!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( ये रसीली सखियाँ – “आजु मेरे कहे चलौ मृगनैंनी” )
गतांक से आगे –
हित ( प्रेम ) जब अपने चरम पर पहुँचता है तब प्रेमी प्रियतम मूर्छित हो जाते हैं उस समय उनको अवहित ( सावधान ) करने का काम करती हैं ये सखियाँ । ये द्वैत को अद्वैत बनाती हैं…जब अद्वैत हो जाते हैं तब ये फिर उनको द्वैत बनाने के प्रयास में लग जाती हैं । जब दोनों के अधर सूख जाते हैं तो सरस बनाने के लिए दोनों अधरों को मिलाने का कार्य करती हैं …जब अधर रस पीते पीते उन्मत्त की स्थिति में चले जाते हैं तो फिर दोनों अधरों को दूर कर देती हैं । यही इस रस विलास का रहस्य है ….इसमें श्रीराधा और श्याम सुन्दर तो मुख्य हैं हीं …इसमें किंचित भी सन्देह कहाँ ! पर “हम” सखियों के बिना इनका ये रस विलास सम्भव ही नही है ।
उपनिषद का ये सूत्र दृष्टव्य है –
“सः एकधा भवति” …..उपनिषद कहती है – “वो” एक बनता है …पर एक से विलास कहाँ होगा तो “सः द्विधा भवति” ….वो दो बनता है …यानि श्रीराधा और श्रीकृष्ण ….पर उपनिषद इतने में रुकती नही है वो आगे कहती है ….”सः त्रिधा भवति”…..वो तीन बनता है ….फिर बाद में कह देती है …”सः अनेकधा भवति” ….उसे रास विलास करना है इसलिये वो अनेक बन जाता है । वो सखी बनता है ..वो श्रीवृन्दावन बनता है …वो यमुना बनता है ..वो लता पक्षी आदि आदि सब बनता है ।
ये अद्भुत रास विलास है …जो नित्य है ..सनातन है ….एक बार हुआ रास नही है ये …ये रास विलास नित्य हो रहा है …क्षण क्षण में घटित हो रहा है । इस नित्य रास में सखियाँ ही मुख्य हैं …ये प्रिया प्रियतम के सुख में सुखी हैं ….ये कनक बेलि श्रीराधा को श्याम सुन्दर रूपी तमाल में लिपटा कर उस अपूर्व झाँकी को दूर से निहारती हैं …और देह सुध भूल जाती हैं ।
कल एक साधक ने मुझ से कहा ….ये “श्रीहित चौरासी जी” पर आप लिख रहे हैं समझ में नही आरहा …..मेरा उत्तर यही था …फिर मत पढ़िए …पाप लगेगा । उन्होंने कहा समझाइये ….मैंने उनसे कहा …मैं समझा नही पाऊँगा …क्यों की इसे समझाया नही जा सकता ..ये प्रेम है इसे जीया जाता है …ये बुद्धि का विषय नही है …जिसे मैं समझाऊँ ! फिर मैं क्या करूँ ? मैंने कहा …”राधा राधा राधा राधा” ….ये नाम सवा लाख बार जपिये फिर ये जो प्रेम राज्य की बातें लिखी हैं उसे पढ़िये ….सब समझ में आजायेगा ।
साधकों ! ये जो मैं लिख रहा हूँ …ये “रस रहस्य” अत्यंत गोपनीय है …मेरे बाबा आज बोले हैं…साधक की प्रथम माँग होती है ..”शान्ति” …और उसकी अन्तिम माँग होती है …”रस”….जो शान्ति ही नही पा सका वो सीधे अन्तिम सोपान में जायेगा तो शायद गिरेगा ..इसलिये मेरे इन आलेख को पढ़ते हुए सावधान ! ये साधना है ..गोपनीय साधना । कोई मनोरंजन के लिए न पढ़े ।
ब्रह्म रस है …उसी का विलास है ये सब ..सखियाँ इस रस की सन्धि हैं । इसलिये ये मुख्य हैं ।
ये रसीली सखियाँ रस से भरी हैं …..तभी तो रस रूप युगल के प्रति पूर्ण समर्पित हैं ।
मेरे पागल बाबा ने “श्रीहित चौरासी जी” के गायन के लिए बरसाने का राधा बाग ही चुना …..
