!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( अभूत जोरी – “आजु निकुँज मंजु में खेलत”)
गतांक से आगे –
कुछ पुराना नही है निकुँज में , ना , जहां काल की गति नही है वहाँ नित नूतन तो है ही । सब कुछ नया है ….श्रीवन नया , यहाँ के लता वन नये …उन लताओं के पल्लव नये …उनमें खिले फूल नये …उनमें गुंजार कर रहे भँवरे नये …यमुना नयी …श्रीवन की भूमि नयी ….सखियाँ नयी ….उन सखियों के वस्त्र नये …उनका हास परिहास सब नया । अब यहाँ ध्यान देने की बात है कि यहाँ ये नूतनता हर क्षण में है ….क्षण क्षण में नवीन ।
श्याम सुन्दर नये …उनकी गोरी श्यामा जू नयी ….उनका सौन्दर्य क्षण क्षण नया ।
आप निकुँज में युगल के दर्शन कर रहे हैं तभी एक क्षण के लिए आपकी पलकें झपकीं कि तभी उनका पूर्व का सौन्दर्य अब नही रहा ….उससे भी अधिक है …..सौन्दर्य का सागर आपके सामने लहरा रहा है ….ये नवीनता बनी ही रहती है …..यही अद्भुत है इस रस में ….यही विलक्षणता है इस रस की । यहाँ सब कुछ चिद्विलास ….यहाँ जड़ की सत्ता ही नही है …..यहाँ तो सिर्फ – रस है रस ।
वही रस बह रहा है …वही नाच रहा है ….वही चल रहा है …वही हंस रहा है ……वही वही है सर्वत्र । उसके सिवा और कोई नही , कुछ नही है । अद्भुत अनुपम है ये सब ।
ये रस कहाँ से मिलेगा ? कल मुझे एक ने बड़े भावुक हृदय से पूछा ।
मैंने कहा ….इस रस के लिए अभूत भूमि ये श्रीवृन्दावन ही है …ये यहाँ मिलेगा । ये रस यहीं मिलेगा । बाहर आपको प्रयास करना पड़ेगा ….वातावरण बनाना पड़ेगा …रस ऐसे ही थोड़े मिल जायेगा ! किन्तु श्रीवृन्दावन में कुछ नही करना है ….बस पड़े रहो ..किन्तु भरोसा उसका हो ….बस ..फिर देखना वो रस का दरिया तुम्हारे पास बहता हुआ आयेगा । तुम इस रस में गोता लगाना चाहते हो ? तो आओ ! यहाँ आओ ….निहारो सखी ! उज्ज्वल नीलमणि को ….आहा ! उज्ज्वल श्रीराधा रानी हैं और नीलमणि हमारे श्याम । फिर रस ही रस होगा …..रस में ही डूबते उबरते रहोगे। जय जय ।
शान्त बैठे हैं आज पागल बाबा । राधा बाग में श्रीजी के कुछ चरण चिन्ह बाबा को दिखाई दिए ….तो उनको भाव आगया …वो भाव में डूबे हैं ….चार घण्टे तक ये “हा राधा, हा राधा” कहते रहे …उसके बाद अब ये शान्त हैं …शून्य में देख रहे हैं …आज ये बोल पायेंगे या नही ? शाश्वत पूछता है । गौरांगी कहती है अभी तो दो घण्टे हैं ….दो घण्टे में तो बाबा भाव राज्य से बाहर आजायेंगे । पुष्पों की भरमार है आज भी …आस पास लोग पुष्प भेज देते हैं …कुछ माली भी हैं जो बाबा के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं । वो भी लेकर आए हैं पुष्प । पुष्पों को सजा दिया गया है ..आज तो एक भक्त जल का फुहारा भी ले आया …फुहारे से गुलाब जल निकल रहा है जिसके कारण बाग गमक रहा है ।
बाबा अब ठीक है …..उन्होंने जल पीया है ….फिर गौरांगी से कहा – ये जो कलाकार हैं इनके लिए एक एक माला की व्यवस्था करो ….और ये बृजवासी भी हैं …इनको कुछ दक्षिणा भी मिलनी चाहिये …..उसी समय एक सेठ जी ने सौ रुपये की गड्डी बाबा के सामने रख दी । बाबा सेठ को ही बोले …तुम बाँट दो।
लोग आरहे हैं …सब मुस्कुराते हुए आते हैं ….सबके मुख पर श्रीहित चौरासी जी की चर्चा है । बैठ गये हैं सब लोग ….आज से कुछ राधा बाग से बाहर बैठेंगे …क्यों की स्थान अब नही बचा है । सारंगी वीणा बाँसुरी पखावज में गौरांगी अब गायन करना आरम्भ कर देती है …आज सातवें पद का गायन होगा और उसी पर चर्चा होगी ।
