!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( “रस विज्ञान” रहस्य – “खेलत रास रसिक बृज मंडन” )
गतांक से आगे –
श्रीराधा श्यामसुन्दर का ये रस प्रवाह अखण्ड है …ये अखण्ड बहता है …अनादि अनन्त काल से और अनन्त काल तक बहता ही रहेगा । ये रस तत्व ही ऐसा है …नित्य नवनवायमान है । सौन्दर्य असीम और माधुर्य अनन्त है , ये रास करते हैं नित्य , ये नित्य एक दूसरे को निहारते रहते हैं …एक दूसरे में ही रहते हैं …पर क्या आपको पता है ये अभी तक एक दूसरे को पहचान ही नही पाये हैं ।
क्यों ? क्यों की ये प्रेम सागर में डूबते और उबरते रहते हैं …एक दूसरे में खो जाते हैं ….फिर ये समझ ही नही पाते कि कौन राधा कौन कृष्ण ? भूल गये ! गौर और श्याम रंग बदल गया ..एक दूसरे में इतने खो गये कि गौरांगी श्यामा, श्याम रंग की हो गयीं और श्यामसुन्दर गौरांगी में इतना खो गये कि वो गौर हो गये । ये प्रेमोल्लास ब्रह्म और उनकी आल्हादिनी का है ….कालातीत है ये सब ….यहाँ तक किसी की गति नही है । जो अपनी कामनाओं की होली जला सके …और अपना सर्वस्व युगल को चढ़ा सके उसी का प्रवेश है । ये है ही ऐसा विलक्षण “रस विज्ञान”।
“ये हित मार्ग है”….इसके समान तुम्हारे हित की सोचने वाला जगत में और कोई मार्ग नही है ।
हित का अर्थ तो समझते ही हो ? हित माने जिसके द्वारा हमारा मंगल हो , भला हो , कल्याण हो …उसे ही तो हित कहते हैं ….ये हित मार्ग है ।
राधा बाग में आज पागलबाबा हमें “रस रहस्य” समझा रहे थे ।
एक होता है “धर्म विज्ञान” , दूसरा होता है “अध्यात्म विज्ञान”, तीसरा होता है “भक्ति विज्ञान” पर “भक्ति विज्ञान” से भी ऊँचा है ये “रस विज्ञान” …विशुद्ध प्रेम का मार्ग । रस का मार्ग ।
इसको थोड़ा स्पष्ट करें बाबा ! शाश्वत ने प्रार्थना की थी ।
“धर्म विज्ञान” जो कर्मकाण्ड है ….आज अमावस्या है दान करो , आज शनिवार है तेल चढ़ाओ …आज श्राद्ध है पितरों का ….तर्पण करो ….ये प्यासा है पानी पिलाने से पुण्य मिलेगा ….तीर्थ में आए हैं ….पुरोहित को दान करो …ये “धर्म विज्ञान” है …इससे तुम्हें फल मिलेगा सुख प्राप्त करोगे स्वर्ग मिलेगा । पर इससे ऊँचा है “अध्यात्म विज्ञान” ….तुम अध्यात्म विज्ञान के मार्ग में ऊँचे उठते हो , कर्मकाण्ड में नही उलझते …अध्यात्म विज्ञान तुम्हें अनुभव कराती है कि आत्मा तो एक है …दूसरा कोई है ये भ्रम है …फिर दान आदि किसे ? अध्यात्म में तुम सीधे आत्मा से जुड़ते हो । आत्मा में न स्वर्ग है न नर्क …वहाँ ये सब मिथ्या है ….आत्मा मुक्त है । बाबा कहते हैं पर इसके आगे क्या ? मुक्त हो गये …अब क्या ? शान्त हो गये , पर अब क्या ? यहाँ से “भक्ति विज्ञान” की शुरुआत होती है …आत्मा को प्यास उठती है परमात्मा की …वो परमात्मा की ओर बढ़ता है …वो पुकारता है ….इसे कहते हैं “भक्ति विज्ञान” । बाबा यहाँ रुक जाते हैं ….थोड़ा मुस्कुराते हैं ….फिर आगे कहते हैं ….इस भक्ति के आगे भी एक अन्तिम मार्ग है …इन सबसे ऊँचा है वो मार्ग , सबको पता भी नही है उसका …ये आम रास्ता नही , ख़ास लोगों के लिए रास्ता है ….बाबा कहते हैं – “रस विज्ञान”….इसे हमारे श्रीवृन्दावन के रसिकों ने खोजा है और ख़ास मार्ग को आम मार्ग बनाने के प्रयास में लग गये हैं …ये अति सरल मार्ग है ।
“भक्ति विज्ञान” और इस “रस विज्ञान” में क्या अन्तर है ?
