!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( नव रूप लावण्य किशोरी – “बृज नव तरुणि कदम्ब मुकुट मणि”)
गतांक से आगे –
श्रीराधा क्या हैं ?
श्रीराधा – प्रेमोल्लास , नव रूप लावण्य , लीला माधुर्य , रतिकेलि चातुर्य एवं परम रस चमत्कार की परा-वधि हैं । इनका श्रीअंग बना ही है – लावण्य सार , सुख सार , कारुण्य सार , मधुर छवि रूप सार , चातुर्य सार , रतिकेलि विलास सार और सम्पूर्ण सारों के सार से श्रीकिशोरी जी का श्रीअंग बना है । ये रस की ही मूर्ति हैं …इतना समझ लो । इनका श्रीअंग हमारी और तुम्हारी तरह नही हैं …अनुराग ने ही गाढ़ होकर आकार ले लिया है श्रीराधा रानी का । ये प्रेम सार सरोवर में खिला पुष्प हैं …जिसका सुगन्ध-सौरभ श्याम सुन्दर भ्रमर बनकर नित्य निरन्तर लेते रहते हैं ।
ये सुन्दर हैं , या बहुत सुंदर हैं” ये कहना बेमानी है….इसी से आप भावना कीजिए कि अखिल सौन्दर्याधिपति श्रीकृष्ण चन्द्र जिनकी एक मुस्कान पर कोटि कोटि काम देव मूर्छित हो जाते हैं …..वो इन श्रीराधारानी की निकुँज वीथी में आकर , इनके रूप-सौन्दर्य जाल में फँसकर अपनी सम्पूर्ण स्वच्छन्दता को भुला बैठते हैं ….वो फिर कहीं नही जाते …वो कुँज में ध्यान करते हैं …..वो ध्यान करते हैं ..जिनका ध्यान ब्रह्मा शिवादि ….बड़े बड़े योगिंद्र मुनिंद्र करते करते नही थकते पर उनको भी इनकी एक झलक नही मिलती …वो श्रीराधा रानी के ध्यान में मग्न हैं ।
अजी ! अब आपके समझ में आया ? ये हैं श्रीराधा ।
राधा बाग में आज श्रीहितचौरासी के पद का गायन आरम्भ हो गया था ….आज जिस पद का गायन था वो पद संख्या उन्नतिस है ….पागलबाबा बोले – मैं एक दिन यही पद गाते हुए निधिवन में सोहनी लगा रहा था तो मुझे साक्षात् श्रीजी के दर्शन हुए …..मैंने उन्हें साक्षात् देखा …पूरा श्रीवन जगमगा उठा था …..उन दिनों इतनी भीड़ होती नही थी …एक दो बृजवासी ही दिखाई देते थे …मैं तो कुछ देर स्तब्ध सा हो गया …फिर अचेत हो गया …पर उस अचेत अवस्था में भी मैं सखियों की खिलखिलाहट को सुन पा रहा था …वो अवस्था विचित्र थी मेरी । बाबा बोले । उस समय मैंने अनुभव किया कि श्रीजी के घुघरूँ की ध्वनि इतनी मधुर थी कि मैं बता नही सकता । ये बात है दोपहर की …सर्दी का महीना था । फिर सन्ध्या के समय किसी बृजवासी ने मुझे लताओं के मध्य पाया तो उसने मुझे उठा कर बाहर रख दिया था । हम आगे कुछ पूछना चाह रहे थे …पर बाबा को ये सब बातें बताने में रुचि नही रहती । उन्हें लगता है इस बात का प्रचार होगा तो जो ठीक नही है ।
अच्छा अब पद गाओ …बाबा ने आज्ञा दी । फिर बोले ..ये पद अकेले में किसी वृक्ष-लता के आस पास सोहनी ( झाड़ू ) लागते हुए गाओ …और ये सोचो इसी वृक्ष लता के तले आकर हमारे युगल सरकार विराजेगें । और बड़े प्रेम से गाओ इस पद को …ये पद श्रीहित चौरासी का मुख्य पद है ।
तभी कलाकार आगये …सारंगी पखावज वाले आये थे …बाबा कहते हैं ..श्रीजी को आज ये पद “देवगन्धार राग” में सुनाओ …बाबा को रागों का भी पूरा ज्ञान है …शाश्वत बोला । बाबा बोले – हमारा मार्ग राग-रंग का ही तो है ….मैंने श्रीवृन्दावन में ही आकर सीखा था रागों को …अपने लिए नहीं ….श्रीजी को रिझाने के लिए । किससे ? धीरे से गौरांगी ने पूछा । बाबा हंसते हुए बोले …निम्बार्क सम्प्रदाय के एक बड़े सिद्ध महात्मा थे …श्रीशुकदेव दास जी । बाराह घाट में रहते थे । वो बहुत बड़े संगीतज्ञ थे …मैंने उन्हीं से सीखा था ।
