!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( प्यार की बयार – “तेरे नैंन करत दोऊ चारी” )
गतांक से आगे –
ये कैसी बयार है ? पागल बयार , जो सबको पागल बना रही है …इस बयार ने जिसे छूआ ..वो पगला गया …..हाँ , क्यों न पगलाये ….ये प्यार की बयार है । सब छीन लेगा …तुम्हारा सब कुछ हर लेगा ….यहाँ तक कि तुम्हारा तन और मन भी …..फिर आतंकित करके तुम्हें विवश कर देगा कि पट खोलो ….जो पट अभी तक खुले नही हैं …..सदियों से किसी ने इस तरह प्यार की बयार चलाई भी कहाँ थी ….प्यार के नाम पर शोषण ही तो किया था ….झकझोरा कहाँ था आत्मा को ….उस आत्मा की प्यास को अनुभव किया कहाँ गया था । आज बयार चली है ….तुम भाग्यवान हो की बयार ने तुम्हें उघाड़ा ….ओह ! देखो ! प्रेम लीला खिल गयी है …तुम दर्शन करो ….मन से दर्शन करो ….फिर देखना तुम्हारे भीतर भी वो कली खिलेगी …धीरे धीरे खिलेगी ….तुम डरोगे ….क्यों की छूछे नैतिक संस्कार के आवरणों से तुमने अपने को ढँका है …सदियों से ढँका है ….ये बयार उन्हें हटायेगी ….तब तुम डरोगे ….पर हटना आवश्यक है …यही बाधक है उस नित्य निकुँज की प्रेम लीला देखने में ….यही रोड़ा है ….ये तुम्हारे सड़े गले संस्कार तुम्हें नित्य निकुँज का रस लेने नही देते …..पर अब बयार चली है ….खिल रही है कली …भीतर का पराग भी काँप रहा है ….वो अब उड़ेगा ….ये संक्रामक है ….ये पराग जिस जिस में पड़ेगा उसे भी प्यार से भर देगा । ये प्यार का गन्ध , तुम्हें सोने नही देगा ….वो उज्ज्वल नीलमणि …तुम्हारे अन्तस्तल में जाकर जगह बना चुके हैं …..वो वहीं अब विहार करेंगे ….सेज सजाओ , मंगल गाओ …नाचो , मत्त हो जाओ …उन्मत्त हो जाओ । ये प्यार की बयार है …….
राधा बाग में चली है ये बयार …..खिला दिया है सबके हृदय कमल को …पराग उड़ उड़ कर सारे बाग को पगला कर रहा है …..कभी सोचा नही था कि यही काम , मोह , लोभ , राग इतने आवश्यक हैं ? हमको तो सदियों से सिखाया गया था कि काम को हटाओ , लोभ बुरी चीज़ है …मोह तो और बुरा है ….पर इस प्यार की किताब ने मायने बदल दिये ….काम आवश्यक है …नित्य निकुँज में काम जाकर दिव्य रूप धारण करके उज्ज्वल श्रीराधा और नीलमणि श्रीश्याम सुन्दर के विहार में सहायक बन बैठा है …..हृदय में मीठी कम्पन देता है ….क्यों गलत कहाँ इसे ? मोह ….यही मोह-आसक्ति तो इस मार्ग में आवश्यक है ….प्रियतम से आसक्ति नही तो क्या उसे आप प्यार का नाम दोगे ? लोभ …रूप दर्शन का लोभ …उनकी प्रेम भरी बतियाँ सुनने का लोभ ….उनकी चर्वित पान खाने का लोभ । काम तो मरा पड़ा था ….इसी बयार ने तो उसे सजीव किया है …..फिर श्रीराधा अपने प्रियतम के अंक में खेल उठती हैं ….प्रियतम अपनी श्रीराधा को नित्य सजाते नही थकते …..ये ऐसी बयार है कि सखियां मत्त-उन्मत्त हो सब कुछ वार देती हैं युगल के चरणों में …..पर चाहती कुछ नही हैं …..हाँ चाहती हैं तो बस इतना ही …..