गौरांगी पूछती है ।
भक्ति विज्ञान में हम भक्त हैं और वो भगवान है…ये भेद है ।
पूर्ण माधुर्य तब तक प्रकट नही होगा जब तक आप उसे अपना , पूर्ण अपना नही मानेंगे । बड़े छोटे का भेद भक्ति में है …इस बात को तुम समझ रहे हो ना ? वो भगवान हैं तो हमसे बहुत बड़े हैं ..कुछ भी कर सकते हैं …ईश्वर हैं , पूर्ण ऐश्वर्य है उनमें …और जब तक ये भावना भी रहेगी तब तक आप उसे लाढ प्यार नही कर सकते …पूर्ण अपनत्व प्रकट नही हो सकता …उसके लिए तो आपको उनके प्रेम में इतना डूबना होगा कि ये बात आप विस्मृत ही कर दें …कि वो भगवान है ….तब आपके हृदय में प्रेम प्रकट होगा …जिसे “रस”कहते हैं ….फिर वो रस अपना रूप दिखायेगा …उस रस का प्रकाश होगा आपके हृदय में …वही रस फिर धीरे धीरे आकार लेने लगेगा …तब उस “रस विज्ञान” का चमत्कार तुम देखोगे …ये सब सृष्टि उसी रस का विलास है …रस है …रस ही रूपायित हो रहा है ।
इसी को “हित तत्व” कहते हैं ….क्यों की इसी से सच्ची में तुम्हारा भला होगा ।
बाबा ने संक्षिप्त में “रस विज्ञान” को हमें समझा दिया था ……
राधा बाग में लोग आने शुरू हो गये थे …इसलिये अब श्रीहित चौरासी जी के गायन की तैयारी में हम लोग भी लग गये ….शाश्वत माला आदि तैयार कर रहा था …वाद्य बजाने वालों को बैठने के लिए बिछावन गौरांगी ने कर दी थी । और वीणा लेकर ये स्वयं बैठी ।
आज “श्रीहित चौरासीजी” का उन्नीसवाँ पद है …शहनाई में “राग आसावरी” बजाया गया ….तो बाबा बड़े प्रसन्न हुये …..इसी राग में कुछ देर तक जुगलबंदी पखावज के साथ हुआ ….फिर गौरांगी ने इस पद का गायन किया …..अद्भुत गायन किया था ।
खेलत रास रसिक बृज मंडन ।
जुवतिन अंश दियैं भुज दंडन ।।
शरद विमल नभ चंद विराजै ।
मधुर मधुर मुरली कल बाजै ।।
अति राजत घनश्याम तमाला ।
कंचन बेलि बनी बृजबाला ।।
बाजत ताल मृदंग उपंगा ।
गान मथत मन कोटि अनंगा ।।
भूषण बहुत विविध रँग सारी ।
अंग सुधंग दिखावति नारी ।।
वरषत कुसुम मुदित सुर जोषा ।
सुनियत दिवि दुंदुभि कल घोषा ।।
श्रीहित हरिवंश मगन मन श्यामा ।
राधा रवन सकल सुख धामा ।19 ।
खेलत रास रसिक बृज मंडन ……….
पूरा बाग रसमय हो गया था इस गायन से ….पद में रास का वर्णन है ….गायन करते हुये ही ऐसा लग रहा था कि श्याम सुन्दर और श्रीराधिका इन युगल का नृत्य यहीं हो रहा है और हम उसे देख रहे हैं ……ओह ! अब बाबा ने इस पद का ध्यान कराया ।
!! ध्यान !!
