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October 24, 2025 11:30 am

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!! राधाबाग में – “श्रीहित चौरासी” !! – भूमिका : Niru Ashra

!! राधाबाग में – “श्रीहित चौरासी” !! – भूमिका : Niru Ashra

!! राधाबाग में – “श्रीहित चौरासी” !!

( भूमिका )

बात आज की नही है करीब पाँच वर्ष पूर्व की है …मेरे ऊपर श्रीजी की विशेष कृपा रही कि मुझे नारद भक्ति सूत्र और श्रीहित चौरासी के श्रवण का अवसर मिला …वो भी पागल बाबा जैसे सिद्ध पुरुष के द्वारा । मुझे मित्र भी मिले तो शाश्वत और गौरांगी जैसे ।

हरि जी ! बरसाने चलोगे ? इन दिनों शाश्वत बरसाने ही वास कर रहा है ।

कल सुबह ही सुबह गौरांगी का फोन आया ….उसकी बात सुनकर मैं कोई उत्तर देता उससे पहले ही वो बोल पड़ी …..वैसे भी श्रीविष्णुप्रिया जी का पावन चरित्र आपने पूर्ण किया है ….इसके उपलक्ष्य में ही बरसाने चलो …अब हरि जी ! कोई बहाना तो बनाना मत । मैं हाँ बोल दिया । पर गौरांगी के फोन रखने से पहले मैंने कहा – कल से क्या लिखूँगा वो विषय अभी तक तैयार नही है ।

हरि जी ! आप कब से विषय तैयार करने लगे ? आप तो कहते हो सब श्रीजी तैयार कर देती हैं मैं तो मात्र उसे उतार देता हूँ …इस बात पर मैं चुप हो गया । और चलने का समय हम लोगों ने शाम के चार बजे रखा ।

मुझे कुछ पता था नही ….शाश्वत हमारी प्रतीक्षा में ही बैठा था “श्रीराधा बाग” में ।

( कभी बरसाना जायें तो इस स्थान का दर्शन अवश्य करें , यहाँ श्रीजी रात्रि में विहार करने आती हैं …आपको अनुभव हो जाएगा )

श्रीजी के दर्शन पश्चात् हम लोग श्रीराधा बाग में गये ……वहीं शाश्वत बैठा हुआ था ….मुझ से गले मिला …..पूरा फक्कड़ हो गया है …उसे देखकर मुझे रोमांच हुआ । कुछ देर हम बैठे रहे ध्यान करते रहे …..फिर गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद सुनाया ……

“जोई जोई प्यारो करै , सोई मोहिं भावै” ।

अद्भुत समय था वो ….स्थान यही था …श्रीहित चौरासी का गायन गौरांगी करती थी फिर पागल बाबा उसका भाव समझाते थे …नही नही समझाते नही थे अनुभव करा देते थे ….उस रस लोक में हमें पहुँचा देते थे …बात पाँच वर्ष पूर्व की है …मैं उन दिनों श्रीवृन्दावन से बरसाने आता जाता था और बाबा वहीं श्रीराधा बाग में हीं विराजे थे |

दूसरे ही दिन शाश्वत ने मुझ से कहा ….क्या हरि जी ! आप कल से बाबा के इस सत्संग की रिकोर्डिंग करवा दोगे ? मैंने कहा …मेरे पास एक रिकोर्डर है ..उसमें मात्र आवाज आजाएगी । शाश्वत ने कहा ….चलेगा । दूसरे दिन मैं लेकर गया …और बाबा के उस रस पूर्ण प्रवचन की रिकोर्डिंग आरम्भ कर दी । कुँज हैं वहाँ ….लता वृक्षों से आच्छादित वाटिका है वो …कुआँ है वहाँ , उसका जल अमृत के समान है …वो हम पीते थे ..उस जल को लेकर भी आते थे ….शाश्वत तो स्नान करता था ….बाबा उसे देखकर हंसते थे ।

हरि जी ! आप श्रीहित चौरासी पर क्यों नही लिखते ?

गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का प्रथम पद पूरा कर लिया था …उसके बाद उसने ये बात मुझ से कही थी ।

रिकोर्डिग तो होगी ना बाबा की ? शाश्वत ने ये और पूछ लिया ।

हाँ , होगी तो …..बस , फिर तो हरि जी ! आप लिखिये ….गौरांगी आनंदित हो गयी ।

मैं कुछ नही बोला …..क्यों की श्रीहित चौरासी पर लिखना कोई साधारण बात तो है नही…..श्रीजी की कृपा बिना ये सम्भव ही नही है । तभी एक बरसाने के पण्डा भी वहाँ आगये …और उन्होंने पीछे से आकर मुझे श्रीजी की प्रसादी नीली चुनरी ओढ़ा दी ।

लो , अब तो कृपा भी हो गयी …..शाश्वत ने कहा । “इनपे तो श्रीजी की पूरी कृपा है”…..उन बरसाने के पण्डा ने ये और कह दिया । मैं अब तनाव में था …..मुझे इन दोनों ने तनाव दे दिया था …..यार ! श्रीहित चौरासी पर लिखना साधारण बात है क्या ? किसने कहा साधारण बात है ….पर हरि जी ! आपके ऊपर श्रीजी की कृपा है …..वही लिखवायेंगी । गौरांगी ने ये सब कहा ….शाश्वत भी खूब बोला …..पर मन में तो तनाव था ही …..ओहो ! हरि ! तू लिखेगा, श्रीहित चौरासी पर ?

मैं अब श्रीधाम वृन्दावन आगया था ।

मेरे पास बस श्रीहित चौरासी के पद हैं …और पागल बाबा की रिकोर्डिंग । मैं सुनने लगा …दस मिनट ही हुये होंगे कि आह ! सुनते सुनते मैं सहचरी भाव से भावित हो उस दिव्य वृन्दावन में प्रवेश कर गया था……….


यन्त्री यहाँ सखियाँ हैं …यन्त्र श्यामाश्याम हैं …ये प्रेम की अद्भुत लीला है ….अन्य स्थानों में श्रीकृष्ण यन्त्री हैं और उनके जीव यन्त्र हैं …पर यहाँ ऐसा नही है …ये प्रेम है ..ये प्रेम की भूमि है …इस प्रेम की भूमि श्रीवृन्दावन में प्रिया प्रियतम यन्त्र के समान बन गये हैं और इनकी संचालिका सखियाँ हैं ….वो जहां कहतीं हैं ये दोनों युगल वर वहीं चल देते हैं । दोनों युगल की सन्धि यही सखियाँ हैं …..प्रेम की विलक्षण रीति अगर देखनी है तो आओ श्रीवृन्दावन । देखो यहाँ ….श्रीराधा तो एक अद्भुत रस तत्व हैं जिनमें इतनी सामर्थ्य है कि ब्रह्म को अपने एक संकेत में नचा देती हैं …वो ब्रह्म , वो परब्रह्म सखियों से प्रार्थना करता हुआ पाया जाता है कि – हे सखियों ! कृपा करके श्रीजी की चरण सेवा मुझ दास को भी मिले । पर सखियाँ अपना सुभाग श्याम सुन्दर को क्यों दें ? वो हंसते हुए श्याम सुन्दर के कोमल कपोल में हल्की प्रेम भरी चपत लगाते हुए “ना” कहकर चल देती हैं ।

प्रेम में पूज्य पूजक भाव का अभाव दिखाई देता है ….प्रेम में तो निरन्तर निकट रहने का सम भाव है ….अब जहां निरन्तर रहा जाता है वहाँ पूज्य पूजक भाव सम्भव नही है । सखियाँ वह तत्व हैं जो उस युग्म तत्त्व के निकट सदैव हैं …सनातन हैं । इस प्रेम में संकोच ,लज्जा और भय भी प्रेम रूप ही बनकर दिव्य शोभा पा जाते हैं । भय नही है सखियों को ….इसलिए तो वह श्याम सुन्दर को जब श्रीराधा रानी के पास आते हुए देखती हैं तो कह देतीं हैं ……

किं रे धूर्त प्रवर निकटं यासि न प्राण सख्या ।( श्रीराधा सुधा निधि )

