!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकपन्चाशत् अध्याय )
गतांक से आगे –
एक माह में ही नीलान्चल धाम से लौट आई कान्चना । अकेली ही लौटी है …साथ के लोग रथयात्रा के बाद लौटेंगे ….पर कान्चना को कोई मतलब नही था रथयात्रा से न उसे मतलब था भगवान जगन्नाथ से उसे तो सिर्फ अपनी सखी से मतलब था इसलिए ही ये नीलान्चल धाम आई थी ….गौरांग देव को अपनी सखी का दुःख सुनाना था…….
अब वो लौट आई है …..विष्णुप्रिया के गले लग कर ये बहुत रोई …..विष्णुप्रिया ने रोते हुये पूछा था …..कैसे हैं मेरे नाथ ? वो बोली – सखी ! पहले मैं निष्ठुर समझती थी गौरांग देव को ….किन्तु उनके हृदय में तो तुम्हारे प्रति प्रेम है । विष्णुप्रिया ने जब ये सुना तो उसका हृदय शीतल हो गया …..उसे बहुत अच्छा लगा …..अपने निकट बैठाकर कान्चना से पूछ रही है प्रिया ….बता ना सखी ! नीलान्चल धाम में क्या कहा मेरे नाथ ने ? कान्चना बोल नही पा रही है ….उसे बस रोना आ रहा है । क्या मेरा नाम लिया प्राणनाथ ने ? विष्णुप्रिया बार बार पूछ रही है …………….
“सखी ! मैं पहुँची थी नीलान्चल में ….मेरे साथ जो जो वृद्ध लोग थे …उन सबको तो भगवान जगन्नाथ के दर्शन की पड़ी थी ….किन्तु मुझे तो सिर्फ गौरांग देव से मिलना था और उन्हें तुम्हारा सन्देश देना था “।
विष्णुप्रिया ध्यान से सुन रही है कान्चना की बातें ….कान्चना अपनी सखी को बता रही है ….उसी समय शचि देवि भी जैसे तैसे अपने पलंग से उठकर आगयीं थीं …कान्चना की बातें उन्हें भी सुननी हैं ….वृद्ध भक्त ईशान जो सेवा में हैं यहाँ …वो भी आकर खड़े हो गये थे …कान्चना बोल रही है ।
मिलना ? अरे उनके दर्शन कर लो यही बहुत बड़ी बात है , हमारे गौरांग देव स्त्री का मुख नही देखते …..गौरांग देव के एक भक्त मुझे मिल गये वहीं पुरी में …मैंने उनसे प्रार्थना की तो उन्होंने मुझे कहा ….मिलना है ? एकान्त में कुछ कहना है ? ये सम्भव नही है ।
मैं चिन्ता में पड़ गयी …अब क्या करूँ ? सखी ! तुम्हारा सन्देश तो मुझे देना ही था और सबके सामने नही एकान्त में …पर ये कैसे होगा ? फिर मन में आया उनका जोग हठ है तो मेरा भी त्रिया हठ है …वो नही मिलेंगे तो भी मुझे मिलना है …मैं भी जिद्दी , कान्चना अपनी घटना बता रही है ।
प्रिया ! इस तरह समय बीत रहा था , मुझे कुछ नही सूझा ….मैं उस मोहल्ले में जाती जहां गौरांग देव रहते थे …वहाँ के लोगों से मिलती …गौरांग देव के भक्तों से मिलती ….उनसे वार्ता करती …मुझे मिलना आवश्यक है ….ये भी बताती ….किन्तु सबका उत्तर यही था ….गौरांग देव निष्ठा के पक्के हैं ….वो अपने सिद्धान्त से समझौता नही करते । मैं निराश हताश होने लगी …..कुछ समझ में नही आरहा था …..मुझे भीतर जाने नही दिया जाएगा ….स्त्री का प्रवेश निषेध है ।