देवगंधार राग ….सारंगी वाले को ही आता था …वो बूढ़े बड़े थे …गौरांगी को नही आता …इसलिए आज उसने वीणा नही ली । सारंगी वाले ने बजाया । और गौरांगी ने गायन किया ।
बृज नव तरुणि कदम्ब मुकुट मणि , श्यामा आजु बनी ।
नख सिख लौं अंग अंग माधुरी , मोहे श्याम धनी ।।
यौं राजत कवरी गुंथित कच , कनक कंज वदनी ।
चिकुर चंद्रिकन बीच अरध विधु , मानौं ग्रसित फनी ।।
सौरभ रस सिर श्रवत पनारी , पिय सीमंत ठनी ।
भृकुटी काम कोदंड नैंन सर , कज्जल रेख अनी ।।
तरल तिलक ताटंक गंड पर , नासा जलद मनी ।
दसन कुंद सरसाधर पल्लव , प्रीतम मन शमनी ।।
चिबुक मध्य अति चारु सहज सखी , साँवल विंदु कनी ।
प्रीतम प्राण रतन सम्पुट कुच , कंचुकि कसिव तनी ।।
भुज मृणाल बल हरत वलय जुत , परस सरस श्रवनी ।
श्याम सीस तर मनु मिंडवारी , रची रुचिर रवनी ।।
नाभि गम्भीर मीन मोहन मन , खेलनि को हृदनी ।
कृश कटि पृथु नितम्ब किंकिनी व्रत , कदली खम्भ जघनी ।।
पद अम्बुज जावक जुत भूषण , प्रीतम उर अवनी ।
नव नव भाइ विलोभि भाम इभ, बिहरत वर करिनी ।।
श्रीहित हरिवंश प्रशंसित श्यामा , कीरत विशद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर , विश्व दुरित दवनी । 29 ।
बृज नव तरुणि कदम्ब मुकुट मणि श्यामा आजु बनी ………….
आहा ! क्या पद है …श्यामा जू के शृंगार का क्या अद्भुत वर्णन है ।
ये सच ! ध्यान का ही विषय है …..इसकी व्याख्या नही हो सकती …इसलिए चलिये इसी पद का पागलबाबा ने हमें ध्यान कराया है …अद्भुत ध्यान है इसका तो ।
!! ध्यान !!
अनुपम शोभा है आज इस श्रीवन की ….माधवी कनक बेलि आदि लताएँ पुष्पों के भार से झुक गयीं हैं ……ललितादि सखियों ने उस कुँज को और सजा दिया है …लता कुँज है ये …लताओं से आच्छादित कुँज है …इसकी शोभा देखते ही बनती है । कमल दल से निर्मित सिंहासन है …उसमें युगल सरकार विराजमान हैं …..तभी श्याम सुन्दर की इच्छा हुई कि अपनी प्यारी को वो सजायें ….उनका शृंगार करें …..ललिता सखी को संकेत किया …वो तुरन्त लेकर चली आयीं पुष्पों की टोकरी ….जिसमें पुष्पों के आभूषण थे ….काजल था , पाँव में लगाने के लिए महावर….लाल चन्दन …चित्रावली अंगों में करने के लिए चन्दन …जिसे बड़े ही गम्भीरता के साथ घिसा गया था । सिन्दूर कंघी ।
श्याम सुन्दर ने सखियों को संकेत करके कहा ….तुम लोग अब जाओ …सखियाँ हंसती हुयी चली गयीं ….अब श्याम सुन्दर ने अपनी प्रिया का शृंगार किया …..वेणी बनाई …उसमें नाना रंग के फूल लगाये …..फिर अंगों में चित्रावली की ….अंग का दर्शन करते ही कुछ समय के लिए तो श्याम सुन्दर प्रिया के गोद में ही अचेत हो कर गिर गये थे ….प्रिया ने ही अधररस पिलाकर उन्हें जगाया था । प्रिया की गहरी नाभि को देखकर श्याम सुन्दर फिर देह सुध भूलने जा रहे थे पर इस बार प्रिया ने पूर्व ही उन्हें सम्भाल लिया । प्रिया के पाँव अपनी गोद में रखकर महावर लगा रहे हैं श्याम सुन्दर ….बीच बीच में उन सुंदरतम पाँवों को अपने नयनों से लगा लेते हैं …तब प्रिया …”प्यारे ! ऐसा मत करो”….कहती हैं तो श्याम सुन्दर कह उठते हैं ….आपके पाँव में महावर की रचना बारीक है …जिसे सावधानी पूर्वक करनी पड़ रही है इसलिये कभी कभी नयनों से छुभ जाते हैं । अद्भुत बनी हैं श्यामा जू आज । कैसे नही बनेंगी ….श्याम ने अपने हाथों से तैयार किया है अपनी प्रिया को ।
सखियों ! आओ …श्याम सुन्दर जोर से बोले । सब तो बाहर ही थीं …आगयीं भीतर …जब देखा श्यामा जू को ….तब हित सखी मटकती श्याम सुन्दर की ओर देखकर बोली ….वाह ! लालन ! आप तो बहुत सुंदर सजाना जानते हो ! श्याम सुन्दर गर्व से फूल गये ….तब हित सखी कहती है ………….