अर्थात् – क्यों रे धूर्त ! देखो , है किसी में हिम्मत , जो परब्रह्म को धूर्त कह दे ? पर ये श्रीवृन्दावन की सखियाँ हैं ….जो कहती हैं ओ धूर्त ! और धूर्त ही नही …धूर्त प्रवर ! धूर्तों में भी श्रेष्ठ ! तू हमारी प्राण प्यारी श्रीराधा जू के निकट क्यों आ रहा है ? हाँ हम जानती हैं तू हमारी सखी श्रीराधा के वक्षस्थल को छूना चाहता है …मत छूना । अगर छू लिया तो फिर तेरी ईश्वरता समाप्त हो जाएगी । तभी श्याम सुन्दर उस सखी के चरणों में गिर जाते हैं ….सखी ! मुझे इस ईश्वरता से मुक्ति दिला । और सखी ये सुनते ही तुरन्त आगे बढ़ती है और श्रीराधा रानी के चरण रज को लेकर श्याम सुन्दर के माथे पर रगड़ देती है ….बस फिर क्या था …श्याम सुन्दर विशुद्ध प्रेम रस में डूब जाते हैं और उन्हें ईश्वरत्व से मुक्ति मिल जाती है । ओह ! अद्भुत प्रेम रस की बाढ़ आगई है इस श्रीवन में तो ।

ये है श्रीवृन्दावन रस …..इसमें श्रीराधा हैं , उनके प्रियतम श्याम सुन्दर हैं , सखियाँ हैं …और इनका ये विलास चलता है ….चलता ही जाता है ।

ये प्रेम नगरी है ….यहाँ की रीत ही अलग है …..संसार जिसे धर्म मानता है वो यहाँ अधर्म है …अपने से बड़े को “तू” कहना संसार में अधर्म है …किन्तु इस प्रेम नगरी के संविधान में “आप” कहना अधर्म है । हंसना रोना है यहाँ, और रोना हंसना है इस राज्य में । मान करना ये आवश्यक है यहाँ …रूठना मनाना यही रीत है यहाँ की । अधरों का रस अमृत है इस नगरी का । गाली देना प्रशंसा है और प्रशंसा गाली है …..क्या कहोगे ? कुछ नही , बस अनुभव करो । डूब जाओ । ये प्रेम है , ये प्रेम का पन्थ है …यहाँ संभल कर चलना पड़ता है ।

“चरन धरत प्यारी जहाँ , लाल धरत तहँ नैंन”

ये विलक्षणता और जगह नही मिलेगी ।

मेरी प्यारी को कंटक न चुभें इसलिये लाल जू अपने पलकों की बुहारी बनाकर उस कुँज को बुहार डालते हैं ।

( इसके बाद पागल बाबा मौन हो जाते हैं और “राधा राधा” की मधुर ध्वनि सुनाई देती है जो गौरांगी गा रही थी )


ये सब लिखते हुए मन में डर भी लग रहा था कि ….इस उच्चतम प्रेम रस को मुझे लिखना चाहिए या नही ? मन में आया कि वैसे भी लोग आज कल रासलीला को ही नही पचा पाते …फिर ये तो दिव्य श्रीवृन्दावन की नित्य लीला रस है ….इसको लोगों ने नही समझा और गलत अर्थ लगा लिया तो ? मन में ये भी आया …मैं लिख दूँ ..कि “जो साधक नही हैं वो इसे न पढ़ें” फिर मन में आया कि साधक तो सभी अपने को मानते हैं ….तब मुझे श्रीहित चौरासी का ये पद स्मरण आया ………

( जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसित श्यामा , कीरति विसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर , विस्व दुरित दवनी ।

आहा ! श्री हित हरिवंश जू कहते हैं – मेरे द्वारा गाये हुए श्यामा जू की कीर्ति जो पवित्र है और इससे भी अत्यधिक है …इसका जो गान करेगा जो सुनेगा उसे परम सुख की प्राप्ति होगी ..और जो इन ( चौरासी ) के पद को जन जन में फैलायेगा उससे विश्व का पाप ताप समाप्त हो जाएगा ।

ये स्मरण में आते ही मुझे आनन्द आगया था ….कि इससे मंगल ही होगा …व्यक्तिगत सुख की प्राप्ति होगी और विश्व का पाप ताप कम होगा । है ना प्रेम में ताक़त ? तो मेरे साधकों ! ये मैंने “राधाबाग में-श्रीहित चौरासी” आज से प्रारम्भ किया है ….दो तीन दिन और भूमिका में समय लूँगा ….फिर श्रीहित चौरासी के एक एक पद और उसकी व्याख्या । बड़ा रस आयेगा ….आप अवश्य पढ़िएगा ….इससे आपका मंगल ही मंगल होगा ।

आगे की चर्चा अब कल –

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