!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी !!
( सखीभाव देह – “आजु देखि बृजसुन्दरी” )
गतांक से आगे –
भाव करो , भाव में रहो , अपने हृदय को भाव भावित बनाओ ।
हे साधकों ! भाव भी “शान्त” से प्रारम्भ होता है और “मधुर” तक पहुँचता है …मधुर भाव “गोपीभाव” को माना जाता है …किन्तु यहाँ जिस भाव की चर्चा हम कर रहे हैं वो “सखी भाव” है । इस सखी भाव में सारे भाव सम्मिलित हैं ऐसी हमारे श्रीवृन्दावन के रसिकाचार्यों की मान्यता है ।
हम जिस “श्रीहितचौरासी जी” की चर्चा कर रहे हैं वो सखी भाव भावित वर्ग के लिए ही मात्र है ..ये बात समझनी आवश्यक है । ये साधना है रसोपासना के साधकों की ….ये कोई कविता और छन्द का काव्य मात्र नही है …ये रसोपासना का “वेद”है ….”हमारौ बृजवाणी ही वेद” …..कल पागल बाबा यही बता रहे थे । अस्तु ।
अब हमारा प्रयास ये होना चाहिए कि “सखी भाव देह” हमें कैसे प्राप्त होगा ? क्यों की बिना सखी भाव देह प्राप्त हुये उस निकुँज में हमारा प्रवेश हो नही सकता ये आप समझ ही चुके होंगे । “वो तो कृपा से प्राप्त होगा ..हमारे प्रयास से तो प्राप्त होने से रहा”- बिल्कुल ठीक कहा आपने ….मैं आपकी बात से पूर्ण सहमत हूँ …..पर आप अभी संसार में , संसार के लिए कर्म कर रहे हैं ना ? कर्ता भाव यानि “मैं करता हूँ” ये भाव आपमें है ना ? तो फिर बातें न बनाइये ..पहली सीढ़ी आपको ही चढ़नी है ….आप नाम जपिये ….खूब जपिए ….”राधा राधा राधा राधा” जपते चलिये …साथ में भाव रखिये कि “मैं उनकी सखी हूँ “….आपकी दाढ़ी मूँछ हैं तो भी कोई दिक्कत नही , ये आपका मिथ्या देह है …भाव देह आपका चिद है …चैतन्य है ..और सनातन है । इसके लिए श्रीहित चौरासी जी , महावाणी जी , केलिमाल जी …इनके पद गाइये …ध्यान कीजिये …अपने को सुन्दरतम रूप में यौवन सम्पन्न देखिये ….भाव देह में रहते हुये इस “प्राकृत त्रिगुण देह” से परे जाने की चेष्टा कीजिये …..आप “तम”से अपने को हटाइये …कोई आलस नही ..सखियों में आलस नही होता आलस होगा तो सेवा नही होगी ….वो तो रात्रि में मात्र झपकी लेतीं हैं झपकी भी इसलिये कि युगल की सेवा में विघ्न न पड़े । अब “रज” को हटाइये …क्रोध रोष चिडचिडपन ये सब नही …इसके लिए जो करना कीजिए , आहार , विहार सुधारिये ।
क्रोध तब आता है जब हमारी इच्छा पूरी नही होती …अब क्या इच्छा है ? अब “सत्व” की बारी है …सत्व को भी त्यागिये …..शान्ति …नही हमें शान्ति नही “रस”चाहिए …..हमें विश्राम नही नृत्य चाहिये ….इस तरह के अभ्यास से आप त्रिगुण प्रकृति से बाहर आजायेंगे ….बस आपको यहाँ तक आना है …फिर आगे का काम “युग्मतत्व” पर छोडिये । आगे आपको कृपा ले जाएगी …..कृपातत्व निकुँज में प्रवेश दिला देगी । इसमें आपको ये ध्यान रखना है कि आप अस्सी वर्ष की हैं या पुरुष देह में हैं ये बात महत्व की नही है ….आप तो सोलह वर्ष की सुन्दरी , कामना रहित , शृंगार पूर्ण भाव से अपने को भावित रखिये । बस इतना कीजिए ….बाकी युगल सरकार पर छोड़ दीजिये ।
राधा बाग में ……सखी भाव भावित पागल बाबा विराजमान हैं …..वो अत्यन्त रसमत्तता के कारण कभी मुस्कुरा रहे हैं तो कभी गम्भीर हो रहे हैं …उनके नेत्र बन्द हैं ….उनके अंग से प्रेम की ऊर्जा प्रवाहित हो रही है जो हम सबको भी छू रही है ….उस प्रेम के छूने से हम सबके देह में रोमांच हो रहा है ….नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं …करुणा से हृदय भर गया है …..इतना भर गया है कि लता को देखने पर भी अश्रु बह रहे हैं …मोर के बोलने पर भी अश्रु बह रहे हैं ….कोकिल की कुँहुँ कर्ण रंध्रों में पड़ने पर भी अश्रु बह रहे हैं ……लग रहा है वृक्षों से लिपट कर रोऊँ …लग रहा है मोर से पूछूँ कि श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? लग रहा है कोकिल से पूछा जाये …हमारी श्रीजी कब प्रवेश दिलायेंगी हमें निकुँज में ।