नित्य नवीन रूप लावण्य से सम्पन्न हमारी प्यारी जू तो सदैव ही सुंदर हैं …पर आज तो कुछ विशेष लग रही हैं …..बृज युवतीयों के रूप को भी प्रकाश देने वाली ये मुकुट मणि हैं …ये श्यामा जू आज और और सुन्दर बनी हैं …क्या लग रही हैं ! तृण तोड़कर हित सखी फेंक देती है ..ताकि श्यामा जू को किसी की नज़र न लगे ।
अच्छा सखी ! श्याम सुन्दर ने इन्हें सजाया है ….पर देखो तो ये रसिकवर श्यामा जू के अंग अंग की रूप माधुरी को देखकर स्वयं ही सुध बुध खो बैठे हैं ….कैसे अपलक निहार रहे हैं ।
हित सखी इतना कहकर श्रीजी की झाँकी का दर्शन करने लग जाती है …सारी सखियाँ निहार रही हैं ….मुग्ध हैं …फिर कुछ देर बाद हित सखी का ध्यान श्यामा जू की वेणी पर जाता है …तो वो कहती है …..वेणी कितनी सुन्दर गुँथी है …..काले केश की वेणी …सघन सचिक्कन केश की वेणी , क्या अद्भुत लग रही है ….उसमें जो फूल लगे हैं वो और सुन्दर लग रहे हैं ।
हित सखी ये बोलते ही और चमत्कृत हो उठती है ……
सखी देखो ! काले घुंघराले केश जब उड़ते हुए प्रिया जू के मुखचन्द्र पर आजाते हैं तो ऐसे लगते हैं जैसे राहु ने चंद्रमा को ग्रस लिया हो । ये सुनते ही अन्य सखियां हित सखी से कहने लगीं …सखी ! उपमा तो तेनें बड़ी सुंदर दी …सच कह रही है …ऐसा ही लग रहा है …मानों चंद्रमा को राहु ने ग्रस लिया हो ।
हित सखी बोली वेणी आगे आगयी है अब …प्रिया जू ने वेणी को आगे ले लिया है इसके कारण तो अब ऐसा लग रहा है …शेषनाग ने अपने मुख में अर्ध चन्द्र को ग्रस लिया । कहाँ ? सखियाँ पूछती हैं …तो हित सखी – सामने कुँज के वार में प्रकाश में जो परछाईं पड़ रही है उसमें देख …ऐसा लग रहा है ..शेषनाग ने अर्धचन्द्र को ग्रस लिया हो । अन्य सखियाँ जब देखती हैं तो हित सखी को चूम उठती हैं …कहतीं हैं ..सौन्दर्य को देखने की तेरी पद्धति पर हम बलिहार जाती हैं ।
अब और देख ! हित सखी कहती है – प्रियतम ने इनके माँग की रचना की है …उसमें सिन्दूर लगा है …ऐसा लग रहा है …मानों सिर से बह रही सुहाग की पनारी हो । और और सुन ! हित सखी आनंदित है – दोनों भौंहें प्रिया जू की काम देव के धनुष जैसी …और नयन बाण जैसे …काजल लगे हैं ना वो बाण की नौंक हैं ….तभी तो देख , श्याम सुन्दर घायल पड़े हैं ।
हित सखी की बातें सुनकर अब तो ललितादि सखियाँ भी पास में आगयीं ….और मुस्कुराते हुये हित सखी की बातें सुनने लगीं ।
हित सखी अब आगे बोली – इनके कानों के कुण्डल देखो …गोरे गालों पर उसका जो प्रतिबिम्ब पड़ रहा है …उसकी शोभा तो कहते नही बन रही । माथे में तिलक , तरल तिलक , चमकता हुआ तिलक कितना सुन्दर लग रहा है । और नाक में लगी वेसर , मोती की वेसर जब हिलती है …तो श्याम सुन्दर भी हिल जाते हैं …ये कहते हुए हित सखी ताली बजाकर हंसी । तो श्याम सुन्दर का ध्यान आकर्षित हुआ इधर …पर हित सखी ने कहा …उधर ही देखो प्यारे ! बहुत सुंदर सजाया है आपने , आपकी ही प्रशंसा हो रही है । श्याम सुन्दर मुस्कुराते हुए फिर अपनी प्रिया को देखने लगते हैं । सखी की बात पर इस बार प्रिया जू भी हंसीं ….तो उनकी दंतपक्ति दीख गयी ….हित सखी बोली बोली – देखो ! लाड़ली की दंतपंक्ति कितनी सुन्दर हैं ….झिलमिलाते हुए दंत …कुंदकलि के समान दंत । और …..हित सखी रुक गयी ये बोलकर …तो सारी सखियाँ एक साथ पूछने लगीं ….और ? और …..ललिता सखी ने संकेत से पूछा …बोल ना ! और ?