गौरांगी के मधुर कण्ठ के साथ कई कण्ठ गा उठे थे – श्रीहित चौरासी जी के सातवें पद को ।
आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किशोर नवीन किशोरी ।
अति अनुपम अनुराग परस्पर , सुनि अभूत भूतल पर जोरी ।।
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर , नव कर्पूर पराग न थोरी ।
कोमल किशलय सैंन सुपेशल , तापर श्याम निवेसित गोरी ।।
मिथुन हास-परिहास परायन , पीक कपोल कमल पर झोरी ।
गौर श्याम भुज कलह मनोहर , नीवी बंधन मोचत डोरी ।।
हरि उर मुकुर विलोकि अपनपौ , विभ्रम विकल मान जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत , पिय प्रतिबिम्ब जनाइ निहोरि ।।
नेति नेति वचनामृत सुनि सुनि , ललितादिक देखत दुरी चोरी ।
श्री हित हरिवंश करत कर धूनन , प्रणय कोप मालावलि तोरी ।7 ।
इस पद में अद्भुत लीला है निकुँज की …गौरांगी का प्रिय पद है ये ..इसने अतिउत्साह से इसका गायन किया है ।
अब बाबा इस पद का ध्यान बतायेंगे ….सब लोगों ने वाणी जी रख दी …और नेत्र बन्द कर लिये ।
।। ध्यान ।।
लता मन्दिर में ललिता सखी के साथ श्रीकिशोरी जी विराजी हैं …उन्हें कुछ भान नही है …पर बाहर जब अपने प्रियतम की आवाज सुनी तो वो तुरन्त उठ गयीं …वो लता भवन से बाहर आकर देखने लगीं …उस समय उनकी शोभा देखते ही बन रही थी …स्वर्णमिश्रित गौर मुख कितना दमक रहा था उनका ….उनकी अलकें झूल रहीं थीं उनके गोरे कपोल में ….और उनकी वो नीली साड़ी का पल्लू श्रीवन की अवनी का स्पर्श कर रही थी ….उन्हें भान नही था….वो अपने प्यारे से अब मिलना चाहती हैं…कितना समय हो गया इनको मिले हुए ! …यहाँ तो क्षण भी युग के समान लगता है …वो बाहर आयीं …तो देखा – हित सखी के साथ बतिया रहें हैं श्याम सुन्दर …हित सखी उन्हें छेड़ रही है । श्याम सुन्दर को देखते ही ये दौड़ पड़ीं ….हित सखी ने देखा …प्रिया दौड़ते हुए आरही हैं …तो हित सखी वहाँ से हट गयी ।
दोनों युगल गले मिले ….प्रगाढ़ आलिंगन हुआ दोनों में । सब सखियां देख रही हैं …वो अपने नयनों को धन्य बना रही हैं …धीरे धीरे दोनों अलग हुए …फिर सामने एक दिव्य कुँज है ….इसी कुँज में अपनी प्रिया को लेकर श्याम सुन्दर प्रवेश कर गये । पीछे से सखियां आयीं ….चलती हुयी लता छिद्रों के पास पहुँचीं….फिर वहाँ से ये सब देखने लगीं ….वो कुँज दिव्य था …नाना प्रकार के पुष्प उसमें खिले थे ….कुँज की धरती स्फटिक मणि की थी ….कुँज में झालर झूल रहे थे …कोई झालर तो कंचन मणि का था …कोई झालर मोतियों के थे …कोई पन्ना के थे ….एक मोतियों के झालर को श्याम सुन्दर पकड़ते हैं तो वो टूट जाते हैं और बिखर पड़ते हैं …उस समय जो शोभा बनती है अवनी की ….वो अकथनीय है । भीतर ही एक सुन्दर फूलों की फुलबारी है …उसमें सारे फूल हैं ….उन्हीं फूलों से सुगन्ध की वयार चल पड़ी है । मतवाले भ्रमर कहाँ पीछे रहने वाले थे …वो गुन गुन करके , गायन करने लगे ….उनका साथ देने के लिए कोयली भी कुहुँ कुहुँ करने लगी …..मोर नृत्य कर उठे ….तभी युगल ने सामने देखा …कमल दल से किसी ने आसन बना दिया है ….सज्जा उस आसन की देखने जैसी है …युगल वहीं गये और जाकर बैठ गये …..बैठते ही इन दोनों ने एक दूसरे को देखना प्रारम्भ किया …..बस फिर क्या था …….
