!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्वात्रिंशत् अध्याय 🙂
गतांक से आगे –
माँ ! उठो , माँ इस तरह मिथ्यात्व संसार को सत्य समझ कर शोक मत करो ।
निमाई ने जब देखा शचि देवि मूर्छित हो गयी हैं उन्हें पुत्र का सन्यास लेना अच्छा नही लग रहा ….किन्तु निमाई मान नही रहे …जब शचि देवि ने जाना की पुत्र जिद्दी है वो मानेगा नही …सब को छोड़ छाड कर चला जायेगा …तब शचि देवि मूर्छित हो गयीं थीं …अपार दुःख-कष्ट के कारण शचि देवि मूर्छित हो गयीं ।
माँ ! माँ !
जल का छींटा मुख में मारने लगे थे निमाई ….ये भी माँ की ऐसी दशा देखकर अधीर हो उठे थे ।
समय लगा पर शचि देवि को कुछ होश आया ….उन्होंने निमाई के सिर में हाथ रखा ….मस्तक को चूमा । कुछ शान्त दिखाई दीं शचि देवि तो निमाई गम्भीर होकर बोलने लगे ….बोलते समय उनके मुख मण्डल पर एक दिव्य तेज व्याप्त हो गया था …शचि देवि ये देखते ही उठकर बैठ गयीं ….दिव्य आलोक से दमकते निमाई ने अपनी माता को ज्ञान देना प्रारम्भ किया ।
निमाई के तत्व ज्ञान का उपदेश इतना गहन गूढ़ था कि शचिदेवि के नेत्रों के अश्रु तुरन्त ही सूख गये थे । शचिदेवि का निमाई के प्रति पुत्र भाव जाता रहा और भगवत्भाव से भावित हो वो निमाई को सुनने लगीं थीं ।
माँ ! इस प्रकार मिथ्यात्व संसार को सत्य मानकर शोक मत करो ।
यहाँ कौन किसका है ? तुम कौन हो ? कौन तुम्हारा पुत्र है ….व्यर्थ ही तेरा-मेरा करके दुखी हो रही हो और अन्यों को भी दुःख दे रही हो । कौन स्त्री कौन पुरुष ? कौन पति कौन पत्नी ? स्मरण रहे माँ ! श्रीकृष्ण भक्ति बिना अन्य कोई गति नही है ….यही सत्य है ।
यही सत्य है कि – कृष्ण ही हमारे माता पिता हैं …वे ही बन्धु जन हैं …वे ही हर्ता कर्ता सब हैं ।
हे माँ ! एक रहस्यमई बात मैं आपको बताता हूँ …समस्त योनियों में ये मानव योनि ही है जो केवल प्रभुकृपा से ही प्राप्त होता है ….बाकी सब प्रारब्ध अनुसार मिलते हैं …इसलिये मानव जीवन को प्राप्त करके भी जो मात्र भोग विलास और कर्म बन्धन में अपने को बांधता चलता है उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा ? माँ ! प्रभु की कृपा हुई है हमें मनुष्य शरीर मिला हैं….और मनुष्य शरीर केवल कृष्ण प्राप्ति के लिए ही है …और कोई लक्ष्य नही है । कर्म बन्धन में बंधे लोग ही कर्म की महिमा गाते हैं और कर्म के लिए प्रेरित करते रहते हैं ….इससे जीव कर्म के जाल में उलझता चला जाता है ….और जन्म मृत्यु के भयानक चक्र में फंस जाता है ।
निमाई जब बोल रहे थे तब वो स्वयं परम प्रकाश स्वरूप ही लग रहे थे …उनका मुख मण्डल सूर्य के तेज की भाँति दमक रहा था , शचि देवि चमत्कृत हो उठी थीं …उन्होंने अपने आप हाथ जोड़ लिये थे । निमाई अभी भी तत्व ज्ञान की बातें स्पष्टता से और सरल मधुर शब्दों में बता रहे थे ।
माँ ! भगवान की माया बड़ी प्रबल है …इससे बड़े बड़े योगी ज्ञानी ध्यानी पार नही पा सकते ….माया के इस दुस्तर सागर में अधिकतर लोग डूब जाते हैं …..मैं , मैं , मैं , मेरा ,मेरा ,मेरा ….बस यही माया का स्वरूप है …कोई ना मेरा है …न मैं । हे माँ ! जो भी है वो “वही” है । वही कृष्ण …जो कृष्ण का बन जाता है ….वही इस माया से पार चला जाता है । जो कृष्ण चरणों को कस कर पकड़ लेता है …उसे माया छूने की बात तो छोड़ो उसकी ओर देखने की भी हिम्मत नही होती ।
