उद्धव गोपी संवाद
( भ्रमर गीत)
५१ एवं ५२
कोहू कहै रे मधुप, कहा तू रस कों जानें।
बौहौत कुसुम पै बैठि, सबैं आपुंन रस मानें।।
आपुन सी,हम को कियौ चाहति है मति-मंद।
दुविधा रस उपजाइ कें, दुखित प्रेम आनंद।।
कपट के छंद सों —
भावार्थ:-
रे भंवरे, कोई कहता है कि तू रस को क्या जाने, फूल पर बौहौत बैठ बैठ कर सबको अपने जैसा समझता है।हमको भी अपने जैसा ही बनाना चाहता है मूर्ख कि हम भी इधर उधर तेरी तरह भटकती फिरें। यह ज्ञान की दुविधा हमारे मन में मत पैदा कर,हम तो वैसे ही कपटी के प्रेम फंद में पड़ी हुई हैं।
कोहू कहै रे मधुप,नाहिं पट-पद-पसु देख्यौ।
अबलों या ब्रज देस माहिं,कोहु नाहिं विसेख्यौ।।
द्वै -सिंघ आंनन -उपरैं,कारौ,पीरौ -गात।
खल अमृत सब मानहीं,अमृत देखि डरात।।
– वाद यै रसीकता –
भावार्थ:-
रे मधुप, तुमने कभी प्रेम पद का सुख देखा है ।अब तक तो इस ब्रज में किसी ने विशेष नहीं देखा।
ऐसे ही तेरो सुरंग अति काला और पीला शरीर। क्यौं जो खल पुरुष अमृत पान करले तो अमृत भी डर जाता है।
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