सखियाँ लता छिद्रों से देख रही हैं ……और हित सखी उसी का वर्णन कर रही हैं ………
सखी ! आज प्यारी और प्यारे दोनों नवल निकुँज में खेल रहे हैं ….तो कुँज भी नवल है ….और खेल भी नवल है ….अजी ! खेलने वाले किशोर भी नवल हैं और खिलाने वाली किशोरी भी नवल है। देखो तो कितने सुन्दर लग रहे हैं दोनों खेलते हुए ….खेल रहे हैं ….अनुराग का खेल खेल रहे हैं । अनुराग भरा हुआ है दोनों में …तो वो अनुपम है …उसकी कोई उपमा नही है । और इसका दर्शन केवल श्रीवृन्दावन में ही होता है ..जहां अनुराग उन्मत्त होकर नाच उठता है …सखी ! ऐसी भूमि कोई दूसरी है नही , इस भूतल पर ही नही है । हंसती है सखी और कहती है …क्या कहूँ ! न श्रीवृन्दावन जैसी भूमि है कोई , न ऐसी जोरी है कोई …ये दोनों हैं अभूत हैं …हुए नही हैं । हित सखी देखकर आनंदित है । वो सबको गदगद होकर बता रही हैं …सब सुन भी रही हैं और देख भी रही हैं ।
जिस पर ये विराजे हैं ना …वो कोमल कोमल कमल दल से तैयार किया हुआ आसन है …सखी ! देख तो कितने शोभायमान लग रहे हैं दोनों । इस कमल दल के आसन में बैठकर इनकी शोभा भी अद्वितीय लग रही है ।
ये कहते हुए हित सखी हंस दी …अन्य सखियों ने पूछा …आप हंस क्यों रही हो ? हित सखी बोली – इनके कपोल में देखो …लाल लाल चिन्ह से बन गए हैं ना …ये पान के पीक की लाली है । ये लाली कितनी अच्छी लग रही है ।
सखी ! देखो, अब दोनों हंस रहे हैं …एक दूसरे को हंसा रहे हैं …और हँसाते हुए एक दूसरे को छेड़ भी रहे हैं …इस छेड़ने के कारण रस उन्मत्त हो गया है ….रति कलह मच गया है …दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं …जब श्याम सुन्दर अपना हाथ छुड़ाते हैं तब श्याम सुन्दर हंस पड़ते हैं …जब प्रिया जू अपना हाथ छुड़ाती हैं तो वो खिलखिला पड़ती हैं ..इनके खिलखिलाने से निकुँज खिलखिला रहा है । श्याम सुन्दर बार बार कटि बन्धन खोलने का प्रयास करते हैं …तो श्रीराधा जू उनका हाथ हटा देती हैं …और रोष प्रकट करने का स्वाँग दिखाती हैं ।
श्याम सुन्दर के हृदय में स्फटिक की माला है ….उसमें श्रीराधा रानी को अपनी ही छवि दिखाई देती है ….बस फिर क्या था अपनी ही छवि देखकर ही श्रीराधा मानिनी हो उठती हैं….उन्हें मान हो गया । श्याम सुन्दर ने देखा ये क्या ! अभी तक तो सब ठीक था फिर एकाएक ये क्या हुआ ? प्रिया को मनाने लगे …पर ये तो रूठ गयीं हैं …अब श्याम सुन्दर परेशान हो उठे ….वो अपनी प्रिया के चिबुक को छूते हुए बोले ….कारण तो बताओ ? मुझ से अपराध क्या हुआ ? श्रीराधा जी बोलीं – तुम्हारे वक्षस्थल में ये सौत कौन है ? झूठ कहते थे तुम कि मैं ही तुम्हारे हृदय में हूँ …अब बताओ , ये कौन है ? ये सुनते ही श्याम सुन्दर मुस्कुराए ….और बड़े प्रेम से अपने हृदय से लगाकर प्यारी को कहा …आप ही हो …आपने अपने आपको नही पहचाना ? किन्तु श्रीजी कहती हैं….नहीं , नहीं …ये मैं नही हूँ । श्याम सुन्दर बारम्बार समझाते हैं पर श्रीराधिका जी नही मानतीं अब उनका कोप बढ़ता जा रहा है …..और इसी रोष में वो उस स्फटिक की माला तोड़ देती हैं …..माला के टूटते ही श्रीराधिका को स्व प्रतिबिम्ब दिखाई देना बन्द हो जाता है ….वो बिखरे फटिक को देखती हैं तब वो समझ जाती हैं …और ,और मन्द मुस्कुराते हुए अपने प्यारे को हृदय से लगा लेती हैं ।
ये प्रेम की अद्भुत लीला है ……इतना कहकर पागल बाबा मौन हो गये थे ।
गौरांगी ने अन्तिम में श्रीहित चौरासी जी का सांतवा पद एक बार फिर गाया ।
“आजु निकुँज मंजु में खेलते , नवल किशोर नवीन किशोरी”
आगे की चर्चा कल –
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