क्यों की इस बाग से सुन्दर स्थान और हो क्या सकता था ! प्रेम का गान है …प्रेम की बातें हैं ….ये प्रेम भूमि में ही तो सम्भव है !
पागल बाबा उन्मत्त दशा को प्राप्त हो रहे हैं दिनों दिन …..क्यों की जैसे जैसे श्रीहित चौरासी जी आगे बढ़ रही हैं …रस की बाढ़ सी आगयी है …इस बाढ़ में बाबा डूब रहे हैं ….आज उन्हें चार घण्टे राधा नाम सुनाया गया …तब जाकर वो कुछ होश में आये थे । कुछ लिया भी नही उन्होंने …उनकी आँखें चढ़ी रहीं ….हाँ मोर आदि की आवाज सुनकर अवश्य वो कुछ मुस्कुराये थे ..और नेत्र खोल कर उन्होंने देखा तब गौरांगी ने उन्हें जल पिलाया था । आज तो राधा बाग की स्थिति कुछ अलग ही हो गयी थी …..आस पास के मालियों ने आकर फूलों का बंगला सजा दिया था …..इत्र भक्त लोग लेकर आये थे …..गुलाब जल की पिचकारी चलाई थी । लता पत्रों के मध्य बाबा विराजें हैं । पखावज और सारंगी लेकर दो कलाकार आये उनका आदर किया शाश्वत ने ….ये नन्दगाँव के बृजवासी हैं ….बाबा बृजवासियों को आराध्य के समान आदर देते हैं ….उन्हें जब बताया गया तब उन्होंने तुरन्त अपने आपको सम्भाला ….प्रणाम किया और माला आदि देकर वो बहिर्मुख हुए । इस बात से हम सब बहुत प्रसन्न थे । सारंगी में राग तोड़ी बजाने के लिए बाबा ने आग्रह किया । कुछ देर तक सारंगी और पखावज में तोड़ी राग में अद्भुत जुगलबन्दी चलती रही । फिर गौरांगी से श्रीहित चौरासी जी के सोलहवें पद का गान करने के लिए कहा …और कहा …राग तोड़ी में ही इसका गान करना । गौरांगी ने अपनी मधुर आवाज में गायन किया इस सोलहवें पद का । पूरा रसिक समाज गान कर रहा था गौरांगी के पीछे ।
आजु मेरे कहैं चलौ मृगनैंनी ।
गावति सरस जुवति मंडल में , पिय सौं मिलैं भलैं पिक बैंनी ।।
परम प्रवीन कोक विद्या में , अभिनय निपुन लाग गति लैंनी ।
रूप रासि सुनि नवल किशोरी , पल पल घटत चाँदनी रैंनी ।।
“श्रीहित हरिवंश” चली अति आतुर , राधा रवन सुरत सुख दैंनी ।
रहसि रभस आलिंगन चुम्बन , मदन कोटि कुल भई कुचैंनी । 16 ।
आजु मेरे कहैं चलौ मृगनैंनी ………….
क्या राग था ! क्या अनुराग से गाया गया था ! मेरे तो नेत्रों से आनन्दाश्रु रुके नही रुक रहे थे ।
पागल बाबा इस पद के बाद कुछ देर मौन ही रहे ….फिर एक बृजवासी ने उठकर जब राधा नाम का जयघोष किया तब जाकर उन्होंने बोलना शुरू किया था ….रसिक रस में सरावोर थे ही , बाबा ने जो ध्यान करवाया उससे तो सब डूब ही गये थे रससिन्धु में ……
!! ध्यान !!
