!! राधाबाग में – “श्रीहितचौरासी” !!
( भूमिका – 2 )
गतांक से आगे –
“राधा बाग” जहां दर्शन होते हैं …”एक प्राण दो देह” के ।
पागल बाबा ने अपने नेत्र खोल लिये अब । वो ध्यान में थे , वो सखी भाव से “नित्य श्रीवृन्दावन”में श्यामा श्याम की सेवा में लीन थे । कोयल की कुँहु से राधा बाग गूंज रहा था …अनेक मोर पंख फैलाए हुए थे बस नाचने की उनकी तैयारी ही थी ….क्यों की श्याम घन नभ में छा गये थे …गर्जने लगे थे मेघ ….चमक ने लगी थी चंचला ।
हाँ , मैं कुछ अस्थिर था ….किन्तु बाबा गौरांगी और शाश्वत स्थिर थे ….”भींग जायेंगे”…आनन्द आयेगा हरि जी ! गौरांगी चहकते हुए बोली थी । मुझे देखकर पागल बाबा गम्भीर ही बने रहे । मैंने सिर झुका लिया …आज तो पूरे ही भीगेंगे । मैं अब तैयार था ….फिर भी ऊपर देखा वृक्ष लता घने हैं , तमाल का कुँज है …इसमें से बूँदे कम ही पड़ेंगी गौरांगी ?
मेरी बात सुनकर अब पागल बाबा हंसे …..खूब हंसे ।
“रस मार्ग” क्या भक्ति मार्ग से अलग मार्ग है ?
अब शाश्वत ने ये प्रश्न किया था बाबा से ।
“वह रस है” ( रसो वै स:) यह वेद वाक्य है । पागल बाबा कहना प्रारम्भ करते हैं ।
भक्ति मार्ग का जो सर्वोच्च शिखर है वो “रस मार्ग” है । भक्ति मार्ग से अलग नही है ये रसोपासना । किन्तु ये उसकी ऊँचाई है , ये भक्ति की ऊँचाई है ।
अब सुनो – भागवत में नवधा भक्ति का वर्णन है ….तो शुरुआत तो वहीं से होगी …रस उपासकों को आरम्भ भक्ति से ही करना होगा । और उसका क्रम है …श्रवण , कीर्तन , स्मरण , चरण सेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन । भक्ति ये है …और भक्ति मार्ग “आत्म निवेदन” में जाकर विश्राम ले लेती है …..किन्तु समझने की बात ये है कि “रस मार्ग आत्मनिवेदन से प्रारम्भ होता है”……ये अद्भुत बात है इसकी । हमारी दिक्कत क्या है ….हम सीधे रसोपासना की बात करते हैं ….नही , पहले हमें नवधा भक्ति को स्वीकार करना होगा । और अपने आपको सौंप देना होगा । अब कुछ नही ….तू जो करे । तू जो कराये ।
( पागल बाबा यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं )
गौरांगी ! जिसकी चर्चा हम प्रेम भूमि में बैठकर करने वाले हैं …”श्रीहित चौरासी” ये रसोपासना का मुख्य ग्रन्थ है । इसलिये इसकी शुरुआत कहाँ से होती बताओ ? गौरांगी बताती है …”जोई जोई प्यारो करै सोई मोहि भावै”। बस ये प्रारम्भ है रसोपासना का । पूर्ण समर्पण हो गया , हम पूरे तुम्हारे हो गये , देह , मन , बुद्धि , और चित्त अहंकार ….सब कुछ तुम्हारा ।
देखो ! भक्ति प्रारम्भिक अवस्था है …..किन्तु ये रस मार्ग । रस यानि प्रेम …ये विलक्षण मार्ग है …..ये भक्ति का फल है …..