हित सखी बोली ….इनके अधर …..रसपूर्ण हैं …रस से भरे हैं ….श्याम सुन्दर कैसे ललचाई दृष्टि से देख रहे हैं ….यही तो पान करेंगे । कोमल हैं , और अरुण हैं ।
हित सखी हंसते हुए बोली ….इनके ठोडी के मध्य जो श्याम बिंदु है वो कितना सुन्दर लग रहा है …आहा ! ये कहकर हित सखी मन्दमन्द मुस्कुराने लगी ….अन्य सखियाँ बोलीं …आगे बोल …हित सखी बोली – इनकी चोली कितनी कसी हुई है ….बड़े ही जतन से बांध के रखा है प्रिया जू ने इन्हें । ललिता मुस्कुराते हुये बोली …क्यों ? हित सखी बोली – क्यों कि ये प्रियतम के प्राण रतन हैं …जैसे रत्नों को कोई छुपा कर रखता है …ऐसे ही प्यारे के इन दो रत्नों को इन्होंने बड़े जतन से छुपा के रखा है ।
और निहारो सखी ! प्यारी की भुजाएँ ऐसे लग रहे हैं जैसे कमल नाल हों ….कोमल हैं ये भुजाएँ …ललिता सखी ने कहा …तो हित सखी बोली …कोमल तो हैं पर श्याम सुन्दर जैसे बलशाली के बल को यही हरण करने वाले हैं । ये सुनते ही ललिता सखी उन्मत्त भाव से हंस पड़ी ….और बोली …सच कह रही है तू ।
अब ! सब सखियाँ पूछने लगीं – अब ? नाभि देख हमारी प्रिया जू की ….कितनी गहरी नाभि है …..हित सखी बोली – इसी नाभि सरोवर में तो हमारे श्याम सुन्दर का मन मछली बनकर खेलता रहता है …..वो मीन मन कभी कभी खो जाता है …ललिता सखी आह भरते हुए बोली । और इनकी कटि कितनी कृश है ….चलती हैं तो लगता है कहीं टूट ही न जाये । और नितम्ब बड़े हैं । नितम्ब को स्पर्श कर रहे हैं किंकिणी ….क्या शोभा हो रही है इनकी । और जंघा केले के स्तम्भ के समान हैं ……कितने सुन्दर लग हैं ।
अब आजाओ सखी चरणों में ….आहा ! महावर से रंगे ये श्रीचरण, कमल के समान हैं ….जो प्रियतम के हृदय में सदैव विराजे रहते हैं । इन चरणों का ध्यान तो श्याम सुन्दर हर क्षण करते रहते हैं …अद्भुत हैं ये चरण । इतना कहकर सब सखियों ने प्रिया जू के चरणों की वन्दना की ।
हित सखी बोली ….ये श्रीराधिका हैं ….प्रेम की महादेवी हैं ….इनके कीर्ति का जो गान करता है …इनके यश को जो जगत में फैलाता है उससे संसार का पाप ताप सब दूर हो जाता है ।
हित सखी इतना कहकर ध्यानस्थ हो गयी थी ।
पागलबाबा उन्मत्त हो उठे ….वो प्रेम के आवेश में चिल्लाने लगे …हाँ , विश्व के पाप ताप को यही “प्रेमरस” दूर कर सकता है ….यही प्रेम का मार्ग सच्चा मार्ग है …युगल की उपासना ही तुम्हारे जन्मजन्मान्तर के ताप को दूर करेगी । इतना कहकर वो धरती पर गिर गये थे …देह सुध वो भूल गए थे ….उस समय उनके अंगों से …राधा राधा राधा राधा …यही नाम गूँज रहा था ।
गौरांगी ने कुछ देर बाद फिर इसी पद का गायन किया –
बृज नव तरुणि कदम्ब मुकुट मणि, श्यामा आजु बनी ………
जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे ।
आगे की चर्चा अब कल –


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