!!
!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकोनपन्चाशत् अध्याय : )

गतांक से आगे –
रात्रि में नींद नही आई ….शचि देवि और विष्णुप्रिया गौरांग देव के विषय में ही सोचते रहे थे…..कान्चना अपनी सखी का साथ देती रही …..इस तरह रात्रि बीत गयी थी….शचि देवि ने और उनकी बहु ने स्नान किया ….शुद्ध वस्त्र धारण किये …..”मेरा पुत्र आरहा है” ….ये शचि देवि सोचती हैं ….”मेरे स्वामी गृह द्वार पर आरहे हैं”….विष्णु प्रिया का हृदय तेजी से धड़क रहा है । शचि देवि द्वार पर जाकर खड़ी हो गयीं हैं ….पर विष्णुप्रिया आँगन में तुलसी का एक पौधा है उसके पास में खड़ी है …..कैसे लगते होंगे मेरे स्वामी ? मुझे देखकर वो क्या सोचेंगे ? मैं उनके सन्यास धर्म में बाधक हूँ ….ये बात वो पूर्व में कह चुके हैं ….फिर क्यों मैं उनके दर्शन की कामना लेकर खड़ी हूँ …..विष्णुप्रिया ये सोचते हुए चार कदम पीछे चली जाती है ।
शचि देवि अब द्वार से बाहर खड़ी हो गयी हैं …..दस बीस लोग हैं अड़ोस पड़ोस के ही हैं ….उन्हें भी पता चला है कि अभी निमाई आने वाले हैं ….तो वो भी खड़े हो गये हैं ….उनसे शचि देवि बातें कर रही हैं …..भीतर से विष्णुप्रिया देख रही है …..किन्तु वो अपनी ही सोच में है ……कहीं मुझे देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया तो ? तो फिर तू क्यों जिद्द करके खड़ी है यहाँ पर ….विष्णुप्रिया अपने आपको कह रही है ……उन्होंने गलत नही किया है ….गलत तू है प्रिया …..उन्होंने तो शास्त्र आज्ञा धर्म आदि का पालन किया है …..भगवत्भक्ति की ओर लगे हैं वो तो ….पत्नी क्या है ! माया ही तो है …..धर्म से जो हटा दे वही तो माया है …..तू माया है ….तू धर्म से गिराने वाली है अपने पति को …..मत कर ये सब ……दूर रह अपने महापुरुष गौरांग देव से …..वो जगत का कल्याण करना चाहते हैं और तू ? तू तो माया है ….जो धर्म से विमुख कर रही है ….इसलिये तो तुझे देखना नही चाहते तेरे पति …..तू स्वार्थी है …..तू स्वार्थी है …….ये सोचते हुए फिर चार कदम पीछे खींच लिए विष्णुप्रिया ने । तभी …….
हरि बोल …हरि बोल …हरि बोल ….हरि हरि हरि बोल ………
नभ गूंज उठा ….झाँझ मृदंग हजारों की संख्या में बज रहे थे ….नृत्य करते हुए भक्त जन भक्ति भाव में डूबे हुए थे ….उछल रहे थे …तालियाँ बजा रहे थे …..करताल लेकर कोई उन्मत्त नाच रहा था ….हरि बोल ।
शचिदेवि भीतर आईं और चिल्लाकर बोलीं ….प्रिया ! निमाई आरहा है …तू आ ….हाँ …कहती हुई विष्णुप्रिया आगे बढ़ी ….किन्तु फिर उसके कदम रुक गये ……मत जा , मत जा उनके पास …क्यों जा रही है ….उनका व्रत भंग मत कर ….स्त्री का मुख देखने से उनका धर्म नष्ट होगा ……ये सोच आते ही फिर विष्णुप्रिया पीछे खिसक गयी थी ।
अब तो हरिनाम की ध्वनि और स्पष्ट आरही है…..दिशायें नाम ध्वनि की गूंज से गूंज रहीं हैं ।
वातावरण “ हरिनाममय” हो गया था ……और जैसे जैसे वो सब निकट आरहे थे ….विष्णुप्रिया का हृदय और और तेज धड़क रहा था …..उसके समझ में नही आरहा था कि वो क्या करे ।
ये अन्तिम आगमन है नवद्वीप में निमाई का ….अब कभी निमाई नवद्वीप नही आयेगा ।
फिर शचिदेवि ने विष्णुप्रिया को बाहर बुलाते हुए कहा …..उनका कहना ये था कि – प्रिया ! इस बार दर्शन कर लेना …फिर नही मिलेगा ।
तो क्या हुआ ! इनका नाम जाप करते हुए ये जीवन भी बिता दूँगी ….जब कृष्ण के पीछे अपना सुख मेरे स्वामी त्याग सकते हैं तो क्या अपने स्वामी के लिए मैं अपना सुख नही त्याग सकती ? विष्णुप्रिया तुलसी पौधे के पास ही रही …अब उसने एक कदम भी आगे नही बढ़ाया ।
हरि बोल , हरि बोल , हरि बोल , हरि हरि हरि बोल …….