वो यमुना की ओर जाने वाली पगडंडी पूरी फूलों से पटी पड़ी है ......ऊपर से तोता कोयली बोलते हुए उड़ रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं .....मोर पगडंडी के दोनों ओर घूम रहे हैं कोई कोई पंख फैलाये नाच भी रहे हैं ....शीतल मन्द सुगन्ध वायु बह रही है .....इन सबसे प्रेम का उन्माद उस श्रीवन का और बढ़ गया है ....बढ़ता ही जा रहा है । श्याम सुन्दर अभी भी वहीं बैठे हैं अपनी प्रिया के चरणों में ...उन्माद चढ़ा है उनमें ....उनकी प्रिया उनको झकझोरती हैं ....और मुस्कुराती हैं ...श्याम सुन्दर जागृत हो जाते हैं ....और अपनी प्रिया को फिर निहारने लगते हैं ।
उठो प्यारे ! किशोरी जी उठाती हैं …वो अपने को सम्भालते हैं …और उठते हैं …फिर धीरे धीरे दोनों उसी फूलों से पटे पगडंडी से आगे बढ़ने लगते हैं …उनके सामने मोर आरहे हैं …कोई मोर आगे आकर पंख फैला देते हैं …उस मोर की छवि को देखकर ये दोनों बहुत प्रसन्न होते हैं ..अब तो मोरों में होड़ ही लग जाती है पंख फैलाने की ….चारों ओर सहस्रों मोर पंख फैलाकर नाच उठे हैं ।
ये देखकर श्रीराधा श्याम सुन्दर के कानों में कुछ कहती हैं …..श्याम सुन्दर श्रीराधा जू की कही बात से अति प्रसन्न हो उठते हैं ……अब आगे पगडंडी खतम हो गयी है ….यमुना की विस्तृत भूमि है …जो चाँदी की तरह चमक रही है …नभ में चन्द्रमा पूर्णता से खिल उठे हैं …..एकाएक श्रीवन चन्द्र की चाँदनी में नहा उठा है ….फिर संकेत किया नयनों से श्रीराधिका जू ने …श्याम सुन्दर भूल गये थे उन्हें फिर स्मरण हो आया । फेंट में से बाँसुरी निकाली ….और अधरों पर धरी …..और ..और …..अरे ! प्रत्येक कुंजों से सखियाँ निकल कर यमुना के तट पर आने लगीं ….उनकी संख्या हजारों में थी । तब रास प्रारम्भ हुआ ……
हित सखी कह रही हैं – आहा ! समस्त बृज के प्रकाश स्वरूप अखिल सौन्दर्य के अधिपति रास केलि के परम रसिक श्रीराधा और श्याम सुन्दर अपनी सखियों के कन्धे में हाथ रखकर कैसा दिव्य महारास कर रहे हैं ….निहारो सखी ! इस रूपसुधा का पान करो सखी !
आकाश में देखो , शरद की पूर्णिमा है इसलिए चन्द्रमा भी पूर्ण खिला हुआ है …और ये श्याम सुन्दर मध्य मध्य में जब बाँसुरी बजाते हैं तब तो ऐसा लगता है कि ये चन्द्र भी मत्त हो रहा है ।
अब तो वर्तुलाकार बना दिया सखियों ने और बीच में ले लिए श्याम सुन्दर को …चारों ओर सखियाँ मध्य में श्याम सुन्दर । इस झाँकी को देखकर हित सखी कहती है ….ये छवि तो ऐसी लग रही है जैसे ….सुवर्ण की बेल मध्य श्याम तमाल खड़ा हो ।
तभी घूमती हुयी सखियाँ रुक गयीं और वहीं यमुना की चमकती हुयी बालुका में बैठ गयीं ….उन सबके हाथों में अब वाद्य थे …किसी के हाथों में मृदंग तो किसी के हाथों में झाँझ ….कोई कोई तो मधुर कण्ठ से गान भी कर रही थीं …उनके गान ने कामदेव के मन को मथ दिया था ।
सखियों की साड़ियाँ बड़ी सुन्दर थीं ….विविध रँग की साड़ी जिसकी शोभा देखते ही बन रही थी ।
हित सखी कहती हैं – अनेक आभूषणों से सज्जित वो सखियाँ अब नृत्य दिखाने लगीं …उन्मत्त होकर नाचने लगीं …क्या छवि थी …क्या दिव्यता थी …मधुरातिमधुर था सब कुछ ।
पर तभी नभ से सुमन बरसने लगे ….वो सुमन बस बरसते ही जा रहे थे …जिसके कारण पूरा श्रीवन फूलों से पट गया था …दुंदुभि बज उठे थे ….जयजयकार चहुं दिशि से होने लगे थे ….उस समय हमारे श्रीराधा रमन मिल रहे हैं….एक हो रहे थे ….अजी , एक हो ही गये हैं ।
जय जय श्री राधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
पागल बाबा उन्मत्त होकर जयकारा लगा रहे थे ….सब रसिक इस रस में डूब गये थे ।
गौरांगी ने अपने को सम्भाला और श्रीहित चौरासी जी का उन्नीसवाँ पद फिर गाया ……
“खेलत रास रसिक बृज मंडन”
आगे की चर्चा अब कल –


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