!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 56 !!
हाय री प्रिय स्मृति !
भाग 3
बृषभान दुलारी को प्रेमोन्माद कब प्रकट हो जाए कुछ पता नही है ।
अकेले नही छोड़ा जा सकता …………क्यों की कल ही उफनती यमुना की प्रचण्ड धारा में “हे श्याम सुन्दर” कहते हुए कूद गयीं थीं ।
वो तो अच्छा हुआ कि ……..सखियाँ थीं और देख लीं …….।
हे चन्द्रमा ! तू बता ना मेरा “कृष्णचन्द्र” कहाँ गया ?
अरे ! मोर बता ना ! मेरा “मोरमुकुटधारी” कहाँ गया ?
अरे बाँस के वृक्ष ! तू ही बता दे “बाँसुरी वाला” कहाँ गया ?
फिर ऊपर आकाश की ओर दृष्टि जाती है श्रीराधा रानी की …….
आह ! विधाता ! तुझे तो धिक्कार है ……उन मथुरा की ललनाओं को खुश करके तुझे क्या मिला ? हम वृन्दावन के लोगों नें तेरा क्या बिगाड़ा था ?
यमुना के पुलिन में बैठीं थीं आज श्रीराधा रानी …….चारों ओर सावधान हो, सखियाँ बैठीं थीं……..यमुना के जल को छूते ही फिर उन्माद चढ़ गया था……और फिर श्रीराधा रानी ………….
क्या कह रही हो यमुनें ? थोडा जोर से कहो …………
यमुना भीतर ही जानें लगीं आज फिर ….सखियों नें पकड़ लिया …
नही ….नही लाडिली ! नही……….सखियों नें फिर बैठाया ।
अरे ! यमुना कुछ कहना चाह रही है………सुननें तो दो !
श्रीराधा का उन्माद फिर बढ़नें लगा था ।
कहो यमुनें ! कहो ! समझाकर कहो….. ओह ! तुम भी अपनें प्रेमी सागर के वियोग में दुःखी हो ? तो मुझ से कहो ना ! क्यों की एक दुःखी दूसरे दुखी की वेदना को समझती है ……..देखो ना कालिन्दी !
वे नन्दनन्दन मुझे भी छोड़कर चले गए …………तुम्हे तो पता है ना ……ये राधिका भी विरहिणी है …………
पर !
रुक गयीं , कुछ सोचनें लगीं श्रीराधा …………
फिर रोते हुए बोलीं……तुम तो भाग्यशाली हो कालिन्दी ! …….कि अपनें प्रियतम सागर तक पहुँच ही जाओगी ……….पर ये राधिका ?
इतनें पास हैं वे……..यहीं मथुरा में……..कुछ ही दुरी पर …..पर ये राधा नही जा सकती…….आँसुओं को पोंछा श्रीराधा नें ।
क्यों नही जा आसकती ? जाओ ! मिल कर आओ ………
यही कह रही हो ना तुम ? श्रीराधा रानी यमुना से ही पूछती हैं ।
क्यों जाऊँ मैं ? मुझे नही मिलना उस राजसी भेष वाले कृष्ण से ।
मुझे तो वही “मुरलीधर” ही प्रिय है ……….पर वहाँ तो चक्रधारी हैं …….हमें क्या काम चक्र धारी से ? श्रीराधा रानी का ध्यान यमुना से बातें करते हुए ……….कदम्ब वृक्ष पर बैठी “मयुरी” पर गया ।
अरी मयुरी ! तू क्यों कदम्ब के शाखा पर उदास बैठी है री ?
ओह ! क्या कृष्ण को बिना देखे तेरे भी प्राण रो रहे हैं क्या ?
हाँ ………….सच कहती है ……..वो तो निर्मोही है …………हम ही हैं जो यहाँ बैठी आँसू बहाती रहती हैं ……उसे तो कुछ मतलब ही नही है ।
तभी एक मोर उड़ता हुआ आया और श्रीराधारानी की गोद में बैठ गया ।
अरे ! तू ! तू तो कृष्ण का प्रिय है ……याद आती होगी ना तुझे भी ?
मोर बन आया था एक दिन वो ।……..पता है ! मुझे एक दिन मोर का नृत्य देखना था ……पर उस दिन मुझे मोर ही नही मिले ……तब मेरा ही श्याम मोर बन आया था……”मोर बनकर”….खूब हँसनें लगीं श्रीराधा जी…..”मोर बनकर”….पंखों को फैलाकर नाचनें लगा था ।
हँसते हुए फिर बोलीं…..सुन ….तू और हम दोनों मिलकर ध्यान करते हैं ।
तू मेघ का ध्यान कर ……….मैं श्याम सुन्दर का ध्यान करती हूँ ……..ऐसा कहते हुए श्रीराधा रानी नें …..मोर के साथ ध्यान करना शुरू किया ………पर मोर नें उसी समय एक पंख अपना गिरा दिया ।
अरे ! वाह ! मोर !
तुमनें मुझे उपहार दिया ? बहुत सुन्दर उपहार है ये मेरे लिये ……
इससे प्यारा और श्रेष्ठ उपहार मेरे लिये और हो क्या सकता है ?
क्यों की इसी मोरपंख को तो मेरे प्रियतम धारण करते थे ना !
इतना कहते हुए श्रीराधा रानी नें मोर का पंख अपनें सिर में लगा लिया ……और ध्यान में बैठ गयीं ………ध्यान किसका ? अजी ! उसी श्याम सुन्दर का ….।
हे वज्रनाभ ! मैं नित्य सुनता था ……….उन गोपियों के क्रन्दन को …..मैं नित्य दर्शन करता था …..उन आल्हादिनी के महाभाव को …..वो जब रोते हुए अश्रु प्रवाहित करती थीं ………तब उनके आँसुओं से पृथ्वी के पाप ताप सन्ताप सब दूर हो जाते थे …….श्याम , श्याम , श्याम , कहते हुए वो जब अन्धकार को ही “श्याम” समझ गले से लगानें दौड़ पड़ती थीं …..तब उनके देह से जो पसीनें निकलते थे ….उससे आस्तित्व भी सुगन्धित हो उठता था ……..ये आल्हादिनी का प्यार है …..कोई साधारण नही ।
शेष चरित्र कल –


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