!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( अष्टचत्वारिंशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
अर्धरात्रि की वेला है ….शचिदेवि लौट कर आगयीं हैं अपने पुत्र गौरांग से मिलकर । घर में कान्चना है जो विष्णुप्रिया के साथ में ही रह रही है । खुशखबरी सुनाई आते ही शचिदेवि ने कि निमाई प्रातः आरहा है । ये खबर देकर कुछ देर लेटने के लिए शचि देवि चली गयीं ….क्यों की उनका वृद्ध देह अत्यन्त थकान का अनुभव कर रहा था ।
सन्यास धर्म का पालन तो हो गया ….माँ के भी दर्शन हो गये …फिर घर के द्वार पर स्वामी क्यों आरहे हैं ? विष्णुप्रिया बड़े भोलेपन से अपनी सखी कान्चना से ये प्रश्न करती है ।
विष्णुप्रिया तुम भोली हो …किन्तु बुद्धिमान हो…तुम सब समझती हो ..ये कहते हुए कान्चना हंस रही थी …वर्षों बाद ये भी हंसी थी ..और ये इसलिए हंस रही थी कि इसकी सखी आज प्रसन्न है ।
नही , मुझे नही पता ….सखी ! पता नही क्यों समझ नही आरहा कि वे द्वार पर क्यों आरहे हैं …विष्णुप्रिया वही बात फिर दोहराती है …..हो तो गया सब ….जन्म भूमि नवद्वीप है उसके दर्शन हो गये ….माता स्वयं हो आईं ….दर्शन दे आईं । अब कौन बचा ?
मेरी भोली सखी ! तुम सुनना क्या चाहती हो ! विष्णुप्रिया के कपोल को पकड़ कर कान्चना बड़े प्रेम से पूछ रही थी ।
सच सुनना चाहती हो …तो सुनो , प्रिया ! तुम्हारे स्वामी के मन में तुम्हारे प्रति प्रेम है …अगाध प्रेम है …किन्तु वो जगत के सामने दिखाते नही हैं …..प्रेम गुप्त रहे , छुपा रहे तभी प्रेम की सुन्दरता बनी रहती है …कान्चना अपनी सखी को प्रसन्न देख वो भी अत्यन्त प्रसन्न थी….उसी प्रसन्नता में वो बोले जा रही थी ।
तेरे लिए सखी ! सिर्फ तेरे लिए तेरे स्वामी यहाँ आरहे हैं ….ठीक कहा तुमने ….माता से मिलना तो हो गया ….जन्मभूमि को भी वन्दन कर लिया अब कौन बचा ? सखी ! तू बची है …हृदय में तेरे प्रति बहुत प्रेम है । आहा ! कितना सुख मिला होगा ये सुनकर विष्णुप्रिया को ….नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहने लगे थे …वर्षों बाद सुख का अनुभव किया था इस वियोगिनी विष्णुप्रिया ने।
क्या सच ! इस अभागिनी दासी के लिए वो आरहे हैं ? सखी ! इसका मतलब मेरे सारे पाप समाप्त हो गये ? मैं अब पापिन नही हूँ ? मेरे प्रभु मेरे लिए आरहे हैं …इस बात को विष्णुप्रिया बारम्बार दोहराती है । पर मात्र सुख ही तो नही है ना जीवन में ….नाथ दर्शन देकर चले जायेंगे ! वो रुक नही सकते ? तपते हुये तवे में शीतल जल का छींटा देकर चले जायेंगे ? फिर दुःख , फिर विषाद की घनी चादर ओढ़ ली थी विष्णुप्रिया ने ।
किन्तु कान्चना आज सुख की ही बात करना चाहती है ….पाँच वर्षों बाद तो सखी के चेहरे में प्रसन्नता देखी थी ….इसलिये ये दुःख का स्मरण नही कराना चाहती ।
भक्त को भगवान नही भूल सकता ….अपने सच्चे प्रेमी को एक सामान्य व्यक्ति नही भुला सकता ….फिर वो तो प्रेम स्वरूप ही हैं ….वो तुम्हें कैसे भुला सकते थे । कहने की बात है प्रिया ! मुझे तो लगता है वो केवल तुमसे ही मिलने इस बार नवद्वीप आये हैं ….ये कान्चना के मुख से सुनते ही प्रिया ने उसका मुख चूम लिया ….तू कितनी अच्छी बातें करती है ना सखी ! तेरी बातें मोहक हैं …तेरी बातें जीना सिखातीं हैं …निराशा के बादल छँट जाते हैं …..तू मेरी सच्ची सखी है ….मुझे अब स्मरण आरहा है जब मेरे स्वामी ने गृह त्याग किया था और मैं रो रही थी तब तुमने मुझे कहा था ….तेरे बिना तेरे स्वामी रह नही सकते …..कान्चना तुरन्त बोली ….तुम हो ही इतनी प्यारी …तुम निश्छल निर्मल मन की हो ……निस्वार्थ प्रेम की मूरत हो ….तुम्हारे बिना कैसे रह सकते हैं वो ।
इस तरह पूरी रात बातों में ही बीती है इन सबकी …..नींद तो शचि देवि को भी नही आरही …सुबह ही उसका पुत्र द्वार पर आयेगा । विष्णुप्रिया को तो नींद दूर दूर तक नही है ….सब बातें कर रहे हैं ……कुछ ही घड़ी शेष रह गयी है अब …..ओह ! विष्णुप्रिया अपने प्राणधन को आज देखेंगी ।
शेष कल –


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