भक्ति में द्वैत रहता है …..भक्त है तो भगवान है ….अब भगवान है तो उसमें ऐश्वर्य है ….और जहां ऐश्वर्य है वहाँ पूर्ण प्रेम का प्रकाश सम्भव नही है …छ दिन के श्रीकृष्ण पूतना जैसी राक्षसी का संहार कर देते हैं । छ दिन के बालकृष्ण ने ….छ दिन के ने ? प्रश्न सहज उठता है तो समाधान इसका ये होता है कि – “वो भगवान हैं”। अब भगवान हैं तो दूरी है ….वहाँ प्रार्थना तो हो सकती है किन्तु प्रेम नही हो सकता । प्रेम के लिए अपनत्व चाहिये ….अपनापन चाहिये ….तो रसोपासना अपनत्व की साधना है ….इसमें श्यामसुन्दर भगवान नहीं हैं …अपने हैं …जैसे अपना कोई “प्रिय”हो । अब “प्रिय” भी इतना “प्रिय” कि उसे जो “प्रिय” लगे वो हमें भी “प्रिय” लगे ।
प्रेम की गति अटपटी है …….पागल बाबा आनंदित हो उठते हैं ।
प्रेम दो चाहता है ….एक प्रेमी और एक प्रियतम । दो बिना प्रेम बन ही नही सकता । प्रेम दो तैयार करता है ….फिर जब दो हो जाते हैं ….तो ये प्रेम तत्व उसके पीछे तब तक पड़ा रहता है जब तक दोनों को एक न बना दे । ( शाश्वत ये सुनते ही “वाह” कह उठता है )
प्रेम आत्मा की प्यास है …..प्रेम सब चाहते हैं …..सकल जहां , जीव जन्तु समस्त चराचर प्रेम को ही चाहते हैं ….प्रेम ही समस्त सृष्टि की प्यास है …..इसलिये जहां जिसको प्रेम मिलता है …वो सब कुछ छोड़कर भाग जाता है ….है ना ? लड़की लड़के सब भाग जाते हैं ….बाबा हंसते हैं – तुम लाख समझाओ …शास्त्र का उदाहरण दो …माता पिता भगवान हैं उनकी बात मानों …तुम समझाओ …तुम समझाते हो ….नर्क स्वर्ग का डर दिखाते हो …पर ये नही मानते । प्रेम के पीछे भाग जाते हैं । हाँ , उन्हें प्रेम का आभास मात्र मिलता है वहाँ ….प्रेम नही …किन्तु आभास ही सही ….है तो प्रेम का ही …..इसलिये वो भाग जाते हैं ।
“प्रीति न काहूँ की कानि विचारे”
प्रेम कहाँ कुल ख़ानदान का विचार करती है …विचार ही करे तो प्रेम ही क्या हुआ ?
( बाबा कुछ देर यहाँ एक मोर को देखते हैं जो अपने पंखों को फैला रहा था )
अच्छा सुनो , भक्ति के साधकों को “भक्त” कहते हैं …किन्तु रस मार्ग के साधक को “रसिक” कहा जाता है …भक्ति में जीव अंश ईश्वर अंशी …ये द्वैत है । ये रहता है । किन्तु रसोपासक में सारे भेद मिट जाते हैं ….वहाँ केवल रस है…( बाबा मुस्कुराते हैं ) वहाँ सब रस है …श्रीवृन्दावन रस है …उस प्रेम वन के राजा श्यामसुन्दर रस हैं , वहाँ की महारानी श्रीराधा जू रस हैं ..सखियाँ रस हैं ….लता पत्र रस हैं …यमुना में रस ही बह रहा है । इस वन के पक्षी रस हैं …..ये ताक़त रस की है …जो सबको रस में ही डुबोकर मानता है …और सबको रसमय बनाकर ही मानता है । अद्भुत है ये सब । अरे , वो रस जब छलकता है तो चारों ओर उसी का साम्राज्य हो जाता है । रस ही रस …रसमय हो जाता है सब । इसकी जो उपासना करता है …वो भी रस ही बन जाता है ….जैसे – चीनी को पानी में डाला ….अब चीनी कहाँ हैं ? वो तो शर्बत हो गया ना ! न चीनी है न पानी रह जाता है …वो तो शर्बत हो गया । ऐसे इस प्रेम के मार्ग में धीरे धीरे जीव का जीवत्व समाप्त हो जाता है और ईश्वर का ईश्वरत्व भी समाप्त हो जाता है ….दोनों एक हो जाते हैं ….अपना अपना नाम अपना रूप सब खो बैठते हैं ।
अर्थात् – जब ईश्वर को अपने ईश्वरत्व की विस्मृति हो जाये और जीव , अपने जीव भाव को भूल जाये ….तब समझना ये प्रेम राज्य है । और ये प्रेम राज्य में ही सम्भव है ।
जीव अरु ब्रह्म ऐसैं मिलैं , जैसे मिश्री तोय ।
रस अरु रसिक तबै भलैं, नाम रूप सब खोय ।।
ईश्वर की ईश्वरता खो गयी ….बाबा कहते हैं – देखो इस प्रेमवन श्रीवृन्दावन में ……
यमुना जी बह रही हैं …शीतल सुरभित पवन चल रहे हैं ….चारों ओर फूलों की फुलवारी है ….वहीं पर पद्मासन में विराजे हैं श्याम सुन्दर । अरे ! ये क्या कर रहे हैं , पास जाकर दर्शन किया तो चौंक गये ….अरे ये तो महायोगियों की तरह ध्यानस्थ हैं …नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे हैं …पीताम्बरी अश्रुओं से भींग गयी है ….और निकट जाकर देखा तो …उनके अरुण अधर हिल रहे हैं …वो “राधा राधा राधा “ नाम का जाप कर रहे हैं ।
( इसके बाद राधा बाग में वर्षा शुरू हो गयी थी …..बाबा तो देहातीत हो गये थे ….गौरांगी ने गायन प्रारम्भ कर दिया था , शाश्वत ध्यान में चला गया था , मैं नाच रहा था ….वर्षा में भीगता हुआ , मेरा साथ उन राधा बाग के मोरों ने दिया …..सब “रस” था वहाँ , सब “रसिक” थे ।)
आगे की चर्चा अब कल –
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