सूर्य अस्त हो रहे हैं ….उदित हो रहे हैं निशिनाथ चन्द्रमा ….शीतल सुरभित पवन बह रहे हैं ….
यमुना के जल में पूर्ण चन्द्र का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है …उससे यमुना की शोभा और बढ़ रही है ….यमुना की ओर धीरे धीरे चलते हुये श्रीराधिका आरही हैं ….उनकी चाल मन्द है …मत्त है …नीली साड़ी पहनी हैं …पग के नूपुर बज रहे हैं …जो पूरे निकुँज में गूंज रहे हैं । श्रीराधिका यमुना के तट पर आकर बैठ गयीं हैं ….अपने सुकोमल चरण यमुना में रख दिये हैं …यमुना श्रीराधिका के चरणों को पखारती हुयी बह रही हैं …… गौर वर्णी श्रीराधिका के श्रीअंग में श्रम बिन्दु झलक रहे हैं …वो मोतियों की तरह चमक रहे हैं …अपने नेत्रों को बन्द कर लेती हैं श्रीराधिका और हृदय में श्याम सुन्दर का ध्यान करने लगती हैं …..ये श्रम बिन्दु क्यों ? अजी ! अभी ये श्याम सुन्दर के हृदय से लग कर आई हैं ….दोनों के हृदय की गति एक होने ही जा रही थी कि सखी ने आकर विघ्न डाल दिया । उफ़ ! दोनों मिल रहे थे ….दोनों खो रहे थे …दोनों एक होने ही जा रहे थे कि …….तब श्रीराधिका वहाँ से शरमा कर दौड़ पड़ीं थीं यमुना की ओर ….अब यहाँ पर आकर बैठ गयीं हैं ……कुछ देर बाद इन्होंने अपने नेत्र खोले ….तभी देखा कि सामने एक भौंरा कमल से निकला और श्रीराधिका के मुख पर मँडराने लगा ….ये उसे हटा रही हैं ……..
श्याम सुन्दर दूर खड़े होकर अपनी प्यारी को अपलक निहार रहे हैं …..वो भौंरे को हटा रही हैं ..पर भौंरा है कि कमल समझ कर उनके मुख पर ही मँडरा रहा है । श्याम सुन्दर हंस दिये ….श्याम सुन्दर को हँसता देख एक सखी बोली ….कहो प्यारे ! क्यों हंस रहे हो ? श्याम सुन्दर ने सखी के कान में कुछ कहा …सखी ने पूछा …कुँज कहाँ है ? श्याम सुन्दर उस सखी को लेकर गये और वो कुँज दिखाया जिसे श्याम सुन्दर ने ही सजाया था …..अब फिर बोले …जाओ ! मेरी प्यारी को इस कुँज में बुलाकर लाओ …सखी ! मैं अधीर हो रहा हूँ …मेरी धैर्यता जा रही है ….तुम जल्दी करो ….सखी तुरन्त श्रीराधा के पास आती है …..पर श्रीराधिका को कुछ भान नही है …वो भौंरा को श्याम समझ कर भाव में डूबी हुयी हैं ….सखी श्रीराधिका से अब प्रार्थना करती है ….जब वो नही सुनतीं तो एक नील कमल यमुना से तोड़कर श्रीराधा के गोद में रख देती है…..इससे श्रीराधा का ध्यान भौंरे से हट जाता है ……नील कमल को देखती हैं उसे अपने कर कमल में उठा कर घुमाने लगती हैं ….तब सखी को अवसर मिलता है और वो श्रीराधिका जू से कहती हैं ….
हे मृग नैंनी ! अब चलो …………..
हे मृग के समान नयन वाली श्यामा जू ! मेरे कहने से अब चलो ।
सखी श्यामा जू का हाथ पकड़ कर कहती है ।
किन्तु श्यामा जू पूछती हैं ….कहाँ ? क्यों ?