वो वातावरण उन्मत्त करने वाला था …मेरे जैसा गम्भीर नीरस व्यक्ति भी राधा बाग के रज में लोटने लगा था …गौरांगी लिपट रही थी लताओं से …शाश्वत बैठा था नयन के कोरों से अश्रु बहा रहा था ।
बाबा ने लम्बी साँस ली …और नेत्र खोले …..लोग आने शुरू हो गये थे ….इसलिये अब श्रीहित चौरासी जी का गायन होना था …गौरांगी को संभलने में कुछ समय लगा …मुझे भी …शाश्वत तो स्थिर बैठा ही रहा …हाँ एक बार उठकर उसने मोगरे की माला बाबा के सामने अवश्य रख दी थी ।
एक बरसाने का ही शहनाई वादक आया है शहनाई लेकर ….उसने आते ही शहनाई बजाई तो बाबा अत्यंत आह्लादित हो गये …वातावरण अब उत्सवपूर्ण हो गया था …बाबा ने वो मोगरे की माला उस शहनाई वादक को पहनाई ….उसने चरण छुए …तो बाबा ने मना किया …”राग देश” में शहनाई का वादन अद्भुत और दिव्य लग रहा था …गौरांगी ने श्रीहित चौरासी का गायन किया …पद सत्रहवाँ था आज …देश राग में ही ….ये राग बड़ा ही मधुर है ….सब प्रेम रस में डूब गये थे ।
आजु देखि बृजसुन्दरी , मोहन बनी केलि ।
अंश अंश बाहु दै किशोर, जोर रूप राशि ।
मनु तमाल अरुझि रही , सरस कनक बेलि ।।
नव निकुँज भँवर गुंज, मंजु घोष प्रेम पुंज ।
गान करत मोर पिकनि , अपने सुर सौं मेलि ।।
मदन मुदित अंग अंग , बीच बीच सुरत रंग ।
पलु पलु “हरिवंश” पिवत , नैंन चषक झेलि । 17 ।
आजु देखि बृजसुन्दरी , मोहन बनी केलि ……………
बाबा को संगीत में “देश राग” प्रिय है ….वो कहते हैं निकुँज में इसी राग का ज़्यादा प्रयोग सखियाँ करती हैं …वो एक बार भाव दशा में बोले भी थे कि आज ललिता जू ने वीणा में राग देश बजाया तो श्याम सुन्दर वाह वाह करते रहे थे …प्रिया जू ने उन्हें अपना हार उतार कर दे दिया था ।
अब बाबा ध्यान करायेंगे ……इस सत्रहवें पद का विशेष ध्यान ।
!! ध्यान !!
सुन्दर श्रीवृन्दावन है ….जहां नव वसंत है ….जहां नव हरीतिमा है …चारों ओर हरियाली है …घने लता हैं उनके कुँज हैं …उन कुंजों में मोरों का स्वच्छंद आना जाना लगा ही है ….पक्षियों की चहक पूरे वातावरण को संगीतमय बना रही है ….इधर यमुना बह रही हैं हवा चलती है तो यमुना में रेखाएँ पड़ जाती हैं ….कमल अनगिनत खिले हैं …..जितने रंग हैं उतने रंग के कमल हैं सबमें से सुगन्ध निकल रही है…जो चारों ओर फैल रही है …वातावरण दिव्य रस रागमय हो गया है ।
यमुना के ही किनारे आँखें बन्दकर के एक सखी बैठी है …ये सखी अत्यन्त सुन्दर है …गौर वर्ण है इसका …पीली साड़ी पहनी है …इसकी वेणी अवनी को छू रही है …इसकी कटि अत्यंत कृश है …उस कृश कटि सुवर्ण की करधनी है ….वेणी में गजरा है …जो सुगन्धित है …..ये सखी सर्वांग सुन्दर है …इतना ही समझ लीजिये । युगल सरकार की प्रिय सखी है ….पर यहाँ क्यों बैठी है ? तभी सामने से सुगन्ध का एक झौंका सा आया और नूपुर हज़ारों एक साथ बज उठे थे …..क्या हुआ ? ओह , सामने के कुँज से अनेक सखियाँ निकल कर आई हैं …ये इसी सखी के पास आई हैं …ये हित सखी है जो ध्यान में बैठी है ….इसके ही आस पास आकर ये सब बैठ गयीं हैं …..सखियाँ आगयीं हैं ये बात इस हित सखी को पता चल गयी है ….वो नेत्र खोलती है …सबको देखती है …अन्य सखियाँ इस हित सखी से पूछती हैं ….बताओ ना ! युगल क्या कर रहे हैं .? तभी सबके सामने वो दृश्य प्रकट हो जाता है …आज एकान्त में युगल केलि कर रहे हैं ….इसलिये सखियों ने भी वहाँ जाने का आग्रह नही रखा ….पर इन्हें वो रस क्रीड़ा युगल की देखनी है …यही तो आहार है इन सखियों का ।