कुछ देर के लिए निमाई मौन हो जाते हैं …विष्णुप्रिया और उसकी सखी कान्चना वो भी अब बैठ गये हैं और निमाई की बातों को ध्यान से सुन रहे हैं ….निमाई की वाणी में वो शक्ति है जो सबके मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है ….और वाणी में मधुरता इतनी है कि मुग्ध हुये बिना कोई रह नही सकता । निमाई की बातों से सबके हृदय शीतल हो गये …सबका मन शान्त परम शान्त हो गया था ।
माँ ! कृष्ण परम करुणालय हैं …करुणा से भरे , करुणा से पचे हैं …कृष्ण का भजन ही एक मात्र साधन है जो बद्ध जीव को मुक्त बनाकर भक्ति का रस चखा देती है । अरी मेरी माँ ! तुम जितना मोह इस निमाई से करती हो उससे कम भी कृष्ण से कर लेतीं तो तुम्हारा कल्याण हो जाता है । इस निमाई को अपने से कब तक बांधोगी माँ ! सुख दुःख सब स्वयं को ही भोगना पड़ता है …तुम्हारा पुत्र या पौत्र उसमें क्या करेगा । हाँ अगर सब और से मन को हटा कर कृष्ण चरणों में लगा लो तो उद्धार है तुम्हारा । संसार से आसक्ति मृत्यु का कारण है माँ ! और कृष्ण से आसक्ति तो परम कल्याण का साधन है । सब कुछ है ।
माँ ! अब मेरी बात ध्यान से सुनो …उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का जन जन में प्रसार करने के लिए ही मैं सन्यास ले रहा हूँ ….जब निमाई ने देखा कि सब लोग मेरी बात ध्यान से सुन रहे हैं …तो मूल विषय को उन्होंने आखिर छेड़ ही दिया ।
माँ ! सन्यास के लिए मना मत कर ….इससे जगत का बहुत बड़ा लाभ होगा ….लोग दुखी हैं …संताप से घिरे हुए हैं ….रोग शोक आदि से त्रस्त हैं ……माँ ! काल की पुकार है ….काल को इस समय भक्ति की आवश्यकता है ….नही तो लोग आपस में ही राग द्वेष के कारण लड़ते भिड़ते मर जायेंगे …..वो भक्ति , वो प्रेम , वो दिव्य भावोन्माद…..इस कलि काल की भीषण दाहकता को कम करेगी ।
माँ ! मोह त्याग , मोह के बंधन को काट दे ….और मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दे ।
निमाई ने ये अन्तिम वाक्य कहे थे …पर ये वाक्य कहते हुये उनका मुखमण्डल सूर्य की भाँति अत्यन्त तेज पूर्ण हो गया था …उस तेज में शचि देवि अपने पुत्र को देख भी न पाईं ..आँखें उनकी बन्द हो गयीं हृदय शान्त हो गया …..मन स्थित हो गया । कुछ देर के बाद जब माता ने
देखा तो सामने एक नील वर्ण का किशोर बैठा है ….घुंघराले केश राशि उसके बिखरे हुए हैं ….वो मन्द मन्द मुस्कुरा रहा है …..वनमाला गले में उसके झूल रही है…..पीताम्बरी भी है । उनके श्रीअंग से कस्तूरी की सुगन्ध प्रकट हो रही है ….ये सब देखकर माँ शचि सब कुछ भूल गयीं ….हाथ जोड़ने लगीं …..हाथ तो विष्णुप्रिया और कान्चना ने भी जोड़ लिए थे । पर शचि माता हाथ जोड़कर बोलीं …..
“पुत्र नही आप तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो …फिर भगवान को क्या आज्ञा ? आप का ही सब कुछ रचा है और विनाशक भी आप ही हो ….फिर मुझ से आज्ञा क्या ! हे प्रभु ! हम जीव हैं …संकुचित दृष्टि से सब कुछ देखते और सोचते हैं …..आपको जो उचित लगे वही कीजिये । विष्णुप्रिया स्तब्ध रह गयी ….ये क्या , माता शचि ने आज्ञा दे दी सन्यास की ?
निमाई ने अब प्रणाम किया शचि माता को …और शचि माता के जैसे ही पाँव छुए …पुत्र भाव जो हृदय से चला गया था शचि माता का वो फिर से हृदय में प्रकट हो गया ।
ये मैंने क्या किया ? माँ ! आपने मुझे आज्ञा दे दी है । अब मैं सन्यास ले सकता हूँ । निमाई ने कहा । विष्णुप्रिया ने जैसे ही सुना ….वो रोती बिलखती अपने कक्ष में चली गयी । ओह ! शचि देवि अब शोक कर रही हैं ….किन्तु आज्ञा दे दी है माता ने ।
शेष कल –


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