एक दिन मैंने देखा कि आचार्य चन्द्रशेखर और उनकी पत्नी जो गौरांग देव की मौसी लगती हैं ….शचि देवि ने कहा …हाँ , वो लोग भी गये हैं जगन्नाथ पुरी ।
हाँ , वहीं मैंने उनको देखा …वो दोनों जा रहे थे गौरांग देव से मिलने …मैंने प्रणाम किया उनको ….तो आचार्य जी बड़े प्रसन्न हुए मौसी भी मुझे देखते ही खुश हो गयीं …..कान्चना! तू यहाँ कब आई ? मैंने भी कह दिया …मौसी ! तीन दिन हुए हैं ……वो भीतर जा रहे थे ….मैंने समझ लिया कि इनको कोई रोक टोक नही है …क्यों की वृद्धा हैं ये और मौसी लगती हैं …मौसा जी तो आचार्य चन्द्रशेखर हैं हीं ….इनको कोई रोक सकता नही था । काकी मेरा हाथ पकड़ कर बोली ….चल मिल ले गौरांग से । उनके साथ मैं भीतर चली गयी ..किसी ने मुझे रोका भी नही …क्यों की आचार्य चन्द्रशेखर को सब जानते ही थे ।
कई भक्तों के मध्य गौरांग देव बैठे हैं ……..
विष्णुप्रिया ने जब ये सुना तो उसे रोमांच होने लगा ……
सखी ! भक्त लोग उनसे वार्ता कर रहे थे ….वो सबकी बातें सुन रहे थे और प्रत्येक भक्त को देख भी रहे थे । मैं डरी हुयी थी ….स्त्री मैं ही थी उस मण्डली में ….वृद्धा मौसी थीं जिनके साथ मैं चली आई थी …..पर वो वृद्धा थीं और गौरांग देव की मौसी थीं …किन्तु मैं तो ।
मेरी ओर देखा गौरांग देव ने …मैं भी अब डरी नही …क्यों डरूँ …उनकी धर्मपत्नी की सखी हूँ इतना तो अधिकार बनता ही है मेरा भी । किन्तु प्रिया ! उनकी दृष्टि मुझ पर ठिठक गयी ….वो आगे किसी ओर को देख न सके …पहले तो मुझे देखकर वो पहचानना चाह रहे थे …पर जब उन्होंने पहचाना तब उनकी दृष्टि करुणा से भर गयी थी । मैं भी उन कमल नयन को देखती रही …….
निमाई ! ये तेरी माता ने कुछ भेजें हैं …..मौसी गौरांग देव को देने लगी तो मैंने अवसर जान कर उसे ले खड़े होकर गौरांग देव के हाथों में दे दिया ….आँखें बन्दकर कृष्ण स्मरण करते हुये गौरांग देव ने माता के द्वारा दिया गया वो प्रसाद खा लिया । मैं उस समय वहीं खड़ी रही ….मुझे कोई रोकने वाला वहाँ था नही क्यों की सब पहचान गए थे कि ये लोग नवद्वीप के हैं और गौरांग प्रभु के सम्बन्धी हैं । हस्त प्रक्षालन करना है गौरांग देव को …..वो उठे ….उनका एक भक्त जल पात्र लेकर आया …..मैंने अवसर जान कर उस पात्र को भक्त के हाथों से ले लिया ….गौरांग देव ने ये सब देखा नही …..बाहर गये तो मैं ही मात्र उनके साथ थी …हाथ धुलाया उनका …..वो धो रहे थे कि तभी मैंने उनसे कहा – सखी बहुत याद करती हैं आपको ? मेरी बात सुनते ही अपने विशाल नयनों से मुझे देखा ……मैंने उनसे फिर कहा …..वो मुझ से एक ही प्रश्न करती है ..दिन बीतते मास हो गये मास बीतते वर्षों हो गये ….सखी ! बताना मेरे नाथ क्या मुझे दर्शन देंगे ?