आगये लोग …आगये भक्त वृन्द ….कीर्तन की ध्वनि दिशाओं को पवित्र कर रही थीं …..लोग झाँझ बजा रहे थे …..मृदंग को बजाते हुए भक्त उन्मत्त थे …..सात्विक वातावरण इतना घना था कि सबके अन्त:करण पवित्र हो गये थे …वातावरण में भक्ति का संचार हो रहा था …कलि के जितने दोष थे वे हरिनाम के प्रभाव से समाप्तप्रायः हो गये थे ।
भक्तों का हुजूम था …भक्ति में सब डूबे हुए थे …..तभी गौरांगदेव ….मुण्डित केश हैं ….गौर देह है …..नेत्र विशाल हैं….उनमें गम्भीरता है ….गैरिक वस्त्र है ….दोनों आजानु बाहु ऊपर किए हुए हैं ……घर आया शचिदेवि का …द्वार पर शचि देवि को देखा तो गौरांग दौड़े ….और अपनी बूढ़ी माता को हृदय से लगा लिया ….शचि देवि रो पड़ीं …अपने अश्रुओं को पोंछा उन्होंने …फिर संकेत में कहा ….भीतर चल निमाई ! ….किन्तु उनके निमाई ने मना कर दिया …..झुक कर माता के चरण छुए और ……शचि देवि भीतर देख रही है ….विष्णुप्रिया कहाँ गयी ? वो बुलाती भी हैं …किन्तु कोई उत्तर नही मिलता । गौरांग आगे बढ़ गये हैं …..संकीर्तन में मग्न भक्त लोग प्रभु के घर पर संकीर्तन करना चाहते हैं किन्तु …..गौरांग आगे बढ़ चुके हैं ….शचि देवि माथा पकड़ कर बैठ गयी है …..कहाँ गयी विष्णुप्रिया ……तेरे लिए ही निमाई आया था पर तू ……..
नाथ !
पीछे से किसी की आवाज आई …..आवाज अत्यन्त करुण थी …क्रन्दन था ….पुकार थी ।
सब रुक गए …संकीर्तन तक रुक गया ….इस तरह किसने पुकारा गौरांग देव को ? सबने देखा ….एक मैले वस्त्र धारण की हुई ….घूँघट काढ़े …..धड़ाम से आकर गौरांग देव के चरणों में गिर गयी थी ।
नाथ ! क्या इस दासी को बिना दर्शन दिये चले जाओगे ?
ये बात भी हिलकियों से रोते हुये उसने कही थी ।
कौन ? कौन हो तुम ?
गौरांग देव ने उस अपार भीड़ के सामने उस मलिन वस्त्रा नारी से ये प्रश्न किया था ।
ओह ! अब तो उसने अपना घूँघट हटा दिया था ..और जैसे ही गौरांग देव ने देखा ……
मैं आपकी दासी ….विष्णुप्रिया । हाथ जोड़कर रोते हुये उस वियोगिनी के ये शब्द थे ।
देखते रहे गौरांग देव अपनी इस धर्मपत्नी को …….वो रोये जा रही थी …उसका रुदन नही रुक रहा था ……गौरांग देव ने करुणा से विष्णुप्रिया की ओर देखा ….और गम्भीर होकर बोले ….अपने नाम को सार्थक करो …भगवान विष्णु की प्रिया हो ….तो बनो …भगवान की प्रिय बनकर रहो ।
विष्णुप्रिया अपलक देख रही है अपने स्वामी को ……
जगत का उद्धार करने आए हो तो मेरा उद्धार क्यों नही ? विष्णुप्रिया ने कहा ।
कृष्ण को भजो ….गौरांग बोले ….आपको न भजूँ ? विष्णुप्रिया ने पूछा ।
कृष्ण सर्वस्व हैं …..गौरांग का कहना था ….मेरे सर्वस्व आप हैं ….विष्णुप्रिया बोली ।
किन्तु कृष्ण नाम सर्वोपरि है …..इसीलिये उनका नाम लो ।
हंसती है प्रिया ……नेत्रों में अश्रु और हंसी ….ओह ! क्या दृष्य था …कठोर हृदय भी पिघल जाये …पाषाण पिघल कर मोम हो जाये ।
आप मुझ से अपना नाम नही छीन सकते नाथ ! मैं क्या करूँ ? मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन नही कर रही …..किन्तु मैं जब “कृष्ण” कहना चाहती हूँ तो मेरी जिह्वा पर आपका नाम ही आता है ..मैं क्या करूँ ? कृष्ण का ध्यान करने बैठती हूँ तो मुझे आप ही ध्यान में आते हो …बताइये मैं क्या करूँ ? गौरांग देव कुछ नही बोल सके विष्णुप्रिया के सामने ….उनका सिर झुक गया …उनके भक्त विष्णुप्रिया की स्थिति देखकर विलाप करने लगे ….कुछ देर देखते रहे गौरांग विष्णुप्रिया को , फिर बिना कुछ बोले आगे बढ़ गये ।
ये क्या ? विष्णुप्रिया पागलों की तरह चारों ओर देखने लगी थी ….उसके समझ में नही आरहा था कि अब वो क्या करे । एक बार और उसने …..नाथ ! पीछे से आवाज दी ।
पुकार में इतनी शक्ति थी कि गौरांग को फिर रुकना पड़ा ……..
