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August 30, 2025 5:57 pm

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उद्धव गोपी संवाद(भ्रमर गीत) ४५ एवं ४६ : Niru Ashra

उद्धव गोपी संवाद(भ्रमर गीत) ४५ एवं ४६ : Niru Ashra

उद्धव गोपी संवाद
(भ्रमर गीत)
४५ एवं ४६

ताही छिन इक भ्रमर, कहूं ते उड़ि तहां आयौ।
ब्रज बनितन्हं के पुंज मांहि,गुंजत छवि छायौ।।
बैठ्यौ चाहत पांइ पै,अरून कमल दल जानिं।
मनुं मधुकर ऊधौ भयौ, प्रथम हि प्रगट्यौ आनिं।।
– प्रेम कौ भेष धरि?
भावार्थ:-
उसी समय एक भंवरा कहीं से उड़ते हुए वहां आ पहुंचा, जहां ब्रज गोपियां झुंड में बैठी हुईं थी वह भंवरा वहां आकर गुंजन करते हुए गोपियों के पांइन को कमल पुष्प जानि के बैठने लगा।ऊधौ जी को मन में पहली बार ऐसा प्रतीत हुआ कि वह भी भंवरे को वेष धरि के उनमें मिल जाए।

ताहि भ्रमर तें कहति सबें,प्रति उत्तर बातें।
तरक वितरकन्हं जुक्त, प्रेम रूपी रस घातें।।
जिन्हीं परसौ मम पांइ हो, तुम्हें मानत हम चोर।
तुम्ह हीं सौ कपटी हुतौ, नागर नंद किशोर।।
– यहां तें दूरि होउ।।
भावार्थ:-
गोपियां उसी भ्रमर से आपस में बातें करते हुए और तर्क वितर्क युक्त प्रेम रस रूप से भरी घातें करते हुए कह रही हैं कि जिन पैरों को तुम छू रहे हो,हम तुम्हें चोर मानती हैं। तुम्हारे जैसे ही कपटी नटवर नंद किशोर भी थे।
चलो यहां से दूर हो जाओ।

शेष कल
🙏🙏🙏🙏

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