!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( ये चकोरी सखियाँ – “आजु तौ जुवति तेरौ” )
गतांक से आगे –
ये निकुँज की सखियाँ हैं …….
विशुद्ध प्रेम ही इनमें भरा है …..जी ! शुद्ध प्रेम को “रति” भी कहते हैं ….जिसमें कोई उपाधि नही है …ये समस्त उपाधियों से मुक्त हैं – रति , जो प्रेम का एक विशुद्ध रूप है ….ये शुद्ध माधुर्य पर आधारित है….और प्रेम , शुद्ध माधुर्य पर ही आधारित हो तो उसका रूप निखर कर आता है ।
माधुर्य का अर्थ समझ लीजिए …सामान्य नर के समान जो लीला करे वो माधुर्य और ईश्वर के समान जो लीला करे ..वो ऐश्वर्य । आप का प्रियतम आपके जितने करीब होगा …उसके प्रति रस उतना ही बढ़ेगा ….और ईश्वर की भावना आपके अन्दर आगयी तो फिर आप विशेष करीब नही हो पायेंगे …वहाँ कुछ तो दूरी रहेगी रहेगी …और दूरी बनी रही तो फिर अपनत्व आ नही पायेगा ..अपनत्व के बिना शुद्ध प्रेम सम्भव ही नही है ।
माधुर्य माधुर्य ही बना रहे ….उसमें किंचित भी “ईश्वर” भावना से आप भावित हो गये …तो वो प्रेम “भक्ति” कहलायेगी ….जिसमें आपके प्रियतम भगवान के रूप में विराजे होंगे ….मैं एक ही बात को बार बार न दोहराऊँ कि…….विशुद्ध प्रेम में विशुद्ध माधुर्य ही चाहिए …वहाँ किंचित भी “ऐश्वर्य” आगया तो वो शुद्ध रति नही होगी ।
फिर भक्ति में भक्त के स्वभाव अनुसार उपाधियाँ जुड़ती चली जाती हैं ….जैसे – किसी की भक्ति शान्त है …तो वो “शान्ता रति” और किसी की भक्ति मधुर है तो “मधुरा रति”….वात्सल्य रस है तो “वात्सल्यारति”….आदि आदि । यशोदा जी की वात्सल्यारति है …उनकी मधुर रति नही हो सकती ….हनुमान जी की दास्यारति है …वो दास भाव से भावित हैं …किन्तु हनुमान जी की वात्सल्यारति नही हो सकती । सखा हैं कृष्ण के मनसुख श्रीदामा आदि …..उनमें सख्यारति है ….सखा भाव है….किन्तु वो मधुर रस को नही पा सकते ।
अब सुनो , इन समस्त उपाधियों से मुक्त है ये “विशुद्ध प्रेम” ….क्यों की सखी वो तत्व है …जिनमें स्त्री भाव और पुंभाव का पूर्ण अभाव है ….इनको जो जब जिस भाव की आवश्यकता पड़ती है ये वही भाव ओढ़ लेती हैं …जैसे – श्री जी और श्याम सुन्दर विहार करते हुए जब थक जाते हैं ….तो ये सखियाँ तुरन्त वात्सल्य भाव ओढ़ कर इनके पास चली आती हैं और सुन्दर सुन्दर पकवान इन्हें पवाती हैं माता की तरह…कभी रात्रि में सुरत केलि मचाया हो युगल ने तब ये सख्य भाव ओढ़ लेती हैं …और खूब छेड़ती हैं ….श्रीजी को छेड़ती हुए कुछ भी कहती हैं ….मित्र हैं उस समय ….कोई डर नही है …अपनी सहेली से काहे का डर ? जब रास में नाचते हुए थक जाते हैं तो चरण दबाने की सेवा करते हुए ये दास्य भाव को ओढ़ लेती हैं …और एक अद्भुत बात बताऊँ ! जब रात्रि की वेला – निभृत निकुँज में ये युगल सरकार मिलते मिलते एक हो जाते हैं तब ये सखियाँ भी अपनी सारी उपाधियों को त्याग कर युगल में ही लीन हो जाती हैं । तब अद्वैत घट जाता है …आहा ! उस समय न श्याम न श्यामा न सखियाँ …बस प्रेम ..विशुद्ध प्रेम तत्व।
