!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 39 !!
“कृष्णोहम्” – प्रेम में अद्वैतावस्था
भाग 3
सब गोपियों दौड़ीं …………फूलों को चूमनें लगीं ………..फूलों को अपनें देह से लगानें लगीं ………इन फूलों को छूआ है हमारे कृष्ण नें ।
तुम्हे कैसे मालुम कि कृष्ण नें इन फूलों को छूआ होगा ?
चन्द्रावली बैठी रही और पूछती जा रही थी ।
हाँ …….तभी तो इन फूलों में इतनी प्रसन्नता आयी है ……….देखो ! बिना श्याम सुन्दर के छूए क्या ये फूल इतने प्रसन्न होते ?
पर ये कुछ बोल नही रहे …….आम ! नीम ! तमाल ! भैया ! तुम तो कुछ बोलो ………….बोलो ना ! हमारे कन्हैया कहाँ गए ?
किन्तु ये भी कुछ नही बोल रहे ………..अरे ! तुम तो सन्त हो ……तुम तो परोपकार करनें वाले सन्तों से भी महान हो …..हे वृक्षों ! तुम तो कुछ बोलो ……हमारे ऊपर कुछ तो उपकार कर दो ……….गोपियाँ फिर रोनें लगीं ।
नही नही …..इन वृक्षों को परेशान न करो तुम लोग……..एक गोपी फिर उठ आई …….और वह सबको समझानें लगी ।
देखो ! ये हैं इस वृक्ष के आँसू …………..इसका मतलब ये वृक्ष भी कृष्ण के वियोग में दुःखी हैं ………ये हमारा ही साथ दे रहे हैं …..हमारे दुःख से इन्हें भी दुःख हो रहा है …………..इसलिये इन्हें अब ज्यादा परेशान न करो ……………..उस गोपी के ऐसे वचनों को सुनकर ….अन्य गोपियाँ माफ़ी माँगनें लगी थीं उन वृक्षों से ।
वो देखो ! वृन्दा ! तुलसी ! हाँ वो तो हमारे कृष्ण की प्रिया है …..
अब सब गोपियाँ भाग कर तुलसी के पास आगयीं ।
अरी ! कृष्ण प्रिया तुलसी ! तू तो बता ! कहाँ गए हमारे प्राण …….
तू तो अवश्य जानती होगी ……….बता ना ! कहाँ गए ? किस ओर गए हैं ? हमारी स्थिति अब ठीक नही है ……तू ही हमारी सहायता कर तुलसी !
पर उस गोपी की बात का तुलसी नें भी कोई उत्तर नही दिया ।
चन्द्रावली फिर आगे आई …..अजी ! छोडो इसे ………तुम लोगों को पता है ये हमारी क्या लगती है ……..सौत है, हमारी सौत है ये तुलसी ।
इसे पता भी होगा ना ….तो भी हमें नही बताएगी ………..इसलिये इससे बात ही मत करो ……चलो आगे ।
हे धरित्री ! तुम तो कुछ बता दो …………कुछ गोपियाँ अब चल नही पा रही हैं …………उनके शरीर में कम्पन होनें लगा है …………उनके अश्रु इतनें बह रहे हैं कि लगता है नहा ही रही है अश्रु धार से ………..
ऐसी गोपियाँ बैठ गयीं …………तुम्हे देख कर तो नही लगता कि हमारी तरह तुम भी विरह से भरी हो ?
नही …..देखो इन्हें इस पृथ्वी को …………..हरे हरे घास उग गए हैं ……ये क्या है ? ये प्रसन्नता है इस पृथ्वी की ………..अपनें कोमल चरण इस पृथ्वी में वे रख रहे होंगें ना ……इसलिये ये प्रफुल्लित है ।
ए पृथ्वी ! बता ना ! कहाँ गए हमारे श्याम सुन्दर ।
पर ये क्या ?
आगे कुछ गोपियों का समूह चला गया था ……………उन्हीं गोपियों नें एकाएक चीत्कार करना शुरू कर दिया ……कृष्ण ! हा श्याम ! हा गोविन्द ! चिल्लानें लगीं …………..
पर कुछ ही समय बाद …………..मैं कृष्ण हूँ ……….मैं कृष्ण हूँ ।
हँसी आने लगी उसी कुञ्ज से ………………….
हँसती गोपियाँ कह रही थीं “मैं हूँ कृष्ण” ………तुम लोग रोओ मत …..आओ मेरे पास ……..मत रोओ मेरी प्यारी !
गोपियाँ कहती जा रही थीं ……कौन तुम्हे दुःख दे रहा है ……….ये काली नाग …? तो लो मैं इस काली नाग को नथ देता हूँ ………एक गोपी की चोटी पकड़ कर उसे घुमा दिया ।
क्या हुआ ? क्या हुआ ? तुम रो रही हो ? दूसरी गोपी दौड़ी …..
क्या इन्द्र नें बृज डुबोंनें के लिये …………वर्षा कर दी है ?
डरो मत …..आओ ! मेरे पास आओ ……..इतना कहते हुए अपनी चूनरी उठा दी ……………और कहाँ इसके नीचे आजाओ ।
मैं हूँ कृष्ण ! मैं ही कृष्ण ! मैं हूँ कृष्ण !
हे वज्रनाभ ! कृष्ण के चिन्तन नें, कृष्ण के गहरे चिन्तन नें गोपियों को कृष्ण बना दिया …….गोपियों को अब ये लग ही नही रहा कि हम गोपी हैं ………..सब कृष्ण बन गयीं ………..बनना ही था, कृष्ण में इतना तादात्म्य भाव हो गया था इन गोपियों का ।
अद्वैत सिद्ध हो गया गोपियों का …….ये प्रेम का अद्वैत है …..
इसे ही कहते हैं प्रेमाद्वैत………महर्षि शाण्डिल्य इस भाव रस में डूब गए थे ……..कहते हैं ……हे वज्रनाभ ! इस अद्वैत स्थिति में पहुंचनें के लिये ज्ञानियों को कितना कुछ करना पड़ता है ……….पर देखो ! प्रेमीजन कितनी सहजता से उस स्थिति को पा जाते हैं ।
इतना कहकर महर्षि मौन हो गए …..उनकी भी वाणी अवरुद्ध हो गयी ।
शेष चरित्र कल –


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