!! राधा बाग में – “ श्रीहित चौरासी” !!
( “जोई जोई प्यारौ करै”- प्रेमी के चित्त की एकता )
गतांक से आगे –
सहचरी भावापन्न होकर प्रातः की वेला में बैठिये …भाव कीजिये कि – आप श्रीवृन्दावन में हैं ….यहाँ चारों ओर लता पत्र हैं ….यमुना बह रही हैं …दिव्य रस प्रवाहित हो रहा है ..जिससे मन अत्यधिक आनन्द का अनुभव कर रहा है …..नही नही आपको आनन्द में अभी बहना नही हैं ..आप तो सहचरी हैं ….सहचरी कभी भी अपना सुख ,अपना आनन्द नही देखती …जो अपना सुख देखे वो तो इस “श्रीवृन्दावन रस” का अधिकारी ही नही है ..आपको ये बात अच्छे से समझनी है , हमारा सुख , जो हमारे प्रिया प्रियतम हैं उनको सुख देने में है ..यही इस रसोपासना का मूल सिद्धान्त है ।
राधा बाग आप प्रफुल्लित है …हो भी क्यों नहीं ….प्रेम की गहन बातें आज प्रकट होने वालीं हैं ….वैसे प्रेम के गूढ़ रहस्य को इन बृज के लता पत्रों से ज़्यादा कौन समझेगा ? यहाँ की भूमि प्रेम से सींची गयी है …..युगल वर ने ही सिंचन किया है । प्रातः की वेला है ….सब प्रमुदित हैं…….पागल बाबा ध्यान में बैठे हैं …..गौरांगी वीणा के तारों को सुर में बिठा रही है …शाश्वत बाग में पधारे साधकों को “श्रीहित चौरासी जी” बाँट रहा है ..ताकि वो सब भी साथ साथ में गायन करें । कुछ लोग बम्बई से आए हुए हैं ….कौतुक सा लगा तो राधा बाग में आगये …पर शाश्वत ने उन्हें बड़े प्रेम से कहा ….ये सत्संग आप लोगों के लिए नही है …..क्यों ! हिन्दी में नही बोलेंगे महाराज जी ? इस पर शाश्वत का उत्तर था …उनकी भाषा ही अलग है …जिसे आप नही समझ पायेंगे । उन लोगों को भी कोई आपत्ति नही थी …क्यों की वो लोग कौतुक देखने आये थे …पर यहाँ कौतुक की बात नही …प्राणों की बाज़ी लगाने की बात थी …”जो शीश तली पर रख न सके वो प्रेम गली में आए क्यों “ ।
“आप लोग भी अगर पाश्चात्य की छूछी नैतिकता के तथाकथित विचार से बंधे हैं तो कृपा करके उठ जाइये” ..शाश्वत अन्यों को भी हाथ जोड़कर कहता है ……
“क्यों कि ये दिव्य प्रेम की ऊँची बात है “ ।
अब पागल बाबा नेत्र खोलकर गौरांगी की ओर देखते हैं ….उसे संकेत करते हैं ….कि श्रीहित चौरासी जी का प्रथम पद गायन करो ….और वीणा में अपने सुमधुर कण्ठ से गौरांगी गायन शुरू करती है …………पूरा राधा बाग झूम उठता है ।
!! ध्यान !!
श्री श्री महाप्रभु हित हरिवंश जी द्वारा रचित श्रीहित चौरासी जी का पाठ करने से प्रेम राज्य में प्रवेश मिलता है …..इसलिये रसोपासना के साधकों को इसका पाठ करना ही चाहिये ….पर पाठ सिर्फ शब्दों को पढ़ना नही ……ये तो मात्र बेगारी भरना है ….कि नित्य पाठ करते हैं तो जल्दी जल्दी कर लें ….फिर थोड़ा घूम फिर आयें । नहीं । पहले ध्यान कीजिये …एक बात स्मरण रखिए …हर पद “श्रीहित चौरासी” का नयी झाँकी को प्रस्तुत करता है …एक पद दूसरे पद से जुड़ा नही है …हर पद अपने में पूर्ण है …इसलिये हर पद का अपना ध्यान है …….इतना कहकर पागल बाबा हमें ध्यान की गहराईयों में ले जाते हैं ।
नेत्र बन्द कीजिये और भाव राज्य में प्रवेश …..
* प्रेम भूमि श्रीवृन्दावन है …प्रातः की वेला है …वसन्त ऋतु है …चारों ओर सुखद वातावरण है …यमुना कल कल करती हुई बह रही हैं …लता पत्र झूम रहे हैं ….पूरा श्रीवन नव नव पल्लवों से आच्छादित है …लताओं में पुष्पों का भार कुछ ज़्यादा ही हो रहा है इसलिये वो झुक गये हैं । नाना प्रकार के कुँज हैं ….उन कुंजों की शोभा देखते ही बनती है …कुँज के भीतर एक कुँज और है ….उसकी शोभा तो और अद्भुत है । उसी कुँज में प्रेम, माधुर्य और रस की स्वामिनी श्रीराधा रानी विराजमान हैं …..ये अभी उठीं ही हैं …..अरे ! श्याम सुन्दर भी विराजे हुये हैं …..स्वामिनी श्रीराधिका जू ने अपनी कोमल भुजा को श्याम सुन्दर के कण्ठ में लपेट दिया है । उनकी सुन्दर कुसुम शैया है ….तभी ….एक सुन्दरी सखी वहाँ आजाती है …..अरे ! इनको प्रणाम करो …यही आपकी गुरु रूपा हैं …यही “हित सजनी” हैं ……प्रेम में मत्त श्रीकिशोरी जी उस अपनी प्यारी सखी को देखती हैं ..और अपने निकट बुलाती हैं ..वो श्रीजी के निकट जाती हैं ..तो हमारी करुणामयी श्रीजी उन सखी को अपने निकट बिठाकर …कुछ कहना चाहती हैं ..पर अत्यधिक प्रेम के कारण वो कह नही पातीं ..वो बार बार प्रयास करती हैं ..किन्तु इस बार तो वो कह ही देती हैं ।
मेरी प्यारी हित सजनी ! आहा , प्रेम रस से छकी श्रीजी ने अपनी सखी से कहा ….