इस दासी को कुछ तो आधार देते जाओ …..विष्णुप्रिया सिर पटकने लगी । इतनी कठोरता क्यों ? मेरा अपराध क्या है ? वो चीख रही थी ।
क्या चाहती हो ? गौरांग ने फिर प्रश्न किया ।
आप जो दे दें ……विष्णु प्रिया नयनों से अश्रुधार बहाते हुए बोल रही थी ।
मैं एक सन्यासी हूँ , मेरे पास कुछ नही है …..फिर कुछ सोचकर चैतन्य देव ने अपनी पादुका उतारी और विष्णुप्रिया को दे दी …..विष्णुप्रिया ने पादुका को चूमा और अपने मस्तक पर रख ….वो अपने घर में प्रवेश कर गयी ….हरि बोल ..हरि बोल ….फिर संकीर्तन प्रारम्भ हो गया था …गौरांग आगे बढ़ गये थे ।
विष्णुप्रिया अपने पूजा घर में आई और वहीं सिंहासन में अपने स्वामी की पादुका को विराजमान कर लिया और ध्यानस्थ हो गयी । कान्चना दौड़ी हुई आई …सखी ! गौरांग देव के दर्शन किये ? पर यहाँ पादुका में ही विष्णुप्रिया ने अपने गौरांग देव का आह्वान कर लिया था ……अब से ये पादुका ही इष्ट थे विष्णुप्रिया के । वो मग्न थी पादुका को प्राप्त करके ।
शेष कल –
परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( पन्चाशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
ये क्या हो गया ! पुत्र निमाई के जाने के बाद शचि देवि तो और जर्जर हो गयीं ….वृद्ध देह और ढलता गया …..पुत्र को स्मरण करके रोती थीं पर रोने में अब वो शक्ति नही थी …न चीख सकती थीं न पुकारने का सामर्थ्य इनमें बचा था ….रो रोकर इन्होंने अपने नेत्र बिगाड़ लिये थे ..नेत्रों के कमजोर होने से कान भी कमजोर हो गए थे …न देखना था न सुनना था ।
विष्णुप्रिया की स्थिति तो और दयनीय बन गयी थी …..गौरांग देव के मिलने से पूर्व ये फिर भी ठीक थी , स्वस्थ थीं ….किन्तु जब से गौरांग पादुका देकर चले गये उस दिन से तो विष्णुप्रिया की हिलकियाँ रुकी ही नहीं हैं ……पादुका का स्नान नित्य इनके अश्रुओं से ही होता है …”गौर हरि” का जाप ……”गौर हरि” की पुकार …..बस यही इनका नियम बन गया था …..रोना …बिलखना ….बस यही इनकी साधना थी ।
कान्चना आती ….कुछ देर ही बैठ पाती …..पर जब ये विष्णुप्रिया का क्रन्दन सुनती तो उसका हृदय काँप उठता था …..प्रिया के कक्ष दीवारों में खून के धब्बे स्पष्ट दिखाई दे जाते थे …ये सोती कहाँ ? इन्हें नींद कहाँ थी ….ये तो रात भर “गौर हरि” कहते हुये अपना सिर दीवार में पटकती थी….पटकते पटकते कभी कभी मूर्छित हो जाती …..देखने वाला कोई था नहीं…हाँ , ईशान नामक एक वृद्ध भक्त था गौरांग देव का ….जब विष्णुप्रिया गौरांगदेव के चरणों में गिर कर रो रही थी ….माता शचि रो रही थीं …तब ये वृद्ध भक्त भी इनको रोता देख रोने लगा था ….गौरांग देव तो अपनी मण्डली के साथ चले गये …पर ये रुक गया ….माता की सेवा कौन करेगा ? गौरांग देव की सबसे बड़ी भक्ति यही होगी कि उनकी माता की देख रेख की जाये …..और ये बेचारी विष्णुप्रिया ! इन दोनों की स्थिति देखकर वृद्ध ईशान को लगा ये अब भोजन नही बना पायेंगी ….मर जायेंगी । ऐसा विचार कर इन ईशान नामक भक्त ने गौरांग देव को छोड़ दिया और यहीं इन्हीं की सेवा में लग गया ।
यहीं भोजन बनाता था ….विष्णुप्रिया मूर्छित पड़ी रहती ….उसे होश कहाँ था ….द्वार आते जाते ईशान खोलता तो ये उठकर इतना ही पूछती ….क्या मेरे नाथ आगये ? ओह !
