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October 22, 2025 4:37 am

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!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-सप्तचत्वारिंशत् अध्याय: Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-सप्तचत्वारिंशत् अध्याय: Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!

( सप्तचत्वारिंशत् अध्याय: )

गतांक से आगे –

शचिदेवि की बहन आज शचि देवि के घर आईं हैं ….सन्ध्या होने को है ….बातें करते करते समय बीत गया है ….बातें क्या ! वही निमाई की चर्चा । “मैंने भी देखा पर अच्छे से देख न पाई ….विष्णुप्रिया ने भी देखने की कोशिश की …पर अच्छे से वो भी न देख सकी “। शचिदेवि की बहन कहती हैं – हजारों लोग थे निमाई के लिये ….सब संकीर्तन कर रहे थे ….सुना है अपनी जन्म भूमि देखने आया है निमाई ? पता नही , पर मुझे तो चिन्ता होती है अपनी बहु की ….इसे एक बार अपनी सूरत दिखा जाता ….बेचारी पाँच वर्षों से तड़फ रही है ….किन्तु वो निमाई निष्ठुर बना हुआ है । शचि देवि की पीड़ा है अपनी बहु को लेकर ।

बातें हो रहीं थीं दोनों में कि तभी – आचार्य चन्द्रशेखर आगये अपनी पत्नी को लेने …..और सुखद सूचना भी दे गये कि निमाई आज नवद्वीप में आये हैं …..और आज रात्रि यहीं बितायेंगे ।

क्या ! सुख की वृष्टि कर दी थी इस शुभ सूचना ने …शचि देवि के आनन्द का ठिकाना नही …उन्होंने पूछा भी अपने बहनोई से ….निमाई कहाँ ठहरा है ? शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के यहाँ । इतना कहकर वो चले गये ।

शचि देवि ने जाकर विष्णुप्रिया के कक्ष में देखा प्रिया ध्यानस्थ थी ….घी का दीपक जला रखा था ….सामने निमाई का चित्रपट था । शचि देवि लौट आयीं अपने कक्ष में ….थकान थी बूढ़े शरीर में …..इसलिये थोड़ी देर लेट गयीं तभी छपकी आगयी ।


माँ ! द्वार खोल …..देख तेरा निमाई आया है !

क्या ! शचि देवि ने ये आवाज सुनी ……वो दौड़ीं द्वार पर …..सामने देखा उनका पुत्र निमाई खड़ा है ….शचि देवि के आनन्द का ठिकाना नही था । उसने अपने पुत्र को हृदय से लगा लिया था ।

माँ ! अब मैं जा रहा हूँ …निमाई ने शचि देवि को अपने से दूर करते हुए कहा ।

नही निमाई ! भीतर आ पुत्र ! भीतर आ ।

नही माँ ! सन्यासी पूर्व आश्रम के घरों में नही जाता है ।

किन्तु पुत्र ! एक बार विष्णुप्रिया से तो मिल ले ……मिल ले निमाई ! बेचारी पाँच वर्षों से तेरी प्रतीक्षा कर रही है ……वो मर भी नही रही …ना जी रही है ….बस तेरी आस में है । वो कहती है मैं मर गयी और मेरे नाथ आये तो ? निमाई ! थोड़ा रुक …मैं उसे बुला लेती हूँ ।

अरे ! तू चला गया …मत जा …मत जा निमाई ! मेरी बात मान , एक बार उससे मिल ले …अच्छा मत मिल …उसे अपना मुख तो दिखा दे …तू चला गया ….तू गया ।

शचि देवि उठ गयीं ….वो द्वार की ओर भागीं ….पर द्वार पर कोई नही था ….ये सब स्वप्न था शचि देवि का ….ओह ! वहीं बैठ गयीं शचि देवि …उनके वृद्ध देह में अब शक्ति नही है ….सोचने लगीं …ये तो स्वप्न है ….किन्तु निमाई तो कल निकलने वाला है नवद्वीप से …ओह ! निमाई अपनी जन्मभूमि के दर्शन मात्र करने आया है ….वो इस बार गया तो फिर नही आयेगा । शचि देवि फिर भीतर आतीं हैं ….वो दिखती हैं ….विष्णुप्रिया अभी भी ध्यानस्थ है …इस बार अगर निमाई यहाँ नही आया तो प्रिया जीवन पर्यन्त उसे नही देख पायेगी । ये सोचकर वो काँप जातीं हैं ….और बाहर चल देती हैं …लाठी है हाथ में अन्धकार है बाहर । शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के यहाँ रुका है निमाई ….ये पता है शचि देवि को ….वो रात्रि में ही चली जा रही हैं ….उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं …अश्रुधार । उनके परिचित मिलते हैं और पूछते हैं – कहाँ जा रही हो शचि देवि ? तो ये वहीं रोने लग जाती हैं …रोक लो ना , मेरे निमाई को …पकड़ लो ना तुम लोग मेरे निमाई को …उसको कहो ना …कि वो यहीं रहे । शचि देवि की बात सुनकर लोग रोने लग जाते हैं ।