कहाँ और क्यों ? ये शब्द जब प्रिया जू के मुख से निकले वो इतने मधुर थे कि सखी भी कुछ देर के लिए सब कुछ भूल गयी …उसे क्या कहना है …वो श्रीजी को कहाँ ले जाना चाहती है ….किन्तु सखी है वो इस तरह खो जायेगी तो फिर सेवा कहाँ से बनेगी ….इसलिये तुरन्त सावधान होती है…और कहती है ….हे कोयल की सी मीठी बोली बोलने वाली राधे ! कुँज में चलो …वहाँ सखियाँ आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं ….वो सब आपको गीत सुनायेंगी ….और उनके गीत सुनते हुये आप अपने प्रियतम से मिलना । ये सुनकर अब श्रीराधिका जू को भान हुआ …..तो वो मन्द मुस्कुराती हुई यमुना को देखने लगीं । ये समय मिलन का ही है ….सखी ने ये और कह दिया ….क्यों ? बिना बोले अपने नयनों को फिर उठाकर सखी की ओर देखा …और पूछ लिया ।
क्यों की रात्रि हो रही है देखो स्वामिनी ! सखी नभ में खिले चन्द्र को दिखाती है ….सखी जो जो दिखा रही है श्रीराधिका वही देख भी रही हैं । अब चलो ….फिर आग्रह करने लगी ।
सखियाँ गायेंगी आप नृत्य करना ….आप तो प्रवीण हो प्यारी नृत्य कला में , और ……
और ? फिर कजरारे नयनों को उठाकर सखी से संकेत में ही पूछा ।
“कोक कला में भी”…..ये कहते हुए सखी कुछ नटखट सी हो गयी थी ।
हट्ट ……कहकर मुस्कुराते हुए …..श्रीराधिका फिर यमुना को देखने लगीं ।
तभी चन्द्रमा की चाँदनी कुछ घटने लगी …..तो श्रीराधा से सखी तुरन्त बोली ….रात बीत जाएगी …आपका मिलन फिर अधूरा रह जाएगा …..मेरी प्रार्थना मान लीजिए …चलिये अब ।
सखी की बात सुनकर श्रीराधिका जू ने चन्द्रमा को देखा …फिर कुछ सोचकर अपना हाथ सखी को दिया …सखी प्रसन्न होकर श्रीजी का हाथ पकड़ कर उठाती है …और अपनी स्वामिनी को लेकर चल देती है उस कुँज की ओर जहां श्याम सुन्दर इनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
कितनी सुन्दर सज्जा की है प्रियतम ने शैया की…..श्याम सुन्दर अपनी प्यारी को आते हुये देखकर दौड़ पड़ते हैं …दोनों गले मिलते हैं ….ऐसे मिलते हैं जैसे युगों से बिछुड़े हुए थे …फिर उस सुमन शैया में अपनी प्राणप्यारी को श्याम सुन्दर सुलाते हैं …विहार प्रारम्भ होता है …ये विहार ऐसा था जिसमें करोड़ों कामदेव के कुल का एक साथ उन्मूलन हो जाता है …कोटि कामदेव के कुल को ही उखाड़ कर श्याम सुन्दर फेंक देते हैं ….ये ऐसा विलास था …अद्भुत अनुपम विलास था ।
पागल बाबा अंतिम में एक बात कहते हैं ….वासना के समूल नाश करने की ये लीला है ।
बाबा इतना बोलकर मौन हो जाते हैं …..वो आगे कुछ नही बोलते …..हाँ वो मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं जिससे पता चलता है ये उस लीला राज्य में ही पहुँच गये हैं ।
गौरांगी अन्तिम में इसी सोलहवें पद का गान फिर से करती है …….
आजु मेरे कहैं चलौं मृगनैंनी………..
पूरा राधा बाग झूम रहा है ……….
आगे की चर्चा अब कल –


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