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September 14, 2025 6:41 am

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!! राधा बाग में -“श्रीहित चौरासी” !!-( महाप्रेमार्णव – “मोहन लाल के रस माती” )- : Niru Ashra

!! राधा बाग में -“श्रीहित चौरासी” !!-( महाप्रेमार्णव – “मोहन लाल के रस माती” )- : Niru Ashra

!! राधा बाग में -“श्रीहित चौरासी” !!

( महाप्रेमार्णव – “मोहन लाल के रस माती” )

गतांक से आगे –

श्रीवृन्दावन धाम प्रेम का एक महा अर्णव है …इस प्रेम के अर्णव में ऊँची ऊँची तरंगे है ..जो क्षण क्षण में ही उठती रहती हैं …और इसमें डूबते उबरते रहते हैं ये दोनों रसिक रसिकनी …इनकी सखियाँ इस प्रेम सागर की तरंगों में जब भींगतीं हैं तब तो ये और उन्मत्त हो उठती हैं । तरंगे विचित्र हैं …विलक्षण हैं …चमत्कृत कर देने वाली हैं ।

मिल रहे हैं दोनों , दोनों के हृदय से हृदय मिले हैं …अंगों से अंग मिले हैं …साँसों से साँसे मिली हैं ।

तभी पुकार उठती हैं श्रीराधा ….हा नाथ ! हा प्रीतम ! हा प्राण !

“प्यारी ! मैं यहीं हूँ” …..श्याम सुन्दर हृदय से लगाते हुये कहते हैं अपनी प्यारी को ।

क्या अद्भुत तरंगें है ! आप ऐसे उन्मद प्रेम की कल्पना कर सकते हो ? निकटतम होते हुए भी अपार वियोग की भावना ! उफ़ !

और यही इनका प्रेम प्रवाह सखियों को आप्लायित और आप्लावित करता रहता है …यही प्रेम सुधा इन सखियाँ का आहार है ….प्राण है ।

श्याम सुन्दर प्रिया के हृदय से लगे हुये हैं …एक ही हो रहे हैं …तभी उनको उन्माद चढ़ जाता है …और वो हा राधा ! पुकार उठते हैं ….श्रीराधा देखती हैं उन्मद हो उठे हैं प्रियतम , तब वो झुककर प्रीतम को अपने अधर रस का पान कराती हैं …..

ये प्रेम दशा देखकर कोई सखी चित्र लिखी सी खड़ी रह जाती है …कोई बेसुध हो उठती है …कोई नयनों से अविरल अश्रु बहाने लग जाती है ।

धन्य है प्रेम , जय हो इस प्रेम की …और धन्यातिधन्य तो वो हैं जो इस प्रेम समुद्र की एक छींट भी अपने ऊपर डाल चुके हैं या जिनमें पड़ गयी है ….जय हो , जय हो ।


राधा बाग भी इन दिनों प्रेम सागर में डूबा हुआ है ….और जो भी यहाँ आता है …वो डूब ही जाता है ….कल की ही तो बात थी एक नास्तिक था वो दिल्ली से आया था अपने चाचा के साथ बरसाना …राधा बाग भी दर्शन के लिए आया …उस समय श्रीहित चौरासी जी की रसमयी चर्चा चल रही थी ….बस डूब गया वो भी प्रेम सागर में …सारे तर्क उसके कहाँ गये उसे भी पता नही था ….इस सागर की लहरों ने फेंक दिया था इसके सारे तर्कों को ।

एक वेदान्ती भी आये थे , ये आए थे मध्यप्रदेश से …नर्मदा के तट से …..थे तो कट्टर वेदान्ती पर राधा बाग जब आए तो इस रस में डूब गये ….ये प्रेम का अर्णव है …..इसका काम ही डुबोना ….डुबो दिया ….कभी अश्रु बहाये नहीं थे ….किन्तु यहाँ इनके इतने अश्रु बहे की ये पूरे भींग गये थे …सारा ज्ञान बह गया …..आँखें लाल थीं इनकी । ये यहीं हैं , ये “अहं ब्रह्मास्मि” छोड़कर …”राधा राधा राधा” जप रहे हैं । रस तत्व निराकार है …जो सर्वव्यापक है ….इसको कोई नकार नही सकता …ये अवैदिक नही है …पूर्ण वैदिक है ये सिद्धांत है – रस सिद्धांत ।