पागल बाबा कहते हैं ……अति उदार विवि सुन्दर , सुरत सूर सुकुमार ।
श्रीहित हरिवंश करौं दिन ,दोऊ अचल विहार ।।
हम सहचरी बस यही चाहती हैं कि हमारे युगल ऐसे ही नित्य विहार करते रहें ….ये नित्य विहार इनका रुके नहीं ….चलता रहे और स्वयं सुख लूटें …बस ।
बाबा कहते हैं – ये है श्रीहित चौरासी जी , और इनका ये सिद्धान्त है ।
आज इक्कीसवाँ पद है …राधा बाग अद्भुत सौन्दर्य को अपने में समेट कर बैठा है ….प्यार से भरा ये बाग इतरा भी रहा है …..अद्भुत शोभा सम्पन्न , अद्भुत राग रंग से भरा हुआ है ।
बाबा ने गौरांगी से आज का पद गायन करने के लिए कहा ……समस्त रसिकों ने “वाणी जी” खोल लिये …..वीणा के सुमधुर तार झंकृत हो गये …गौरांगी की पतली पतली उँगलियाँ वीणा के तारों पर नृत्य कर उठीं ….राग “धना श्री” को बजाने लगी गौरांगी …..पखावज में संगत थी …कुछ देर जुगल बंदी के बाद गायन को प्रारम्भ किया गया था ………….
तेरे नैंन करत दोऊ चारी ।
अति कुलकात समात नहीं कहूँ , मिले हैं कुँज बिहारी ।।
विथुरी माँग कुसुम गिरी गिरी परैं , लटकि रही लट न्यारी ।
उर नख रेख प्रकट देखियत हैं , कहा दुरावति प्यारी ।।
परी है पीक सुभग गंडनि पर , अधर निरंग सुकुमारी ।
श्रीहित हरिवंश रसिकनी भामिनी , आलस अँग अँग भारी । 21 ।
तेरे नैंन करत दोऊ चारी …………
पद के गायन में अद्भुत रस और राग का संगम हुआ …पद में ही इतना रस भरा है कि लगता है ये झाँकी हमारे सन्मुख प्रकट हो गयी है ।
बाबा आज पद गायन के बाद कुछ नही बोले हैं …..सीधे उन्होंने ध्यान ही कराया है ।
!! ध्यान !!
श्रीवन की भूमि अति उज्ज्वल है , ऐसा लगता है कि कपूर पीस कर इस भूमि में बिखेर दिया हो ।
भूमि चमक रही है ….क्यों की अरुणोदय हो गया है ….शीतल मन्द वायु बह रहे हैं ….उसमें श्रीराधिका मत्त- मन्द गति से चल रही हैं । पीताम्बर ओढ़ कर प्रसन्न चित्त श्रीराधा रानी चली जा रही हैं ….सखियों ने अभी छेड़ा है …..इसलिये ये वहाँ से चल दीं हैं …..सखियाँ पीछे पीछे हैं ….पीछे चल रहीं हैं । श्रीराधा रानी अपने चरण जहां रखतीं हैं ….वहाँ उनके चरणों की महावर छूट रही है …लाल चरण के चिन्ह अवनी में बनते जा रहे हैं । दिव्यता तब और बनती है जब आगे आगे श्रीराधा अपने चरण रखती हैं ….और श्रीवन की धरती कमल पराग को बिछाती चलती है …अवनी श्रीराधा के लिए कोमल बन जाती है …..ये देखकर सखियाँ और गदगद हैं …आगे यमुना बहती हुई जा रही हैं …यमुना को देखकर श्रीराधा रानी वहीं रुक जाती हैं …..एक सुन्दर शिला है …..उस पर बैठ गयीं हैं ….मुस्कुराते हुये बैठ गयीं हैं …..क्यों की उन्हें पता है अब ये सखियाँ फिर मुझे छेड़ेंगी …पर इनका छेड़ना श्रीजी को कभी बुरा नही लगा …प्रियतम का नाम लेकर ये जो बोलती हैं वो सुनना श्रीजी को प्रिय है …ये फिर सुनना चाहती हैं इसलिये ये बैठ गयीं हैं ……
सखियाँ आगयीं ….श्रीजी को घेरकर बैठ गयीं ….श्रीजी मुस्कुरा रही हैं …..उनके कान अब सुनना चाहते हैं सखियों के मुख से जो इनके प्रियतम ने रति क्रीड़ा की है ….ये अद्भुत प्रेम की एक बानगी है ।
हित सखी श्रीराधा रानी के चिबुक को पकड़ती है और अपनी ओर करती है ….नयनों से संकेत करतीं हैं प्रिया जू ….क्या है ? तब हित सखी कहती है ….प्यारी जू !