शचि देवि जैसे तैसे शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के यहाँ पहुँचीं भीड़ है वहाँ …रात्रि में संकीर्तन होने वाला है ….उसी की तैयारी चल रही है । लोगों ने शचि देवि को देखा तो मार्ग दिया …स्वयं ब्रह्मचारी माता को लेकर निमाई के पास ही गये ….वो बैठे हुए थे भक्तों से वार्ता कर रहे थे …सामने से आते हुए अपनी वृद्धा माता को देखा तो उठकर खड़े हो गए ….नयनों से जल धार बह चली …अद्भुत दृष्य था वो …माता शचि भी रो रहीं थीं और पुत्र निमाई भी । इस झाँकी को देखकर भक्त जन भी रोने लगे थे ।

ब्रह्मचारी जी ने सबको वहाँ से जाने को कहा …ताकि माता और पुत्र अपने हृदय की बातें कर सकें …सब चले गये ….शचि माता अपने पुत्र को देख रही हैं ….देखते देखते उन्हें भाव आगया ….वो गिरने ही वाली थीं कि निमाई ने अपनी माता को सम्भाल लिया ।

निमाई ! चल घर ….तेरे बिना अब कोई नही रहेगा …तू घर चल या अपनी माता और अपनी पत्नी का वध करके चला जा ….फिर तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा । क्रन्दन करने लगीं शचि देवि ….निमाई ! सन्यास का खेला बहुत हो गया अब छोड़ दे और चल मेरे साथ । क्या कह रहा है ? पाप लगेगा ? तो मुझे लगेगा …मैं तेरे पाप को भोग लुंगी …तेरे बदले मैं नर्क जाकर रह लुंगी …पर निमाई ! अब चल घर । शचि देवि का ये उन्माद बढ़ता जा रहा था ….वो चीख रही थीं ….उनकी चीख पुकार सुनकर बाहर भक्त लोग भी रो रहे थे ।

गौरांग क्या कहें ? वो मौन हैं …..कुछ नही बोल रहे …..अपनी बूढ़ी माता को देखकर करुणा से भर गये हैं ये ।

मत रो माँ ! मत रो ….क्यों रो रही हो ? क्या हुआ ? सन्यास लेते समय मैंने तुमसे पूछा तो था ….और तुम्हारी आज्ञा से ही सन्यास ग्रहण किया था मैंने ….फिर क्या हुआ ?

ओह ! माया प्रबल है …..उसी माया के वश में तुम भी हो गयी हो माँ !

ये कैसी भाषा बोलने लगे थे गौरांग ….अब ज्ञान के आधार पर शिक्षा देंगे अपनी माता को ?

मैं पुत्र तुम मेरी माता ? हंसे गौरांग ….अनन्त जन्म हुए हैं तुम्हारे और हमारे माँ ! मैं माता भी बना हूँ तुम्हारा और तुम मेरा पुत्र भी …..ये सब मिथ्या है ….यही तो माया है …..इस बात को समझो …..

शचि देवि अपने पुत्र के द्वारा ये उपदेश सुनकर चकित रह गयीं …..स्तब्ध हो वो अपने निमाई को निहारती रहीं …..फिर कुछ देर बाद बोलीं ।

मैं नही जानती माया क्या है ? मैं नही जानती अनन्त जन्मों की बातों को ….निमाई ! मैं दुःख के सागर में डूबी हुयी हूँ …..मुझे इससे निकाल ….मैं और तेरी बहु विष्णुप्रिया अपार कष्ट में हैं …तेरा ये कर्तव्य है कि उस कष्ट से हमें उवार ….हम कुछ नही जानतीं …न जानना चाहती हैं । अपना ज्ञान अपने पास रख निमाई ! इस समय ज्ञान मत बघार ….तू सीधी सादी भाषा में बोल ….अपने घर आएगा या नही ? निमाई मौन हैं ….वो बस अपनी माता को देख रहे हैं ।

तू आखिर चाहता क्या है ? बोल निमाई ! मैं माया के इस बन्धन को तोड़ दूँ ? तो सुन मेरे लाल ! ये मुझ से नही होगा …ये सारी बातें अपने भक्तों को सुना …भक्तों को उपदेश दे वो मानेंगे पर मैं नही मानूँगी ….”मेरी साधना ही माया है ….तुझ से मेरी माया हट गयी तो मेरी साधना ही समाप्त हो जायेगी “। ये कहते हुये फिर शचि देवि ने रोना शुरू किया ….निमाई ! मैं जानती हूँ इस नवद्वीप में सब तेरे अपने हैं …शत्रु कोई है तो मात्र दो ….एक ये तेरी बूढ़ी माता और दूसरी तेरी पत्नी विष्णुप्रिया । मार दे हम दोनों को …विष दे दे ….

ये सुनते ही गौरांग को बड़ा दुःख हुआ …….वो अपनी माता को हृदय से लगाते हुए बोले …जा घर ….माता ! आज ही प्रातः नवद्वीप छोड़ते समय मैं तेरे घर के द्वार तक आऊँगा ।

इतना बोलकर माता को जाने के लिए कह दिया … शचि देवि को इस आश्वासन से बल मिला ….वो सुख का अनुभव करने लगीं …..तू सच कह रहा है ? तू आयेगा ? हाँ , मैं अवश्य आऊँगा । गौरांग देव ने फिर कहा । अपने पुत्र के गले लग कर शचि देवि घर के लिए चल पड़ीं …..पाँच वर्ष के बाद मेरा निमाई घर में आयेगा ….वो सब को बताती हुई जा रही थीं।

शेष कल –

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