“जोई जोई प्यारौ करै, सोई मोहिं भावै ,
भावै मोहिं जोई , सोई सोई करैं प्यारे ।
मोकौं तो भाँवती ठौर प्यारे के नैननि में ,
प्यारौ भयौ चाहैं मेरे नैंननि के तारे ।
मेरे तन मन, प्रानहूँ तें प्रीतम प्रिय ,
अपने कोटिक प्राण , प्रीतम मोसौं हारे ।
“श्रीहितहरिवंश” हंस हंसिनी साँवल गौर ,
कहौ कौन करै जल तरंगनि न्यारे ।। 1 |
आहा ! अपनी प्यारी सखी से प्रिया श्रीराधा जू कहती हैं ….अरी सखी ! प्यारे जो जो करते हैं ना , वो मुझे सब अच्छा लगता है …..बहुत अच्छा लगता है …श्रीराधा रानी हित सखी का हाथ पकड़ लेती हैं ….अपने और निकट बिठाकर फिर कहती हैं ….प्यारे जो जो करते हैं …सही ग़लत सब , मुझे बहुत अच्छा लगता है सखी ।
क्या वो ग़लत भी करते हैं प्रिया जू ? हित सखी पूछती हैं ….तब प्रिया श्रीराधा जू मुस्कुरा देती हैं और कहती हैं ..नही सखी ! मेरे प्रियतम बहुत प्रेम करते हैं मुझ से ….मुझे जो अच्छा लगता है मेरे प्यारे भी वही करते हैं ।
जैसे ? हित सखी गदगद होकर पूछ रही हैं ।
तो प्रिया जू उत्तर देती हैं …जैसे – मुझे रहने का सुन्दरतम स्थान प्यारे के नयन लगते हैं …तो वो भी मेरे नयनों की पुतरी बन जाना चाहते हैं ……आहा ! सखी ! और मैं क्या कहूँ ….प्यारे मुझे तन , मन प्राण से भी अधिक प्रिय हैं …..तो प्यारे ने मेरे ऊपर अपने कोटि कोटि प्राण न्यौछावर कर दिये हैं ….सखी इससे ज़्यादा मैं कुछ कह नही सकती …..अच्छा ! सखी ! इस बारे में कुछ तो तू बोल ….श्रीराधा जू ने जब अपनी हित सजनी से कुछ कहने के लिए कहा ….तो सखी इतना ही बोल सकी ….हे गोरी और हे श्याम ! आप दोनों दो थोड़े ही हैं …एक हैं …जब एक हैं तो देह , मन , और आत्मा अगर एकत्व की बात करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या ? मेरी भोरी प्रिया जू ! आप दोनों तो प्रेम पयोधि रूप मान सरोवर के हंस हंसिनी हो …..आप तो जल और तरंग की तरह एक हो …अब हे श्रीराधिके ! आप ही बताओ …क्या जल से तरंग को अलग किया जा सकता है ? या तरंग को जल से अलग कर सकती हो ? आप दोनों एक हो ।
आहा ! क्या वर्णन है …..”मैं जो चाहती हूँ प्यारे वही करते हैं …और प्यारे जो करें वो मुझे अच्छा लगता है”…….पागल बाबा के नेत्रों से अश्रु बह चले …..दोनों एक दूसरे के लिए हैं …श्रीराधा जी को अपने तन मन प्राण से भी ज़्यादा प्रिय हैं श्याम सुन्दर तो ….श्याम सुन्दर तो अपने प्राणों को ही श्रीराधा जी में वार चुके हैं …..पागल बाबा इससे ज़्यादा कुछ बोल नही पाये । हाँ इतना अवश्य बोले कि देखो …दो चित्त की एकता ….यही है प्रेम , ….सब अच्छा लगे उसका ।
दोनों प्रेम हैं , और दोनों प्रेमी …दोनों चातक हैं तो दोनों स्वाति बूँद ।
दोनों बादल तो दोनों बिजली ….दोनों ही कमल हैं और दोनों ही भ्रमर हैं …दोनों ही लोहा हैं तो दोनों ही चुम्बक हैं …दोनों आशिक़ हैं तो दोनों महबूब हैं ।
दो हैं , दिखते दो हैं …..पर हैं एक ।
“जोई जोई प्यारो करैं……”
फिर सबने एक बार और इस प्रथम पद का गान किया ।
आगे की चर्चा अब कल –
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