गौरांग देव स्तब्ध हो गये थे …….
किन्तु मैं चुप नही रही मैं भी बोलती गयी ….राह देखते देखते आपकी माता अन्धी हो गयीं हैं ….मैं मर जाऊँगी ….उससे पहले एक बार और निमाई को देखना चाहती हूँ …..क्या हो पायेगा ? मेरी बात सुनकर गौरांग देव असहज हो गये ….किन्तु मैंने बोलना न छोड़ा । और आपकी पत्नी की स्थिति तो अत्यन्त सोचनीय है ….वो दिन भर रोती रहती है …वो रात भर जाग कर अपना सिर दीवारों में पटकती रहती है …..वो आपकी विष्णुप्रिया है ….उसके रोम रोम में बस आप हो ….कुछ नही खाती है वो ….अन्न का दाना क्या जल की एक बूँद भी अपने मुख वो तब रखती है जब माता शचि जबरदस्ती करती हैं , तब । उसकी आँखें सदैव द्वार पर लगी हैं कि मेरे नाथ आयेंगे …..ये सब सुनकर गौरांग देव वहाँ से चलने लगे थे ….तो मुझ से रहा नही गया मैं हिलकियों से रो पड़ी …..वो मर जाएगी । वो विष्णुप्रिया मर जाएगी ….आप बचा लीजिये उसे ….आप ही बचा सकते हैं ।
माँ कैसी हैं ? गौरांग देव ने माता के विषय में पूछा ।
कोई ठीक नही है ….माता अब कान से कम सुनती हैं …..उन्हें दिखाई भी कम देता है …..
एक बार भगवान जगन्नाथ प्रभु के दर्शन करा दो ….गौरांग देव ने कहा ….और वो अपने भक्तों की ओर बढ़ने लगे ….हे गौरांग देव ! मेरी सखी विष्णुप्रिया के विषय में ? मैंने पूछा …तो उन्होंने केवल इतना ही कहा ….अभी क्या चाहती है वो ? मैंने कहा – उसका कहना है सबको प्रेम देने वाले है आप ….फिर आपकी दासी विष्णुप्रिया ही वंचित क्यों ? गौरांग देव ने इसका भी कोई उत्तर नही दिया …तो मैंने उनके सामने हाथ जोड़े ….मैं रोने लगी ….मुझे रोता देख वो फिर बोले …मैं क्या करूँ ? मैंने उनसे हाथ जोड़कर कहा ….विष्णुप्रिया ने कहा है …आप एक बार उसका नाम ले लो ….अपने मुख से एक बार “विष्णुप्रिया” कह दो ।
बस इतना सुनते ही गौरांग देव की आँखें अश्रुओं से भर गयीं ….वो मुझे अपलक देखते रहे ….दो तीन बूँदे अश्रुओं की बाहर भी निकल आईं थीं …रक्तिम मुख हो गया था उनका । उनके अधर काँप रहे थे ….उनसे बोला नही गया ।
ये देखते ही मैं वहाँ से चल दी …..मुझे देखना था कि मेरी सखी के नाम से गौरांग का हृदय द्रवित होता है या नहीं …..किन्तु हो गया ….मेरी सखी ! तेरे नाम की मोहिनी शक्ति को मैंने अनुभव किया ….उसके बाद मुझे पुरी में रहने से कोई प्रयोजन नही था इसलिए मैं चली आई ….मुझे ये सब तुझे बताना था ।
विष्णुप्रिया ने कान्चना की ओर देखा …और पूछा – तुझे क्या लगा ?
सखी प्रिया ! मुझे तो यही लगा कि ….गौर के हृदय में विष्णुप्रिया रूपी ज्योति निरन्तर जल रही है …वो सदा सनातन है ….वो कभी बुझेगी नही ।
ये सुनते ही विष्णुप्रिया ने आनंदित होकर कान्चना को अपने हृदय से लगा लिया था ।
शेष कल –


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