कान्चना आई ….और विष्णुप्रिया के पाँव दबाने लगी थी ।
कौन ? विष्णुप्रिया मूर्छित हैं …..जब उन्हें लगा किसी ने छुआ है तो मूर्च्छा टूट गयी थी ।
सखी ! मैं कान्चना । अपने अश्रु पोंछते हुए कान्चना ने उत्तर दिया था ।
हाँ कान्चना! इतना ही बोली थी ।
मेरे माता पिता नीलान्चल धाम जा रहे हैं ….कान्चना ने जैसे ही ये कहा ….
सखी ! मुझे भी ले चल …..मैं भी जाऊँगी नीलान्चल …..मेरे नाथ वहीं रहते हैं ….मैं उनके द्वारे पड़ी रहूँगी …उनका जूठन खाती रहूँगी …..मुझे ले चल सखी ! मुझे ले चल । विष्णुप्रिया उठकर खड़ी हो गयी ….कान्चना से चलने की जिद्द करने लगी थी ….कि तभी – नही , मैं पापिन हूँ …मैं नीलान्चल जाऊँगी तो मेरे नाथ उस क्षेत्र को भी छोड़कर चले जायेंगे ….नही , मैं तो अभागिनी हूँ ..नाथ ने मेरे कारण ही तो सन्यास लिया है ना ..मैं दुष्टा हूँ ….इस घर के सुख को मैं खा गयी ।
विष्णुप्रिया फिर उन्मादग्रस्त हो गयी है …….
ये देख सखी ! मेरी बूढ़ी सासु माँ की स्थिति ! ये सब मेरे कारण है …..सबकी कारण मैं ही हूँ ।
हाय …मेरा जन्म ही क्यों हुआ ? मैं जन्मते ही मर जाती तो अच्छा होता ना ।
ये कहते हुए धड़ाम से विष्णुप्रिया फिर अवनी पर गिर गयी थी ।
सखी ! मैं नीलान्चल धाम जाना चाहती हूँ ….नही नही …मुझे भगवान जगन्नाथ के दर्शन नही करने ….मुझे तो बस तेरे लिए जाना है ….वहाँ जाकर मैं गौरांग देव से मिलूँगी ….तुम्हारे विषय में उनसे कहूँगी ….खूब कहूँगी ….कहूँगी कि …सन्यास लेना ही था तो क्यों मेरी सखी को दुःख दिया …मैं तुम्हारी एक एक बात उनको बताऊँगी ….उन्हें अनुभव कराऊँगी ….कि तुम्हारे कारण वो दुखी है ….दुखी ही नही ….वो पल पल मर रही है ….बताओ उसका क्या करें ?
सखी ! मुझे नीलान्चल धाम से कोई लेना देना नही है ….मुझे तो तुमसे मतलब है …तुम ही मेरी सखी सर्वस्व हो ….हे प्रिया ! मैं उन्हें कहूँगी ….कि ऐसे सन्यास लेने से क्या लाभ ! चलो एक बार देख लो….देखा नही होगा तुमने …..बाहर बाहर से अपनी जयजयकार करवा कर नवद्वीप से आगये ….एक बार देखो तो घर के भीतर जाकर …दीवारें तक रो रही हैं ।
नही , सखी ! तू ये कुछ नही कहेगी मेरे नाथ से । विष्णुप्रिया ने कान्चना का मुख बन्द कर दिया ।
क्यों ? चीखी कान्चना ।
उन्हें दुःख होगा …..आह भरते हुए विष्णुप्रिया कह रही थी ।
अब तो कान्चना से कुछ देखा नही गया …..कुछ बोला नही गया …..अश्रु पोंछते हुए वो वहाँ से चली गयी । और दूसरे ही दिन वो जगन्नाथ पुरी के लिए निकल गयी थी ।
शेष कल –

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