा । निमाई की ओर देखा शचि देवि ने ….और संकेत किया अब जा और जाकर समझा ।
पर विष्णुप्रिया अब परिपक्व हो गयी है ….मैं कुछ नही कहूँगी अपने “प्राण” से । वो जायें तब भी नहीं ….क्या उन्हें मुझे बताना नही चाहिये ! मैं उनकी अर्धांगिनी हूँ ….वो अश्रु पोंछ कर बाहर आई ….और निमाई के आगे वो व्यंजन रख दिये ….निमाई ने प्रिया के मुख की ओर देखा …उसकी आँखें भरी हुई थीं…..कुछ देर और निमाई ने देखा तो वो और हिलकियों से रोती हुयी भीतर चली गयी । शचि देवि ने निमाई को प्रिया के पास जाने को कहा …..पर निमाई इस बालिका को कैसे समझायेंगे ! पर उन्हें समझाना तो है ….वो दवे पाँव कक्ष में गये …..पर्यंक में बैठी है ….और सुबुक रही है ।
प्रिया !
निमाई पास में गये…और जैसे ही प्रिया के स्कन्ध में अपने हाथ रखे , नाथ ! हमें छोड़कर मत जाइये ना , निमाई के चरणों में गिर गयी थी प्रिया , अपने अश्रुओं से चरणों को धो दिया था ।
शेष कल –
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