हित सखी दिखाती हैं …….देखो ! हे सखियों ! मैं भी उन्हीं की उन्मत्त रस केलि का पान कर रही थी तुम भी करो । हित सखी अन्य सखियों को दिखा देती हैं ….और साथ साथ वर्णन भी कर रही हैं ……वर्णन गायन में है …..”आजु देखि बृजसुन्दरी , मोहन बनी केलि “
हे बृजसुन्दरी सखियों ! श्रीराधिका और श्याम सुन्दर की क्रीड़ा आज तो बहुत सुन्दर बन रही है ….देखने योग्य है ….क्यों की दोनों का रूप , दोनों का सौन्दर्य , अवस्था समान है …और देखो देखो ….दोनों एक दूसरे के कन्धे में हाथ रखे हुए हैं ….फिर ऐसा करते हुये लिपटे जा रहे हैं …और ऐसे लिपट रहे हैं जैसे तमाल वृक्ष पर कनक लता लिपटी हो ….आहा ! सखियों ! इस झाँकी को अपने हृदय में उतारो …यही हमारा मंगल करेगा । हित सखी आनंदित होकर कहती है ।
इसके बाद सब सखियाँ बस निहारती हैं अपलक …..सब कुछ भूल जाती हैं …उन्हें कुछ भान नही रहता ….हित सखी तो आगे कुछ बोल ही नही पा रही । कुछ समय बाद हित सखी ने फिर बोलना प्रारम्भ किया …..ये कुँज भी कितना सुन्दर है ना ! नवीन कुँज है….इसमें पुष्प भी कितने सुन्दर खिले हैं …..झर रहे हैं आनंदित होकर ….और हाँ , सुनो ! देखो मोर बोल रहा है ….और ऊपर से कोकिला कुहुँक रही है …दोनों साथ साथ में मानों जुगलबंदी कर रहे हैं …अद्भुत !
पर तुरन्त हित सखी फिर बोल उठती है …..अरे ! श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? प्रिया जू कहाँ हैं ? हंसती है सखी और कहती है …देखो ! श्याम सुन्दर मोर बन गये हैं और हमारी प्रिया जू कोकिला बनकर कुहुँक रही हैं ….ये झाँकी तो अपूर्व है …पहले कभी नही देखी गयी । सब सखियाँ गदगद भाव से इस झाँकी को देखती रहती हैं …..किन्तु तत्क्षण फिर झाँकी बदल जाती है ….
श्याम सुन्दर और श्रीराधिका नृत्य कर रहे हैं ……हित सखी कहती है – देखो इन दोनों के अंग अंग में काम देव भरा हुआ है ….ये कामदेव लौकिक नही है …ये काम देव भी अलौकिक है …इन्हीं की लीला को रस प्रदान करने के लिए इन्हीं के अंग से प्रकट हुआ है ….देखो तो …काम के भार से इन के अंग भी कैसे मत्त हो रहे हैं ….इसके अंग कितने प्रसन्न हो रहे हैं …ये गान भी करते हैं …ये एक दूसरे को चूम भी रहे हैं ….दोनों खड़े हो जाते हैं और एक दूसरे को देखते ही जाते हैं ।
ओह ! हित सखी के नेत्रों से आनन्द के अश्रु बह चले हैं ….वो आगे कुछ बोल नही पाती …अन्य सखियों की दशा भी यही हो गयी है ….इन रूप सुधा का नयनों से पान कर ये सब अब कुछ भी बोलने की स्थिति में नही हैं ….हाँ , अब ये सब थिरकने लगती हैं । क्यों की प्रेम की समाधि नृत्य ही है …..आहा ।
क्या हुआ ये ? गौरांगी नाच उठी ……राग देश में मैंने अन्तिम में सत्रहवाँ पद श्रीहित चौरासी जी का फिर गान किया ….गौरांगी नाची , वो नाचती रही …..मत्त हो कर …उस समय ऐसा लग रहा था कि ये यहाँ की नही , ये तो निकुँज की ही कोई सखी है । ओह ।
“आजु देखि बृजसुन्दरी , मोहन बनी केलि “
आगे की चर्चा अब कल –


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