पागल बाबा आज शान्त हैं ….लोगों की भीड़ आज कुछ ज़्यादा ही है ….”राधे कृष्ण राधे कृष्ण”… ..इस युगल नाम मन्त्र का संकीर्तन कुछ ब्रजवासियों ने आकर किया …बाबा उनसे बहुत प्रसन्न थे । अब समय हो रहा था श्रीहित चौरासी जी के गायन का ….तो गौरांगी ने वीणा आदि लाकर रख दिये ….कलाकार भी आगये थे …आज श्रीजी के महल की ओर से एकाएक कई मोर आगये ….और सीधे राधा बाग में ही उतरे । इससे वातावरण और दिव्य हो गया था ।

आज बीसवाँ पद है ….श्रीहित चौरासी जी का बीसवाँ पद ….राग धनाश्री में इसका गायन किया था गौरांगी ने आज ….संगत में सारंगी और पखावज …वीणा ये स्वयं ही लेकर बजाती है ।

सब गायन कर रहे थे ……..गौरांगी के पीछे पीछे ।


                 मोहन  लाल  के  रस  माती ।

           वधू गुपती गोवति कत मोसौं ,   प्रथम नेह सकुचाती ।।

          देखि सँभारि पीत पट ऊपर ,   कहाँ चूँनरी राती ।
           टूटी लर लटकति मोतिन की , नख विधु अंकित छाती ।।

           अधर बिम्ब खंडित मषि मंडित , गंड चलत अरुझाती ।
          अरुन नैंन घूमत आलस जुत , कुसुम गलित लटपाती ।।

           आजु रहसि मोहन सब लूटी , विविध आपुनी थाती ।
             श्रीहरिवंश वचन सुनि भामिनी ,  भवन चली मुसिकाती ।20 !

मोहन लाल के रस माती …………

“हरिनाम जप के साथ वाणी जी के पदों का गान ये भी आवश्यक है” ….ये बात बाबा उन वेदान्ती जी की ओर देखकर बोले थे …क्यों की पद में लीला का चिन्तन होता है ..जिससे ध्यान बनता है ….नाम और ध्यान ये दोनों हों तो फिर और कुछ नही चाहिये ।

इतना बोलकर बाबा अब इस पद का ध्यान कराते हैं …..आइये ध्यान की गहराई में चलें ।


                                    !! ध्यान !!

       प्रभात की वेला है ....मन्द सुगन्ध समीर बह रही है ....पक्षियों ने चहकना शुरू कर दिया है ...अरुणोदय होने वाला है ....तभी श्रीजी उठीं .....श्याम सुन्दर सोये हुए हैं ....अभी ही तो सोये हैं ....पूरी रात ये सोये कहाँ हैं ....सोते हुए भी कितने सुन्दर लग रहे हैं ....श्रीजी ने अपने बिखरे केशों को  बांधा  ये बांधते हुए भी अपने प्रियतम को ही निहार रही हैं .....झुक कर  एक बार और चूम लिया है  लाल जू के कपोल को श्रीजी ने ...श्याम सुन्दर ने  सोते  श्रीजी को आलिंगन देकर अपनी और फिर खींचना चाहा ...पर नही ...श्रीजी ने श्याम सुन्दर के कपोल में हल्की थपकी दी ...और वो उठ गयीं ....वो उठीं इसलिये कि कहीं सखियाँ न आजाएँ ....उन्होंने अपने सुन्दर गौर अंग को छुपाया ....पर जल्दी में  पीताम्बर को ओढ़ लिया और अपनी लाल चुनरी वहीं छोड़ दी ..और बाहर आगयीं .....बाहर जब आयीं तब सखियाँ का झुण्ड वहाँ खड़ा दिखाई दिया वो सब भीतर ही आने वाली थीं ...उन सबको देखकर एक बार और श्रीजी ने अपने आपको सम्भाला ...अपने अंगों को ढका ....ये देखकर सखियाँ मुसकुराईं ...श्रीजी शरमाईं ।    तब हित सखी  आगे आकर बोली ....अरी मेरी  राधा प्यारी !    कैसे मत्त हो रही हो !  ये सुनकर श्रीजी और शरमा गयीं ...उन्होंने दृष्टि नीचे कर ली और मन्द मुस्कुराने लगीं ......