सुन्दर बाग है …..नाना पुष्प खिले हैं …आज तो इस राधा बाग में गोवर्धन के कई कलाकार आये हैं ….जिनको बुलाया नही गया इन्होंने सुना कि यहाँ श्रीहित चौरासी जी के ऊपर बाबा का व्याख्यान हो रहा है …और पद का गायन होता है …तो सारंगी पखावज आदि लेकर ये सब चले आये हैं …..श्रोताओं में अब उत्साह बढ़ रहा है ….लोग अब बाग में भरने लगे हैं …..जहां उन्हें स्थान मिल जाता है वही बैठ जाते हैं …अति आनन्द और उत्सव का वातावरण है ….सब उमंग में हैं …और ये सोचकर और उत्साह सबका बढ़ रहा है कि ….अभी तो श्रीहित चौरासी जी में बहुत उत्सव , बहुत उत्साह , और उमंग आने वाला है …गौरांगी सुन्दर माला बना रही है साथ वहाँ की सखियाँ भी दे रही हैं …..गौरांगी कह रही है …”आजु गोपाल रास रस खेलत” ये पद जिस दिन आएगा न ….उस दिन राधा बाग में महारास करेंगे …सब नाचेंगे ….”बाबा को भी नचायेंगे”….ये बात मैंने कही ….शाश्वत बोला …वो तो तैयार ही हैं । चलो , जाओ यहाँ सब सखियाँ हैं …छेड़ती हुयी गौरांगी बोली । शाश्वत बोला – निकुँज में कहाँ पुरुष का प्रवेश है ….तुम बिना दाढ़ी मूँछ की सखी हो हम लोग दाढ़ी मूँछ वाले सखी हैं । पागल बाबा आगये थे …वो शाश्वत की बातों पर बहुत हंसे ….कुछ देर तक हंसते ही रहे ।
गौरांगी की माला तैयार हो गयी थी ….उसने श्रीजी को एक माला पहनाई …दूसरी माला श्रीजी के चरणों से छुवा कर बाबा को पहनाई …..बाबा ने संकेत किया ….आज श्रीहित चौरासी जी के चौथे पद का गायन होगा …..शाश्वत धीरे से बताता रहा …ये गोवर्धन से पधारे हैं सारंगी लेकर ये पखावज …..बाबा बहुत प्रसन्न होते हैं ….एक श्रीराधा बल्लभ के भक्त हैं जो इत्र और गुलाब जल लेकर आये हैं …बाबा सबको प्रसादी बनाकर देने के लिए कहते हैं ….उस दिव्य वातावरण में ….श्रीहित चौरासी जी के पद का गायन शुरू हो जाता है ……
आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ ।
पिय के संगम के सूचत सुख चैन ।।
आलस वलित बोल, सुरँग रँगे कपोल ।
विथकित अरुन उनींदे नैंन ।।
रुचिर तिलक लेस , किरत कुसुम केस ।
सिर सीमंत भूषित मानौं तैंन ।।
करुना करि उदार , राखत कछु न सार ।
दसन वसन लागत जब दैंन ।।
काहे कौं दुरत भीरु , पलटे प्रीतम चीर ।
बस किये श्याम सिखैं सत मैंन ।।
गलित उरसि माल , सिथिल किंकिनी जाल ।
श्री हित हरिवंश लता गृह सैन ।4।
आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ ……………….
सब लोग गायन कर रहे थे …..अद्भुत रसमय वातावरण तैयार हो गया था ।
अब बाबा ध्यान करायेंगे ….सब लोगों ने वाणी जी रख दी …नेत्र बन्द कर लिए और …….
