उद्धव गोपी संवाद:-
( भ्रमर गीत)
१७ एवं १८
करम बुरे जो होईं,जोग क्यौं फिरि कोउ धारैं।
पदमांसन सों द्वारि रोकि,इंद्रिन्ह को मारैं।।
ब्रह्म अगिन सों सुद्ध ह्वै,सिद्धि समाधि लगाइ।
लीन होइ सायुज्य में,जोति ही जोति समाइ।।
भावार्थ:-
उद्धव जी गोपियों से कह रहे हैं कि करम बुरे हों तो जोग कोई क्यौं धारे। पद्मासन सब द्वार मूंद के इन्द्रियों को क्यों मारें। ब्रह्माग्नि सों शुद्ध होवे और सिद्धि समाधि लगावै। फिर सायुज्य में लीन होकर ज्योति ही ज्योति में समां जाय,सुनो ब्रजनागरी जोग की महिमा को।
जोगी जोगहिं भजैं, भक्त निज रूप ही जानें।
प्रेम पियुषहि प्रगट,स्याम सुंदर उर आनें।।
निर्गुण गुन जो पाइए,लोग कहें ये नाहिं।
घर आए नाग न पूजिए, बांबी पूजन जाएं।।
सखा सुन स्याम के।
भावार्थ:-
जोगी जो हैं वे ही जोग को भज सकते हैं,भक्त जो हैं वे अपना ही रुप भगवान में देखते हैं। श्यामसुंदर का ध्यान आते ही इनके हृदयों में प्रेम रूपी समुद्र प्रगट हो जाता है। फिर निर्गुण के गुण गाएं तो लोक में भी मना ही होवें। जैसे घर आये नाग को कोई भी पूजने के लिए तैयार नहीं होता,उसकी पूजा को छोड़कर बांबी की पूजा को जाते हों।
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