प्यारी जू ! तुम्हारे नैंन तो चुग़ली कर रहे हैं । हित सखी ये कहते हुये हंसती है ।
काहे की चुगली ? श्रीजी फिर सैंन चलाकर ही पूछती है ।
चोरी की चुग़ली …..प्यारी ! तुम्हारी चोरी हुई है ….उस चोरी की चुग़ली ये हमसे कर रही हैं !
पर चोरी कहा ? श्रीजी फिर पूछती हैं ।
तुम्हारे हृदय में जो रस है , उस रस को किसी ने लूटा है …चुराया है …।
पर किसने चुराया सखी ? ये भी नैंन के सैंन चलाकर ही पूछ रही हैं ।
आप जा रही थीं कुँज से होकर …कुँज के आस पास कोई था नहीं तभी वहाँ बिहारी आगये ..कुँज बिहारी जो उसी कुँज में विहार करने वाले थे …बस फिर क्या था उन्होंने लूट लिया तुम्हारे हृदय के रस को …..और रस को लूटने पर ही तो तुम्हारी ये दशा हुई है …. माँग की मोती लर टूटी हुयी हैं ….सिन्दूर केशों में बिखर गया है …..इस प्रकार आपके प्रेम रस को बुरी तरह से लूटा है उस छलिया ने …बताओ है कि नहीं ? सखी के मुख से ये सुनकर श्रीजी फिर शरमा गयीं और अपने नयन झुका लिये । लूटते समय छीना झपटी भी की है उसने ….तभी तो आपके उर में नख के चिह्न भी बन गये हैं …..पर सुन्दर लग रहा है ….सखी ये कहते हुए हंसने लगीं …तो श्रीजी ने अपने आपको फिर ढँक लिया पीताम्बर से । आपके कपोल में पान की पीक लगी है ….उस छलिया ने पान चबाकर आपके कपोल को चूमा है …तो वही पीक आपके गोरे गालों की शोभा को बढ़ा रहे हैं …..श्रीजी ये सुनकर मन ही मन मुस्कुराने लगीं उन्हें वही सुरत काल की याद आगयी …उनका हृदय तेज तेज धड़कने लगा । ये देखकर हित सखी बोली …हे स्वामिनी ! तुम भी परम रसिकनी हो …रस को अच्छे से समझती हो ….किससे लुटना है ये भी जानती हो ….इसलिये तुम्हारे इन सुकोमल अंग अंग में आलस भरा हुआ है ….रस की देवि तो तुम ही हो …आनन्द की अधिकता अंगों में दिखाई दे रही है …”उस कुँज बिहारी के सुगन्ध से सराबोर हे बिहारिनी ! तुम्हें किसी की नज़र ना लगे”…..इतना कहकर एक तृण तोड़ वो सखी दूर फेंक देती है ….तभी श्रीजी के कमल नयन असहज हो उठते हैं …कभी सखी की ओर देखते हैं तो कभी नीचे देखने लग जाते हैं ….कभी मुस्कुराते हैं तो कभी गम्भीर बनकर अपने भावों को छुपाने लगते हैं …ये सब देखकर सखियाँ देह सुध भूल जाती हैं …और अपलक प्रिया जू को निहारती ही रहती हैं ।
पागल बाबा इस प्यार का वर्णन करते हुए सब कुछ भूल गये हैं …उनकी वाणी अब रुद्ध हो गयी है ….गौरांगी ध्यान में डूब गयी है ….ध्यान में तो पूरा राधा बाग ही डूब गया है ….इस समय इस भू पर है कौन ….सब नित्य निकुँज में ही हैं ……..
अब मैंने इसी इक्कीसवें पद का फिर से गायन किया ….क्यों की गौरांगी की स्थिति नही थी ।
“तेरे नैंन करत दोऊ चारी”
सच में इस प्यार की बयार ने सबको अपने में समेट लिया था …….
आगे की चर्चा अब कल –


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