!! ध्यान !!
प्रातः की सुन्दर वेला है ….पवन अपनी मन्द गति से और शीतल बह रहे हैं …भास्कर के उदित होने में अभी समय है ..किन्तु श्रीवन की भूमि चमक रही है ..लता पत्र झूम रहे हैं ..निकुँज के बाहर यमुना बह रही हैं …उनमें कमल पुष्पों की भरमार है …अभी खिले नही है खिलने वाले है …किन्तु उनसे सुगन्ध निकल रही है …जो श्रीवन को सुगन्धित बना रही है …उनमें भौरें गुंजार करने लगे हैं ..पक्षियों ने चहकना प्रारम्भ कर दिया है …उन के चहकने से वातावरण संगीतमय सा लग रहा है ..ये पक्षी भी विचित्र हैं शयन कुँज के आस पास ही इन्हें मंडराना है ..वहीं कलरव कर रहे हैं ।
श्रीश्याम सुन्दर और प्रिया जी जाग गयीं हैं ….सखियों ने दर्शन किये ….प्रिया जी अपने आपको सम्भालती हुई शैया से नीचे उतरती हैं …..हित सजनी आगे बढ़ी और श्रीजी को जब सम्भालने लगीं ..तब श्रीजी वहीं खड़ी हो गयीं, उनकी आँखें मत्त हैं …वो सखी को देखकर मुस्कुराती हैं ..और संकेत में कहती हैं ….तू रहने दे ..मैं आगे आगे चलूँगी । और श्रीजी आगे आगे चल पड़ती हैं …..किन्तु उनकी चाल ! …हित सजनी प्रिया जी को ऐसे मत्तता से चलते हुये जब देखती हैं ..तो पीछे ललितादि को देखकर मुस्कुरा जाती हैं ।
प्रिया जी चली जा रही हैं ….उनके चरण की महावर छूट गयी है ….उनके कण्ठ का हार टूटा हुआ है …उनकी अलकावलियाँ उलझी हुई हैं…..पर ये कहीं खोई हुयी हैं …और चली जा रही हैं श्रीवृन्दावन की अवनी पर ….इनके पीछे सखियों का दल है …वो सब भी परमआनंदित हैं ….आगे चल रही हित सजनी सबको संकेत करती है ….तो सब हंस पड़ती हैं …हंसने की आवाज प्रिया जी ने सुन ली है …वो रुक जाती हैं ….और पूछती हैं …क्या हुआ ? मन्द मुस्कुराते हुए सखी सिर हिलाकर कहती है ….नही, कुछ नही हुआ । नही कोई तो बात है ….प्रिया जी सब को देखती हैं …समस्त सखियाँ पीछे हैं …तब हित सखी कहती है ….ये आपके कपोल में चिन्ह !
ये सुनते ही प्रिया जी शरमा जाती हैं और कपोल को अपनी चुनरी से छुपा लेती हैं …प्रिया जू ! क्या क्या छुपाओगी ? चाल , ढाल , अंग में लगे सुरत सुख के चिन्ह …सब गवाही दे रहे हैं ……
क्या बात है , नव यौवन से मत्त हमारी प्यारी सखी ! आज तो आपका मुखारविंद आनन्द से भरा है …ये आपका मुखारविंद है ना यही बता रहा है कि प्रीतम के साथ आपने विहार किया ….विहार तो आपका नित्य है ..किन्तु आज कुछ विशेष है ।
हित सखी से ये सुनकर मुस्कुराते हुए सिर झुका लेती हैं श्रीराधिका ….