अरी नवेली दुलहिन ! आखिर प्रीतम के रंग में तुम रंग ही गयी । तभी तो मत्त हो रही हो ।

नहीं ऐसा कुछ नही है । श्रीराधा जी नीचे ही देखकर बोलीं ।

क्या कुछ नही है …..हमसे मत छुपाओ ….अपना गुप्त रहस्य बता दो ….वैसे नही भी बताओगी तो भी हम समझ ही गयीं हैं ……

क्या समझी हो ? श्रीजी ने फिर पूछा ।

तुम्हारी आँखें मत्त हैं ….ये बता रही हैं कि प्रथम प्रीतम मिलन में क्या क्या हुआ है ।

अरी मेरी प्यारी राधा ! वस्त्र बता रहे हैं ….पीताम्बर ओढ़ लिया है तुमने ….पीताम्बर नही ओढ़ा पीताम्बर धारण करने वाले को ही ओढ़ा है ….मोतियों की माला टूटी है ….और !

श्रीराधा जी सखी से पूछती हैं …क्या और ? बोल ? सखी हंसती है और अपनी प्यारी की बलैयाँ लेकर कहती है ….सुनना भी चाहती हो और नही सुनने का स्वाँग भी कर रही हो !

श्रीराधा जी अब कुछ नही बोलतीं पर कान सखी की मीठी बातों की ओर ही हैं…..

आपके वक्षस्थल में ये नख के चिन्ह कैसे ? ये सुनते ही श्रीजी पीताम्बर से अपने वक्ष को ढँक लेती हैं ….क्या क्या ढकोगी प्यारी ! तुम्हारे ये अधर किसी परम रसिक ने चूमे हैं …रस पीया है …ये दिखाई दे रहा है । श्रीराधा जी ये सुनकर असहज सी हो जाती हैं । पर सखियाँ छेड़ना छोड़ती नही हैं ….वो कहतीं हैं ..वेणी ढीली हो गयी है ….कैसे ढीले हुये ?

ये सुनकर श्रीराधा जी वहीं बैठ जाती हैं …..और मन ही मन मुस्कुराने लगती हैं तो सखी कहती हैं …..वाह ! हमने पहली बार किसी को देखा है जो लुटा है उसके बाद भी प्रसन्न हैं ….

क्या ? श्रीराधा जी सखी से पूछती है ।

मोहन लाल रूपी चोर ने आपकी रस सम्पत्ति लूट ली है ……और हाँ , पराई समझ कर नही अधिकार से लूटा है …..निर्भीक होकर लूटा है । इसके बाद भी आप प्रसन्न हो !

अब तो श्रीराधा जी मुस्कुराते हुये वापस अपने प्यारे के पास ही लौट जाती हैं ।

सखियाँ ये झाँकी देखकर मन्त्र मुग्ध हैं …..प्रिया जू लड़खडाई चाल से चल रही हैं ।


पागल बाबा का रोम रोम प्रफुल्लित है ….वो आज आनन्द से भरे हैं …..आनन्द भी अपनी सीमा पार कर रहा है ….उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगे हैं ।

गौरांगी ने फिर एक बार ….इसी श्रीहित चौरासी जी का बीसवाँ पद गाया ।

“मोहन लाल के रस माती”

सबने पद का गायन किया था , इस महाप्रेमार्णव में डूबकर फिर गायन किया था ।

अब आगे की चर्चा कल –

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