सखी कुछ नही बोलती वो अपनी प्राण प्यारी श्रीजी को देखती रहती है ….पर प्रिया जू परेशान हो जाती हैं कि ये बोल क्यों नही रही , अपनी “रति केलि” पर सुनना उन्हें अच्छा लग रहा था …श्रीजी दृष्टि को ऊपर करती हैं और सखी की ओर जैसे ही देखती हैं …सखी मुस्कुरा रही थी तो वो फिर दृष्टि तुरन्त नीचे कर लेती हैं , शरमाते हुए ।
कुछ नही है ऐसा तो ! श्रीजी शरमाते हुए कहती हैं ।
तो हित सखी हंसते हुए कहती है ……फिर आपकी बोली में इतना आलस क्यों है ? आपके गाल भी रँगे हुए है …लाल लाल । नेत्र भी तो उनिंदे हैं …ऐसा स्पष्ट लग रहा है कि रात्रि भर आप सोईं नही हैं …या प्रीतम ने आपको सोने नही दिया ।
हट्ट ! ये कहते हुए श्रीप्रिया जू आगे बढ़ जाती हैं ….वो शरमा भी रही हैं और उन्हें ये सुनना अच्छा भी लग रहा है ।
आपके मस्तक का तिलक कहाँ हैं ? वेणी भी आपकी ढीली है प्रिया जू ! और अलकें भी उलझी लग रही हैं ….क्यों ? नयन मटकाते हुए सखी पूछती है ….और सिर के माथे का सिन्दूर तो पसीने में बह गया ….
कुछ नही , कुछ भी कहती हो तुम सब ?
मुझे चिढ़ाने में तुम को आनन्द आता है , है ना ?
श्रीजी सखियों को कहती हैं ।
हाँ , आप उदार हो ….हम जानती हैं …आप कितनी उदार हो ये हमें ज्ञात है …..आपसे कोई विनती करे तो आप अपना सब कुछ दे देती हो …अपने तन मन प्राण सब कुछ ……
ये सुनते ही प्रिया जी फिर शरमा गयीं ….ये सखियों ने व्यंग किया था ।
वो आपके पुजारी हैं ना ….जो आपकी हर समय चरण वन्दन में ही लगे रहते हैं ……
कौन ? बड़े भोलेपन से श्रीजी पूछती हैं ।
सखियाँ हंसती हैं ….आप भोली हो , पर इतनी भी नहीं ।
देखो ….आपके अंगों में सुरत संग्राम के चिन्ह ….बड़े सुन्दर लग रहे हैं …ये सुनते ही प्रिया जी अपने अंगों को फिर छिपाने लगती हैं और बोलीं – नही , ऐसा कुछ नही है ।
अच्छा , ऐसा कुछ नही है तो प्रिया जू ! हमें ये बताओ कि अपनी नीली चुनरी को छोड़कर ये पीताम्बरी कहाँ से आई ? प्रिया जी के पास अब कुछ नही था बोलने के लिये …वो क्या बोलें ।
सखी फिर बोलना शुरू कर देती है ….प्रिया जी ! आपको नही पता तो मैं बात देती हूँ …ये पीताम्बर वो ध्वजा है जो इस बात का प्रमाण है कि सौ सौ कामदेवों को हराने वाले परम वीर श्याम सुन्दर को आपने अपने वश में कर लिया है ।
प्रिया जी अब कुछ नही बोलतीं ….तो सखी कहती है….लो , गले की माला भी मसली हुई है …..और मैं आगे की बात बताऊँ ? तभी श्रीजी सखी की ओर बढ़ती हैं और हित सजनी के मुख पर अपनी उँगली रख कर कहती हैं …”मत बोल” । तब हित सजनी संकेत में कहती है …प्रिया जी ! ये सारे प्रमाण हैं कि रात में आप प्रीतम के साथ लता भवन में सोईं हैं ..हैं ना ? श्रीजी शरमा जाती हैं और दौड़कर हित सखी को अपने हृदय से लगा लेती हैं ।
पागल बाबा इसके बाद मौन हो जाते हैं ….वो इस लीला चिन्तन में देहातीत हो गये हैं ।
“आजु तौ जुवति तेरौ बदन आनन्द भरयौ……….”
अन्तिम में फिर चौरासी जी के चौथे पद का गायन किया जाता है ।
आगे की चर्चा अब कल –
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